अंग्रेजों के दौर पर बनी ‘ठग्स ऑफ हिन्दुस्तान’ ने दर्शकों को जितना अधिक निराश किया है, शायद ही अब तक किसी फिल्म ने किया हो.
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पिछले दिनों रिलीज हुईं दो फिल्मों को लेकर हिन्दी फिल्म एवं फिल्मी दर्शकों के बारे में कुछ अच्छे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. इन फिल्मों में एक है, ‘बधाई हो’ तथा दूसरी है, ‘ठग्स ऑफ हिन्दुस्तान’. ‘बधाई हो’ के आसपास ही फिल्म ‘अंधाधुंध’ भी रिलीज हुई थी. हालांकि टिकट खिड़की पर इसने भी बहुत अच्छा किया, लेकिन यह हमारे इस विमर्श के दायरे में नहीं आती. हां, इससे पहले आई फिल्म ‘सुई धागा’ को निश्चित तौर पर इसमें शामिल करके यहां निष्कर्ष को और पुख्ता बनाया जा सकता है.
अंग्रेजों के दौर पर बनी ‘ठग्स ऑफ हिन्दुस्तान’ ने दर्शकों को जितना अधिक निराश किया है, शायद ही अब तक किसी फिल्म ने किया हो. लोग सालों से इस फिल्म का इंतजार कर रहे थे. उसका कारण यह था कि एक तो यह पीरियड फिल्म थी. दूसरा यह कि इसमें आमिर खान थे, जिनकी इससे पहले आई लगभग-लगभग सभी फिल्मों ने दर्शकों के मन को जबरदस्त रूप से मोहा है. पिछले साल आई उनकी फिल्म ‘दंगल’ तथा ‘सीक्रेट सुपर स्टार’ अभी भी लोगों के ज़हन में बसी हुई हैं. ‘ठग्स ऑफ हिन्दुस्तान’ की मुख्य भूमिका में अमिताभ बच्चन थे. यशराज चोपड़ा के बैनर का अपना एक अलग तरह का सम्मोहन अभी भी बाकी है.
जाहिर है कि इसमें ऐसा कुछ नहीं था, जो इस फिल्म को सुपरहिट बनाने के रास्ते में आता. और यही वह सबसे बड़ा कारण भी था कि पहले दिन के कलेक्शन के मामले में इस फिल्म ने अब तक की सारी फिल्मों के रिकार्ड तोड़ डाले. किन्तु इसके बाद इसके कलेक्शन के गिरावट के जिस दौर की शुरुआत हुई, उसने इस बात को बखूबी सिद्ध कर दिया कि फिल्मों का सौन्दर्य न तो बड़े-बड़े सितारों की सजावट में निहित है और न ही भव्य दृश्यों के फिल्मांकन में. इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता है-बांध लेने वाली छोटी-सी कहानी. और इसके बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण किरदार वह होता है, जो पर्दे पर न होकर भी फिल्म के रोम-रोम में मौजूद रहता है, जिसे हम सब फिल्म-निर्देशक के नाम से जानते हैं. इन दो कमजोरियों ने इस फिल्म को बुरी तरह लुढ़कने के लिए मजबूर कर दिया.
लेकिन इससे भी बड़ी बात है-फिल्म का बजट. यह फिल्म लगभग 225 करोड़ रुपये में बनी है. इतनी में ‘बधाई हो’ जैसी लगभग 15-20 फिल्में बनाई जाती हैं. फिल्म समीक्षकों की यह आशंका निराधार नहीं है कि ‘ठग्स आॅफ हिन्दुस्तान’ फिल्म बहुत बड़े नुकसान का सौदा सिद्ध होने जा रही है. फिल्म उद्योग की लागत, आंतरिक प्रतियोगिता तथा अन्य बहुत से दबावों के कारण उस पर आर्थिक संकट की जो काली छाया पिछले काफी समय से मंडरा रही है, उसका कारण दरअसल, दर्शक उतने नहीं जितना कि फिल्मों के निर्माण का अपना अर्थशास्त्र है.
