रंग सप्तक : सबसे अलग आवाज़...
Advertisement

रंग सप्तक : सबसे अलग आवाज़...

मुझे सबसे ज्यादा आलोक की कविताओं ने प्रभावित किया. ये कविताएं दरअसल मन से मन की बात हैं. आलोक को यह गलतफहमी कतई नहीं है कि उनके लिखे-कहे से साहित्य का कोई नया गोत्र शुरू हो रहा है. न ही साहित्य के किसी मठ में शरण लेने की उद्घोषणा उन्होंने कभी की.

रंग सप्तक : सबसे अलग आवाज़...

'उम्र सीढ़ियां चढ़ती रही और मन के मौसम बदलते रहे. समय का एक लंबा पुल खंडवा और मेरे दरमियां बिछ गया था. दोस्तों-यारों के चेहरे कुछ ओझल पड़ने लगे और यादों-बातों के किशमिशी अहसास रोजी के संघर्ष की आंच में कुम्हलाने लगे थे. हालांकि नीम खामोशी के लम्हों में अक्सर पीछे छूट गए अपने शहर के कुछ बिंब आंखों में तैरने लगते. यूं वक्त के दो किनारों पर फैल गया था वजूद. अचानक उस पार से आई एक आवाज़ ने कुछ ऐसी दस्तक दी कि यादें अपना अलबम खोलकर बैठ गईं. विनय भैया, मैं आलोक. आलोक सेठी खंडवा से. आपकी आवाज़ और लेखनी का मुरीद. आपको शायद पता न हो, लेकिन आप ही से हिन्दी में रचनात्मक लेखन का ककहरा सीखकर मैं भी इस दिशा में सक्रिय हुआ हूं. चाहता हूं मेरी कविताओं के पहले संग्रह की भूमिका आप लिखें.' आदर, अधिकार, प्रेम और मासूम ज़िद से भरी इस पुकार में इतनी कसक थी कि अपनी कुव्वत को तौले बगैर मैंने हामी भर दी. स्मृतियां हरियाने लगीं.

तीस बरस पीछे छूट गए स्कूल के अहाते में निष्कलुप मैत्री का जो रिश्ता जाने-अनजाने अंकुराया था, अनेक धूप-छांहीं मंजरों से गुजरता आलोक के मन के आंगन में आज भी वो हिलोरे ले रहा है. जानकर अचरज़ भी और सुख भी. ख़ैर आलोक की कविताओं के बहाने खंडवा के अतीत राग को फिर से गाने का मौका मिला. अपनी धरती की मटियारी गंध में बिरमना सदा ही सुहाता है. अपने दोस्त की ज़िंदगी के अध्यायों को बांचने का बेशक एक नया क्षितिज खुला. इस बीच सचमुच बहुत कुछ बह गया. खंडवा की कारोबारी दुनिया में आलोक का नाम और हैसियत जिस मुकाम पर है, उसका अंदाजा मुझे नहीं था, लेकिन जब पता भी चला तो इस बात का फक्र हुआ कि बाज़ार की दौड़-होड़ और वर्चस्व की जद्दोजहद के बीच उसकी मनुष्यता पर खरोंच तक नहीं आई. सहजता का संस्कार, रिश्तों को निभाने का आचार और हमेशा नया और अनूठा रचने का आधार इस किरदार की पहचान बन गई. घर से मिला उसूलों का सबक, स्कूल में पाए अनुशासन और मेहनत का इल्म तथा शहर से संचित भाईचारे और मोहब्बत की सीखों ने आलोक की शख्सियत को इस तरह तराशा कि समंदर पार तक उसके दोस्ताना पैगाम की दस्तकों को आज सुना जा सकता है. आलोक के इस बढ़ते दायरे से मुझे भी बावस्ता होने के कई अवसर आए और परस्परता के नाते मुझे उसकी इस कमाई पर भी बेहद खुशी और नाज़ है.

