चुनावी मुद्दों की शर्तें : क्या 2019 का मुख्य मुद्दा किसान होगा?
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चुनावी मुद्दों की शर्तें : क्या 2019 का मुख्य मुद्दा किसान होगा?

चुनावी मुद्दे की पहली शर्त है कि वह ऐसा हो जिसका सरोकार अधिकतम मतदाताओं से हो. इसीलिए यह ढूंढा जाता है कि देश में अधिसंख्य लोग कौन हैं.

चुनावी मुद्दों की शर्तें : क्या 2019 का मुख्य मुद्दा किसान होगा?

सबसे रोमांचकारी भविष्य की अटकलें होती हैं. अगले लोकसभा चुनाव की भविष्यवाणी भी रोचक हो सकती है. करीब एक साल का समय बचा है. चुनाव की तैयारियां शुरू हो गई हैं. इसीलिए यह अटकलें लगाने का समय आ गया है कि अगले चुनाव का मुख्य मुद्दा क्या होगा? मौजूदा हालात में समस्याओं को देखें तो आसार ये दिखते हैं कि मुख्य मुद्दा देश के बदहाल किसान या उनकी रिहाइश यानी गांव होंगे. गुजरात चुनाव के परिणाम के आधार पर भी हम इसे भांप सकते हैं. यानी जब मतदाताओं के मुख्य लक्षित समूह ढूंढे जाएंगे, उनके केंद्र में किसान ही होगा. मौजूदा सरकार के बजट के बाद सत्तारूढ़ दल ने बजट को किसान हितैषी बताने का प्रचार शुरू कर ही दिया है. यह मुद्दा राजनीतिक नज़रिए से कितना अहम हो सकता है, इसके कुछ पहलू देख लेने चाहिए.

किसी भी चुनावी मुद्दे की पहली शर्त
मुद्दा ऐसा हो जिसका सरोकार अधिकतम मतदाताओं से हो. इसीलिए यह ढूंढा जाता है कि देश में अधिसंख्य लोग कौन हैं. सांख्यिकी के लिहाज़ से देखें तो गांव की आबादी सबसे ज्यादा बैठती है. आज भी 70 फीसदी भारत गांव में ही रहता है. भले ही गांव से शहर की ओर पलायन हुआ हो लेकिन शहर में आकर मज़दूरी करने वाला बड़ा तबका गांव का ही है. वैसे इसमें तो किसी को भी हिसाब लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी कि देश के कार्यबल में आज भी 50 फीसदी से ज्यादा किसान ही हैं. यह अलग बात है कि किसान की राजनीतिक भागीदारी सिर्फ वोट देने तक रही. आज उसकी भूमिका मुख्यधारा से दूर दिख रही है.

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बहुत से विश्लेषण भी बताते हैं कि राजनीतिक भागीदारी के अभाव के कारण उसे देश के संसाधनों में अपने वाजिब हक का लाभ नहीं मिलता. ये भी कोई नई बात नहीं है. लेकिन इसमें नई बात यह है कि किसान की भयावह बदहाली के बाद उसकी राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाने के नए योग बने दिख रहे हैं.

पहले भी यह मुद्दा रहा ज़रूर, मगर मुख्य मुद्दा नहीं
कोई कह सकता है कि इसमें नई बात क्या है, क्योंकि किसान की बात तो हर चुनाव में रहती आई है. बिल्कुल सही बात है. लेकिन यह कभी नहीं हुआ कि किसान को सबसे ऊपर रखा गया हो. खासतौर पर निकट भूतकाल का रुझान देखें तो हम विकास की बातें करते आए हैं. और विकास को उद्योग व्यापार से ही साधने की बात करते रहे. बेशक इसीलिए हम दुनिया में तेज़ रफ़्तार से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हैं. जीडीपी नाम की इस वृद्धि को हम विकास कहते आए हैं. उद्योग और व्यापार को बढ़ाने का तर्क हम यह देते आए हैं कि उद्योग व्यापार में आर्थिक वृद्धि होगी तो वह अपने आप ही गरीब या किसान तक पहुंच जाएगी.

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नई बात यह है कि इस सिद्धांत की सत्यता पर शक होने लगा है. जिस देश की अधिसंख्य आबादी कृषि पर निर्भर हो इसके बाद भी वहां कृषि विकास दर घटकर आधी रह जाए तो विकास की परिभाषा बदलने की बातें तो होंगी ही. और हो भी रही हैं. राजनीतिक दलों को भी समझ आ चुकने की संभावना है कि इस वंचित तबके को सीधे ही सुख सुविधा पहुंचाने का उपक्रम करना जरूरी हो गया है.  

राजनीति से क्या चाहेगा किसान...
अगर चुनाव में मुख्य मुद्दा किसान बनता है तो यह भी देखा जाएगा कि आखिर किसान चाहेगा क्या? बेशक वह यही चाहेगा कि राष्ट्रीय स्तर पर जो नीतियां बनती हैं उनका ज्यादा सरोकार किसान से हो. इस समय विकास की योजनाओं में किसान केंद्र में देखने को नहीं मिलता. और जो योजनाएं उसके लिए बनती भी हैं वो सही तरीके से लागू न हो पाने की वजह से किसानों को फायदा नहीं पहुंचा पातीं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण फसल बीमा योजना है. ज़मीनी स्तर पर इस योजना की क्या स्थिति है उसे कभी विस्तार से अलग से देखने की जरूरत है. ऐसी ही कई योजनाएं हैं जिनका सिर्फ सही क्रियान्वयन ही किसानों की आधी मुश्किलें दूर कर सकता है.

क्या सिर्फ नारे वादे से काम चल पाएगा?
बस यहीं दिक्कत है. नारों की ऐसी पोल खुलती रही है कि अब नारों पर जनता का यकीन कम हो चला है. हमारा लोकतंत्र अब 70 साल का अनुभवी लोकतंत्र है. आज जो कष्ट में हैं उनमें जागरुकता भी बढ़ चली है. सो अब उन्हें कोरे वादों से लुभाया नहीं जा सकता. जिहाज़ा चुनावी वादों को वे बड़े गौर से जांचे परखेंगे कि जो चुनावी वादा किया जा रहा है वह व्यावहारिक कितना है. यानी किसान सबसे पहले यह देखेगा कि उससे किए जा रहे वादे पूरे करने की सरकारी क्षमता और प्रकिया क्या है. वह यह भी देखेगा कि राजनीतिक दल की विश्वसनीयता क्या है. इस आधार पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि अगले चुनाव में राजनीतिक दलों के बीच एक होड़ यह भी मचेगी कि कौन सा राजनीतिक दल किसानों के लिए विश्वसनीय योजना या सिलसिलेवार खाका बनाकर लाता है. यानी 2019 के चुनाव में कोई राजनीतिक दल अगर किसान और गांव के हित का नारा लगाएगा तो हाल के हाल उसे यह भी बताना पड़ेगा कि वह किसान हितैषी या गांव हितैषी काम करेगा कैसे? इसीलिए हम कह रहे हैं कि 2019 के चुनाव में भारत का बदहाल किसान हर राजनीतिक दल की अगले पांच साल के प्रस्तावित कार्यक्रमों की व्यवस्थित और विस्तृत रूपरेखा देखना सुनना चाहेगा. अगला चुनाव होने में सिर्फ एक साल बचा है सो राजनीतिक दल अभी से किसान हितैषी काम का ब्योरेवार खाका बनाने में लग जाएं तो अच्छा है वरना ऐन मौके पर सिर्फ नारे बनवाने का ही समय बचेगा.

(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)

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