हिमांशु जोशी: ऐसे भी किसी के मन को भला क्या छूना...
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हिमांशु जोशी: ऐसे भी किसी के मन को भला क्या छूना...

हिमांशु जोशी के आज न रहने पर, जब मैं उनके बारे में सोच रहा हूं, तो बार-बार मेरा मन मुझसे एक ही सवाल कर रहा है, 'कहीं ऐसा तो नहीं कि एक लड़की की इस अनदेखे लेखक के प्रति दीवानगी ने ही तुम्हें लेखक बनने के लिए उकसाया था?'

हिमांशु जोशी: ऐसे भी किसी के मन को भला क्या छूना...

यह सन् 1977 के दिनों की बात है, जब मैं हिन्दी साहित्य में एम.ए. कर रहा था. मुझे लगभग हर महीने अपनी दुकान की खरीदी के लिए कलकत्ता (कोलकाता) जाना पड़ता था. इस बार जब मैं जा रहा था, तो मेरे साथ पढ़ने वाली एक लड़की ने, जो बहुत ही साहित्य प्रेमी थी, मुझसे कलकत्ता से एक किताब लाने को कहा और वह भी उसकी चौदह प्रतियां. मैं चौंक गया. सच पूछिए तो तब तक मेरे साहित्य का ज्ञान स्कूली किताबों से इंच भर भी न तो आगे था और न ही ऊपर.

चूंकि अनुरोध एक लड़की का था, जो उस जमाने में बहुत बड़ी बात हुआ करती थी, और उसके इस 'आदेशनुमा अनुरोध' ने मुझे देखते ही देखते कॉलेज में चर्चित कर दिया था, इसलिए उसे पूरा करने के लिए पूरे कलकत्ता की खाक छानकर मैं कुल जमा बारह प्रतियां ही इकठ्ठी कर पाया. उस लड़की ने बसंत पंचमी के उत्सव पर उसकी एक-एक कॉपी हम सभी क्लास वालों को उपहार में दी. दो लोग इससे इस वायदे के साथ वंचित रह गए, 'उन्हें अगले महीने मिल जाएगी.' भाग्य से मैं अगले महीने वालों में शामिल नहीं था. मैं उसमें शामिल होना भी नहीं चाहता था.

इसका कारण यह था कि मैं इस उपन्यास को पढ़ने को बेहद बेताब था. इसलिए नहीं कि मुझे उपन्यास अच्छे लगते थे. बल्कि सिर्फ इसलिए कि आखिर वह कौन ऐसा खुशकिस्मत लेखक है, जिसकी दीवानी वह लड़की है, जिस लड़की का दीवाना चार हजार लड़कों वाला पूरा कॉलेज था.

जब मैं सिविल सर्वेंट बनकर दिल्ली गया, तो मेरी सबसे बड़ी और एकमात्र निजी इच्छा यह थी कि मैं उस उपन्यास के लेखक से मिलूं. मैं उनसे मिला भी, और मिलकर हतप्रभ रह गया. और बाद में लगातार उनसे मिलता रहा.

इस लेखक का नाम था - हिमांशु जोशी और उनके उस उपन्यास का नाम था 'छाया मत छूना मन'. बाद में जब मैंने उनसे इस घटना का जिक्र किया, तो सुनकर वे कुछ इस तरह शर्माए, मानो कि मैं उनकी इस उम्र में (55 साल) उनके लिए किसी के प्रेम का अनुरोध लेकर आया हूं. कुल मिलाकर मेरे लिए ये थे- हिमांशु जोशी, और मेरे लिए अंत तक वे यही बने रहे.

23 नवंबर को जैसे ही उनके निधन की खबर को आंखों ने पढ़ा, वैसे ही लगा कि दिल के अंदर से कहीं चटक की धीमी किन्तु बहुत तीखी आवाज आई हो. पता नहीं क्यूं, कुछ ऐसा भी लगा, मानो कि मेरे अंदर का लेखक अचानक कुछ कमजोरी महसूस कर रहा है. आज उनके न रहने पर, जब मैं उनके बारे में सोच रहा हूं, तो बार-बार मेरा मन मुझसे एक सवाल कर रहा है, 'कहीं ऐसा तो नहीं कि उस लड़की की इस अनदेखे लेखक के प्रति दीवानगी ने ही तुम्हें लेखक बनने के लिए उकसाया था?'

इस प्रश्न के उत्तर के रूप में कहा गया यह एक सच्चा शब्द 'हां' ही मेरी उनको दी गई पहली एक कृतज्ञ श्रद्धांजलि है.

हिमांशु जी, अब मैं आपके नगर में नहीं रहता. लेकिन जहां मैं रहता हूं, वहां वह लड़की जरूर रहती है, जिसने मुझे आपसे मिलवाया था. अब आपसे तो कभी मिलना मुमकिन हो नहीं पाएगा. किन्तु आपके न रहने की खबर पढ़ने के बाद मैं उस लड़की से मिलने गया था. हम दोनों ने “छाया मत छूना मन” के बारे में खूब बातें की. यह आपको हम दोनों की पहली संयुक्त किन्तु मेरी दूसरी श्रद्धांजलि है.

अब आखिरी में एक सवाल हिमांशु जी कि 'ऐसे भी किसी के मन को भला क्या छूना.'

(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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