यह भी पढ़ें- रंग सप्तक : कोलाज में रमते श्रीकांत

इस दिल-फेंक दोस्त के कई रंग हैं. यानी अच्छी किताबों को बांचने और उनके संग्रह से लेकर, खुद की कलम से रचने, साधिकार बोलने, दुनियाभर के सैर-सपाटे पर निकल जाने से लेकर अपने शहर की नागरिकता को सही अर्थों में साबित करने तथा बहस-मुबाहिस का मकसद भरा हिस्सा बनने तक आलोक की उत्साही भूमिका को लक्ष्य किया जा सकता है. वो, जो अक्सर कहा करते हैं कि ‘कौन चुराकर ले गया मेरे समय को’, आलोक से सीखें कि समय की झोली में रखे वक्त के एक-एक कीमती दाने को कितनी नज़ाकत, किफायत और लियाकत से खर्च किया जाना चाहिए.

बहरहाल मुझे सबसे ज्यादा आलोक की कविताओं ने प्रभावित किया. ये कविताएं दरअसल मन से मन की बात हैं. आलोक को यह गलतफहमी कतई नहीं है कि उसके लिखे-कहे से साहित्य का कोई नया गोत्र शुरू हो रहा है. न ही साहित्य के किसी मठ में शरण लेने की उद्घोषणा उसने कभी की. न तो स्थापना की महत्वाकांक्षाओं और दायरों में बंधकर आलोचना के महंतों से सायास साधुवाद पाने की गरज से किया गया लेखकीय प्रयोजन है, न ही उत्तेजना और सनसनी का कोई लक्ष्य उसकी कलम पर हावी है. उसके लेखन कार्य तो एक कस्बाई युवक के मन के आंगन में सुबह-सुबह बिखरे अहसासों के परिजात फूलों की सहज पवित्रता और सुंदरता के रूपक हैं, जिन्हें प्रकृति ने गढ़ा है.

fallback
आलोक से हम यह सीख सकते हैं कि समय की झोली में रखे वक्त के एक-एक कीमती दाने को कितनी नज़ाकत, किफायत और लियाकत से खर्च किया जाना चाहिए.

डायरी और कागज़ की पुर्जियों पर अब तक सिमटी संकोचभरी कविताओं, प्रेरक उद्धरणों और विदेश यात्राओं के ज्ञानवर्द्धक रोचक वृत्तांतों को किताबी शक्ल में इकजाया करने की फितरत ने आलोक को हमारे समय की प्रबुद्धता से जोड़ दिया है. यह आलोक की शख्सियत और उनके सृजन की उपलब्धि है. नई पीढ़ी पर बार-बार लगाई जा रही तोहमतों के बीच हमारे लिए फिर भरोसा घना हुआ कि उसकी आत्मा में संवेदना की नमी अभी बाकी है. जड़ें मिट्टी से उखड़ी नहीं हैं.

यह भी पढ़ें- रंग सप्तक : उत्सव गाती रेखाएं

आलोक से अपरिचित पाठकों के लिए यह यकीन करना ज़रा मुश्किल हो सकता है कि भावों और शब्दों की जुगलबंदी की यह फितरत उस वणिक-पुत्र पर सवार है जिसकी कारोबारी दुनिया में बाजार का गणित अहम है. वर्चस्व का व्यापार जिसकी नियति का हिस्सा हो उससे विचार को वरण करने की कविताई कूबत की अपेक्षा करना बेमानी है लेकिन आलोक के भावुक मन पर जिंदगी की धूप-छांही इबारतों ने ऐसा कुछ असर किया कि अनुभूतियां शब्द से गलबाहें करने मचल पड़ीं. अभिव्यक्ति की यह छटपटाहट अचानक घटने वाली घटना नहीं, इसकी पीठिका में होती है जीवन के प्रति गहरी आस्था, रिश्तों के प्रति प्रगाढ़ आत्मीयता और मानवीय व्यवहार निभाने की संस्कार शक्ति.