यह फिल्म साफतौर पर यह निष्कर्ष देती हुई मालूम पड़ रही है कि फिल्मों की सफलता का आधार फिल्मों पर किये जाने वाला खर्च कतई नहीं होता. संजय लीला भंसाली की फिल्में अक्सर भव्य सेटों और बड़े बजट वाली होती हैं. हालांकि उनकी फिल्मों को अभी तक आर्थिक नुकसान नहीं उठाना पड़ा. फिर भी लागत की तुलना में लाभ का अनुपात बहुत बेहतर कभी नहीं रहा.
जबकि दूसरी ओर ‘बधाई हो’ तथा सुई धागा’ जैसी साफ-सुथरी एवं मध्यमवर्ग के जीवन संदर्भों को सहज तरीके से पेश करने वाली कम बजट की फिल्म आईं. पिछले दो साल में इस श्रेणी की आई फिल्मों की एक लम्बी लिस्ट दी जा सकती है. उदाहरण के तौर पर ‘लंच बाॅक्स’, ‘बदरीनाथ की दुल्हनिया‘ ‘टायलेट एक प्रेमकथा’, ‘बरेली की बर्फी’, न्यूटन’, ‘पैडमेन’ तथा ‘शादी मे जरूर आना’ जैसी फिल्में हैं. इन फिल्मों ने भले ही सलमान खान की फिल्मों की तरह कलेक्शन के झन्डे नहीं फहराये हों, लेकिन अपनी लागत से दस गुना अधिक का व्यापार करके फिल्म जगत में एक नये आॅक्सीजन को भरने का महत्वपूर्ण काम जरूर किया है.
इस श्रेणी की फिल्मों को सातवें-आठवें दशक में ऋषिकेश मुखर्जी जैसे फिल्मकारों की साफ-सुथरी तथा सरल, सहज कथानक वाली फिल्मों का आधुनिक संस्करण कहा जा सकता है. सच पूछिए तो ऐसा जान पड़ता है मानो कि भावबोध के स्तर पर हम उन्हीं फिल्मों को नए आवरण में देख रहे हैं. फर्क केवल इतना है कि कहानी कहने की रफ्तार में थोड़ी तेजी आ गई है. साथ ही भाषा एवं तकनीकी के मुहावरे थोड़े बदल गये हैं. अन्यथा सब कुछ उसी तरह की बातें मालूम पड़ती हैं.
इन फिल्मों की सबसे बड़ी ताकत है-फिल्मों की की गई छोटी-छोटी डिटेल्स. इसी डिटेलिंग की क्षमता ने, जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया था, सत्यजीत राय को विश्व-स्तर का एक महान फिल्मकार बना दिया था. इन फिल्मों में मध्यवर्गीय मानसिकता के जिन सूक्ष्म भावों को जिस प्रकार लोक के सांस्कृतिक सन्दर्भों में व्यक्त किया गया है, वह अनुभव करते ही बनता है. वहाँ कहने को और देखने को तो कुछ विशेष नहीं होता है, किन्तु अनुभव करने को सब कुछ. अनुभव का यह रूप भी कुछ इस तरह दर्शकों के सामने पेश होता है कि अपनी भाषाई एवं क्षेत्रीयता की सीमाओं के बावजूद वे अनुभव मध्यमवर्गीय भारतीय के अनुभव बन जाते हैं. और सही मायनों में यही फिल्म विधा की सबसे बड़ी ताकत होती है, जो ऐसी फिल्मों में दिखाई देती है.
इस विचार-विमर्श के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जाना गलत नहीं होगा कि आर्थिक परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी बाधाएं खड़ी क्यों न कर दें, फिल्में अपने लिए रास्ता निकाल ही लेंगी. मानवीय अनुभूतियाँ आर्थिक आधारों की मोहताज नहीं होती हैं. उनकी रेंज सरलता से व्यापकता तक होती हैं. जाहिर है कि इतने लम्बे विस्तार में वे अपने अस्तित्व के लिए स्थान निकाल ही लेंगी.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)