नेशनल क्राइम रिकार्ड 2016 के आकड़ों के अनुसार देश में हर घंटे महिलाओं के खिलाफ अपराध के करीब 40 मामले दर्ज किए जाते हैं.
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आज भारत ही नहीं दुनिया भर में महिलाओं की भूमिका की बात करें तो उन्होंने उन दक़ियानूसी धारणाओं को लगातार तोड़ने का काम किया है जिसे पुरुष उनके खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते आ रहे थे. इन धारणाओं के जरिये लगातार स्थापित करने की कोशिश की जाती रही कि महिलाएं पुरुषों के मुक़ाबले कमतर हैं, उनके पढ़ाई और नौकरी करने से घर और बाहर के दायित्वों तथा सुखी जीवन का बैलेंस बिगड़ेगा, खेलकूद उनके बस की बात नहीं है, वे सेना, अन्तरिक्ष और पुलिस सेवा जैसे क्षेत्रों के लिए नहीं बनी हैं, शारीरिक मेहनत वाले काम नहीं कर सकती हैं इत्यादि. इन्हीं धारणाओं के चलते पुरुष न केवल महिलाओं की आवाज़ को दबाता आ रहा था बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक आज़ादी का जाने-अनजाने दुश्मन बना हुआ था.
कोई दो राय नहीं है आज़ादी के इन 7 दशकों में महिलाओं ने पुरुषों द्वारा बनाई गयी इस तरह की सारी दक़ियानूसी धारणाओं को तोड़कर रख दिया है. आज महानगर ही नहीं शहर, कस्बे और गाँव में भी महिलाओं ने उन सभी क्षेत्रों में अपनी सफलता का परचम लहराया है, जिन्हें लोग केवल पुरुषों के क्षेत्र के रूप में जानते थे, लेकिन जिस तरह से भारतीय समाज सामाजिक और आर्थिक रूप से जातीय और वर्गीय विभाजन का शिकार है, महिलाओं की स्थिति भी उससे अलग नहीं है. हम ज़्यादातर सफल महिलाओं की पृष्ठिभूमि देखें साफ है कि वे न केवल सामाजिक रूप से सशक्त वर्ग से आती हैं बल्कि वे आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर रही हैं.
आज भी देश में 1000 पुरुषों के मुक़ाबले 943 महिलाएं हैं. यही नहीं 80% पुरुषों के मुक़ाबले महिलाएं महज 65 प्रतिशत ही शिक्षित हैं. भारत में हर साल करीब 15 लाख लड़कियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले ही कर दी जाती है. इसके साथ देश में पुरुषों के मुक़ाबले महज 1 तिहाई महिलाएं ही कामकाजी हैं और इस लिहाज से दुनिया के 131 देशों की सूची में भारत का स्थान 120वां हैं. केंद्रीय सरकारी नौकरियों में महिलाओं को भागीदारी 10% से भी बहुत कम है. देश के उच्च और उच्चतम न्यायालयों में महिला जजों की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है. इससे साफ अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि महिलाओं को सशक्त करने का जो अभियान पिछले 7 दशकों से चलाया गया है वह न तो अपने मुकाम तक पहुंच पाया है और न ही संवैधानिक उद्देश्य को पूरा कर पाया है.
महिलाओं के लैंगिक समानता के अधिकार के लिए सरकारों ने लगातार प्रयास किया है और संवैधानिक प्रावधानों को मजबूत किया है. लड़कियों की भ्रूण हत्या, खरीद- फरोख्त, अपहरण-हिंसा, वेश्यावृत्ति, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल पर उत्पीड़न जैसी तमाम सामाजिक अपराधों से निपटने के लिए देश में मुकम्मल कानूनी प्रावधान हैं. इसी तरह से महिलाओं को समान वेतन और समान रोजगार के अधिकार के लिए भी व्यवस्था की गई है, लेकिन इसके बावजूद भी महिलाओं की स्थिति बहुत हद तक नहीं बदली है. आज देश की इस आधी आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने मौलिक अधिकारों जैसे – बोलने की आज़ादी, समाज में बराबरी की जगह, आर्थिक आत्मनिर्भरता और जीवनसाथी चुनने की आज़ादी से महरूम हैं. जब तक देश की आखिरी महिला तक को ये अधिकार नहीं मिल जाते हैं तब तक महिला सशक्तिकरण के सारे वादे अधूरे हैं और सारे नारे बेईमानी हैं.
नेशनल क्राइम रिकार्ड 2016 के आकड़ों के अनुसार देश में हर घंटे महिलाओं के खिलाफ अपराध के करीब 40 मामले दर्ज किए जाते हैं. यह आंकड़ा है कि महिलाओं के खिलाफ 2006 से 2016 के बीच एक दशक में अपराध की दर में 83% की बढ़ोत्तरी हुई और मामलों संख्या बढ़कर करीब 25 लाख हो गई है, जिसमें से 1 तिहाई अकेले घरेलू तो 10% बलात्कार के मामले है जबकि करीब 50% मामले अपहरण, यौन शोषण और कार्यस्थल पर उत्पीड़न के हैं. इसे महिलाओं में बढ़ती शिक्षा, जागरूकता और आत्मनिर्भरता से जोड़कर देखा जा सकता है. दूसरी तरफ इन मामलों में लोवर कंविक्सन रेट महिलाओं के लिए कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग की ओर भी संकेत करते हैं. कई बार यह भी देखने को मिलता है कि पुरुष प्रधान समाज में एक पुरुष दूसरे पुरुष से बदला लेने के लिए भी इस तरह के क़ानूनों का इस्तेमाल बदला लेने के लिए करता है.
यह कभी नहीं भूलना चाहिए महिला सशक्तिकरण के नारे को बुलंद करने और देश के संविधान का हिस्सा बनाने में पुरुषों के एक तबके का योगदान कहीं से भी कम नहीं रहा है, इसलिए महिलावाद का मतलब कभी भी पुरुष विरोध और महिलाओं से जुड़े कानूनी प्रावधानों का इस्तेमाल पुरुषों से बदला लेने के लिए नहीं होना चाहिए. यह केवल सत्य की एक लड़ाई के तौर पर काम आए तभी महिला सशक्तिकरण सार्थक होगा और समाज में बदलाव की नई कहानी लिखेगा.
इसलिए यह भी बहुत ज़रूरी है कि महिलाओं को इस ओर भी जागरूक किया जाय कि वे अपने क़ानूनों को पुरुष प्रतिष्ठा की लड़ाई का जरिया न बनने दें. इसलिए देश की आम महिलाओं को शिक्षित और आर्थिक रूप आत्मनिर्भर बनाने के उपायों के साथ अपना निर्णय खुद ले पाने में सक्षम बनाने की भी ज़रूरत है. यही वे साधन हैं जिससे देश की महिलाओं की नई तकदीर लिखी जा सकती है, जिसकी शुरुआत देश के निति नियामक संस्थानों जैसे संसद, न्यायालय, आयोगों में भागीदारी से ही हो सकती है ताकि उनकी आवाज़ अनसुनी न रह जाए.
(लेखक स्वतंत्र टिप्णीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)