आलोक के संकलन के इर्द-गिर्द कुछ सोचते-लिखते हुए मेरे मन का पंछी करीब पच्चीस बरस पीछे उड़ान भरता वक्त की उस मुंडेर पर जा बैठा जहां से खंडवा की आबोहवा में संवरती किशोर-युवा पीढ़ी की चहक-महक अब भी ताजा अहसास दे रही है. नज़रें आलोक पर जाकर टिकती हैं तो स्कूली छात्र जीवन से लेकर रोजी की दहलीज पर दस्तक देते अंतराल में आलोक की छवि को उसके हमउम्रों से कुछ अलग पाता रहा. दुनियावी कौतुहलों में जीकर भी विचार और व्यक्तित्व के प्रति अतिरिक्त सजगता का संस्पर्श सदा ही मैं इस मित्र में महसूस करता रहा. एक मुद्दत बाद जब आलोक द्वारा संकलित साहित्य ‘तुरपाई... उधड़ते रिश्तों की’ मेरे हाथों में आया तो अपने मित्र-स्नेही की रचनात्मक पहल पर नाज़ हआ. रिश्तों की महिमा बखान करते इस मर्म छूते प्रकाशन को मिले अप्रत्याशित पाठकीय प्रतिसाद से आलोक का मनोबल ऊंचा हुआ. उसके भीतर उत्साह की नई लहर जागी.

भूमिका में आलोक के निवेदन पर गौर फरमाएं, ‘इसे इसी नज़र से पढ़िएगा कि एक बनिये ने बहीखाते के अलावा भी ‘कुछ’ लिखने की जुर्रत की है.' यह ‘कुछ’ कविता की परिभाषा में कितना सटीक बैठता है इस बहस पर आलोचक अपना सिर खपाएं, लेकिन जैसा कि मैंने शुरू में ही साफ किया है, आलोक की रचनात्मकता शायद साहित्यिक आग्रहों से ऊपर उठकर संवेदना की आंच में आकार लेने वाले उद्गारों के आसपास अपनी सार्थकता की तलाश करती है.

यह भी पढ़ें- दक्षिण में जन्मा उत्तर भारतीय

किसी आलोचक का पढ़ा याद आता है, ‘कविता को किसी सुनिश्चित आकार-प्रकार, सांचे या अभिव्यंजना पद्धति में आज तक बांधा नहीं जा सका. हमारे आस-पास भीड़ में शामिल अपूर्व और मौलिक चेहरों की तरह कविता भी चिरनूतन रही है, प्रकृति सृजन की तरह’. बिना शक आलोक की कविता का चेहरा भी नया और अपने आप में अनूठा है आप नजरें मिलाएं, उससे गुफ्तगू करें तो संभव है कि आपका कहा-अनकहा, देखा-अनदेखा किसी शब्द से फूटता नजर आए. कोई कविता अतीत की खिड़की बन जाती है, तो कोई पंक्ति मन की डोर से बंधकर आसमानी उड़ान का इशारा करने लगती है. कहीं प्रेम है, कहीं प्रायश्चित है, कहीं करुणा है, कहीं कटाक्ष है, कहीं सार है, तो कहीं सवाल है. कुल मिलाकर अपने समय में, अपनी समझ के दायरों में ज़िंदगी के पोशीदा पहलुओं को रोशन करने की हिमायत हमारे समय के एक भावुक नवोदित ने की है तो उसका मुक्त मन से मैं स्वागत करता हूं.

आलोचना की दूरबीन लेकर साहित्य का पाठ करने वाले आचार्यों को आलोक की कविता में खोट नज़र आ सकता है. मसलन वे कविता के शिल्प, अनुभव के कच्चेपन और विषयों के चुनाव को लेकर प्रश्न दाग सकते हैं, तो दागें, आलोक को अपने तर्कों के साथ तैयार भी रहना होगा. लेकिन उन साहित्यिक सवालियों से भी एक सवाल- ‘क्या बाजार की कोख से कभी उन्होंने कविता की झीर को फूटते देखा है?’

बहरहाल, चश्में से झांकती इन दो आंखों ने बचपन से लेकर आधी सदी तक के इस सफर में जो कुछ देखा-बटोरा, चाहा वो सब तजुर्बों की नायाब किताब बनें. अपनी चाहत की जो खूबसूरत दुनिया आलोक ने बसाई है वो कायम रहे. मोहब्बत से भरा एक इंसान जो आलोक के सीने में हर दम धड़कता है, वक्त की आंधियों में भी वो मजबूत इरादों और दोस्ती की महक लिए ज़िंदगी के हर मोड़ पर हमारा हाथ थामता रहेगा यकीन है.

आलोक हमेशा आवाज़ देते रहेंगे-

छोटा करके देखिए-जीवन का विस्तार
आंखों भर आकाश है, बांहों भर संसार
आमीन

(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

Trending news