पिछले एक दशक से बायोपिक फिल्मों की जैसे बाढ़-सी आ गई है. 'डर्टी पिक्चर' से शुरूआत हुई यह यात्रा बहुत तेजी के साथ गतिशील है. यह बात अलग है कि इसके लिए जिन लोगों की जीवनी को आधार बनाया जा रहा है, उसमें अभी खिलाड़ियों की जीवनियां नम्बर वन पर हैं.
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पिछले लगभग दस सालों से हिन्दी फिल्मों के चरित्र में एक जबर्दस्त बदलाव देखने को मिल रहा है. यह बदलाव केवल टेक्नालाॅजी तक सीमित नहीं है, बल्कि सबसे बड़ी बात यह कि कथ्य के स्तर पर भी उसने अपने अन्दर बहुत सी तब्दीलियां पैदा की हैं. सबसे बड़ी बात तो यह कि यह परिवर्तन भारतीय दर्शकों में यथार्थवादी एवं तार्किक दृष्टिकोण होने को प्रमाणित करते हैं. निःसंदेह रूप से सभी फिल्मों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता और कहा भी नहीं जाना चाहिए. लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि धीरे-धीरे इसके प्रतिशत की संख्या में इजाफा होता जा रहा है.
इस संदर्भ में पिछले एक ही महीने में आई तीन फिल्मों-‘स्त्री’, ‘मन्टो’ तथा अभी चल रही फिल्म ‘सुई-धागा’ को देखा जा सकता है. इनमें ‘स्त्री’ और ‘सुई-धागा’ फिल्म तो व्यावसायिक रूप में भी बहुत सफल रही हैं. यहां मैं इन दो फिल्मों से हटकर तीसरी यानी ‘मन्टो’ फिल्म के बारे में कुछ बातें कहना चाहूंगा.
पिछले एक दशक से बायोपिक फिल्मों की जैसे बाढ़-सी आ गई है. 'डर्टी पिक्चर' फिल्म से शुरूआत हुई यह यात्रा बहुत तेजी के साथ गतिशील है. यह बात अलग है कि इसके लिए जिन लोगों की जीवनी को आधार बनाया जा रहा है, उसमें अभी खिलाड़ियों की जीवनियां नम्बर वन पर हैं. ऐसे दौर में 'मन्टो' जैसे विवादास्पद कहानीकार, और वह भी एक ऐसे कहानीकार पर फिल्म का बनना, जो देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान चला गया हो, बहुत अधिक अहमियत रखता है. इसका महत्व इस बात में भी है कि फिल्म के अंतिम हिस्से तक पहुंचते-पहुंचते यह कुछ राजनैतिक अर्थों के संकेत भी देने लगती है. यह खासकर उस समय महसूस होता है, जब मन्टो को यह रियलाइज होता है कि छोटी-सी बात से नाराज होकर उन्हें, भारत छोड़कर पाकिस्तान नहीं आना चाहिए था. वे पाते हैं कि जिस ब्रिटिश भारत में उनकी कहानियाों पर अश्लीलता का आरोप लगाकर तीन बार मुकदमें दर्ज हुए, मुकदमों की इतनी ही संख्या आजाद पाकिस्तान में भी रही. ब्रिटिश अविभाजित भारत में तो उन्हें सजा भी नहीं हुई थी, जबकि आजाद पाकिस्तान के आखिरी मुकदमे में उन्हें बाकायदा जेल की सजा सुनाई जाती है, जिससे मन्टो बुरी तरह टूट जाते हैं.
आखिर मन्टो पर ही फिल्म क्यों? इसका उत्तर फिल्म की निर्माता-निर्देशिका नन्दिता दास के इस कथन में ढूंढ़ा जा सकता है कि ‘‘आज की दुनिया में क्या हो रहा है, ‘मन्टो’ इसके बारे में प्रतिक्रिया व्यक्त करने की गुंजाइश देता है.’’ कहना न होगा कि नन्दिता दास ने इस गुंजाइश का भरपूर, संवेदना के गहरे स्तर तक आक्रोश भरी मुद्रा में बहुत ही खूबसूरत तरीके से सिनेमेटाई इस्तेमाल किया है.
भले ही यह फिल्म मन्टो की जिन्दगी तथा मूलतः उनकी कहानियों में व्यक्त हुए उनके विचारों को पोट्रेट करती है, लेकिन उसमें इस समय की समाज की विसंगतियों को बहुत साफतौर पर देखा जा सकता है; खासकर महिलाओं की स्थितियों को. इस बारे में फिल्म के दो संवाद बहुत जबर्दस्त हैं. एक जगह मन्टो कहते हैं ‘‘लोग आंखों से नोच सकते हैं’’, तो एक अन्य स्थान पर वे बहुत खूबसूरत अंदाज में कहते हुए सुनाई पड़ते हैं कि ‘‘वह अपने को बेच तो नहीं रही थी, लेकिन लोग उसे धीरे-धीरे खरीदते जा रहे थे.’’
अब, जबकि पूरे देश में दुष्कर्म के मामलों को लेकर रोष और चिन्ता है, तीन तलाक, निकाह, हलाला तथा सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर उनके अधिकारों की मांग की जा रही है, मन्टो का जीवन और अधिक प्रासंगिक हो उठता है. यहां तक कि ‘‘मी टू’’ जैसे वैश्विक अभियान को मन्टो की चिन्ताओं से जोड़कर देखा जा सकता है.
मन्टो का जीवन सन् 1912 से 1955 के बीच का रहा. लेकिन यदि वे आज होते, तो शायद उनकी कहानी का मूल स्वर वही होता, जो उस समय था, क्योंकि जैसा कि इस फिल्म में मन्टो अदालत में कहते हैं ‘‘एक लेखक केवल तभी कलम पकड़ता है, जब उसकी संवेदना को चोट पहुंचती है.’’ आज संवेदना को चोट पहुंचाने वाली घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है, सिवाय एक के कि विभाजन की दरिंदगी का वह दौर गुजर चुका है और साथ ही यह भी कि शायद आज मन्टो को अदालत में खड़ा होकर अपनी सफाई में यह नहीं कहना पड़ता कि ‘‘मैं पोर्नोग्राफर नहीं एक कहानीकार हूं.’’ फिर भी 70 साल बाद भी उन्हें असहमति का वह अधिकार प्राप्त नहीं होता, जो आजादी के बाद अब तक प्राप्त हो जाना चाहिए था. समाज की त्रासदियां उन्हें आज भी कमोवेश वैसी ही झेलनी पड़तीं, जैसी कि उन्होंने उस समय झेली थीं.
इस फिल्म के संदर्भ में जो सबसे बड़ी दो बाते मुझे लगीं, उनमें पहली तो यह कि इसे देखने वालों में युवाओं की संख्या उम्मीद से कुछ अधिक ही थी. दूसरी बात यह कि इसके माध्यम से जिस प्रकार एक लेखक के बाह्य और आन्तरिक संघर्ष के ताप को महसूस कराया गया है, उससे दरअसल सही मायने में दशर्क लेखक की तकलीफों को संवेदना के स्तर पर अनुभव करके न केवल उनसे अपेक्षाकृत जुड़ ही सकेंगे बल्कि उनकी रचनाओं को ज्यादा अच्छे से समझ भी सकेंगे. और यह कम बड़ी बात नहीं होगी.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)