ऐसे लोग भी हैं जो कह रहे हैं कि हो सकता है कि आरोप सच हों लेकिन अब बोलने का क्या मतलब है?
Trending Photos
कई दिन से सोच रहा था लिखने के लिए #मीटू पर, आसान नहीं है लिखना इस पर. कई लोगों ने पूछा भी कि इस पर मेरी क्या राय है, मैं कुछ बोला नहीं. हालांकि अंदर ही अंदर दिमाग में यह विषय चलता रहा और इस पर आ रही खबरों को बड़ी बारीकी से पढ़ता, सुनता और देखता रहा. इस विषय पर सोशल मीडिया पर आ रहे चुटकलों पर भी मेरी पैनी नज़र थी. इस विषय पर लोगों के संवाद और बातचीत का भी कई समूहों में हिस्सा रहा. मेरी दिलचस्पी #मीटू से जुड़ी खबरों से ज्यादा इस बात पर थी इन खबरों को समाज कैसे ले रहा और एक औसत आदमी इसके बारे में क्या सोच रहा है.
जहां तक बात समाज की है तो उसका बड़ा हिस्सा अभी भी यकीन नहीं कर पा रहा है कि नायक ही खलनायक हैं और वह किसी नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाज़ी में नहीं है. एक असमंजस की स्थिति है उनके बीच, हालांकि दबे स्वर से ही सही वह मान रहे हैं कि महिलाओं को कार्यस्थल पर इस तरह के उत्पीड़न से दो-चार होना पड़ता है और निजी संस्थाओं या पेशेवर नेचर के जॉब में समझौता नहीं कर पाने की स्थिति में कई बार उन्हें नौकरी या प्रोजेक्ट से भी हाथ धोना पड़ता है. इसके साथ ही कुछ संख्या उन लोगों की भी है कि जो सीधा मानते हैं कि यह सब बकवास है और सबकुछ रजामंदी से होता है. अगर चल रहे चुटकलों की भाषा में कहें तो ऐसे लोगों के विचार “जब तक काम था स्वीटू, काम निकल गया तो मीटू” की कटेगरी का है. यह मर्दाना वर्चस्व वाले परंपरावादी सोच के समाज के विचार कहे जा सकते हैं.
ऐसे लोग भी हैं जो कह रहे हैं कि हो सकता है कि आरोप सच हों लेकिन अब बोलने का क्या मतलब है? इस तरह से इस माहौल का फायदा उठाकर कोई किसी के ऊपर किसी भी तरह का आरोप लगा सकता है. कुछ लोग अपनी दुश्मनी निकाल सकते हैं तो कुछ लोग किसी की ज़िंदगी या कैरियर को तबाह करने की नियत से ऐसा कर सकते हैं. ऐसे लोगों की तो बिलकुल भी कमी नहीं है जो इसे राजनीतिक रंग देने पर तुल गए हैं, खासकार एक पूर्व पत्रकार और देश के मौजूदा मंत्री का नाम इस मसले में आने पर. ये लोग मान बैठे हैं और इसी पर जड़ हो गए हैं कि 2019 चुनाव से पहले यह मुद्दा लाया ही गया है सरकार को बदनाम करने के लिए.
अगर एकतरफा यह मानना गलत है कि महिलाओं के आरोप बकवास हैं तो एकतरफा यह मानना भी गलत होना चाहिए कि कोई भी महिला चाहे वह किसी पर भी किसी भी तरह का आरोप लगा रही हो, वह सच ही होगा. एक तादाद ऐसे लोगों की भी है कि वे महिलाओं के आरोपों को चार्जशीट मानकर तुरंत फैसला लिख देना चाहते हैं. अगर इस तरह से केवल आरोपों पर फैसले होने लगे तो आगे चलकर सामाजिक और नागरिक जीवन में न केवल सच और झूठ के बीच की दीवार गिर जाएगी बल्कि न्याय और अन्याय के बीच की लकीर भी धुंधली पड़ जाएगी.
इसके साथ ही ढ़ेर सारे चुटकले सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों पर शेयर किए जा रहे हैं. ये चुटकले कई बार गंभीर बहस को बहुत आसान लहजे में लोगों तक पहुंचाने के जरिये के रूप में आते हैं तो कई बार बहस को खारिज करने के शातिर हथियार के रूप में. हाल के कुछ वर्षों में राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं पर चुटकलों की बाढ़ सी आई हुई है, जिनमें से बहुत से संवेदनहीनता के स्तर से परे जाकर मुद्दों और घटनाओं को केवल मज़ाक के बतौर पेश करके मुद्दे की गंभीरता से खिलवाड़ करने का काम करते हैं. ऐसा ही बहुत कुछ चुटकलावार #मीटू के साथ भी चल रहा है.
इन सबसे अलग #मीटू के आरोपों और उसके बहस का सबसे मुश्किल पहलू यह है कि इससे हासिल क्या होगा? इसमें सबसे बड़ा बात जो देखने में आ रही है, वह यह है कि महिलाओं के साथ उसकी इच्छा के खिलाफ़ कोई भी हरकत करने से पहले कोई भी पुरुष कई बार सोचेगा, ऐसा ही कुछ पुरुषों के मामले में महिलाओं के साथ भी लागू होगा क्योंकि सामाजिक निंदा अपराध को रोकने के लिए हमेशा से कानून से ज्यादा ताकतवार रहा है, लेकिन इसका सबसे बड़ा खतरा यह है कि यह न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों के खिलाफ़ है क्योंकि हर अपराध को रिपोर्ट करने की एक समयसीमा होती है.
न्याय का नैसर्गिक सिद्धांत यह मानता है कि अगर अपराध घटित होने के एक निश्चित अवधि के दौरान उस अपराध पर कोई रिपोर्ट नहीं किया गया है तो यह संभव है कि घटना को सोची-समझी साजिश के तहत हेर-फेर करके किसी फ़ायदे के लिए इस्तेमाल की जा रही हो. कोई किसी घटना पर 20 से 25 साल बाद तक रुका हुआ है तो अब घटना को सोशल मीडिया के जरिये रिपोर्ट करने का मकसद साफ होना चाहिए. अगर न्याय चाहिए तो कानूनी प्रक्रिया के जरिये न्यायालय में जाना पड़ेगा और इसके लिए सोशल मीडिया को एक मंच बनाया जा रहा है कि ताकि उसके जैसी और पीड़ित भी साथ आयें ताकि आरोपों को और सच्चाई मिले तथा घटनाओं के और गवाह सामने आने की हिम्मत करें तो इसे #मीटू अभियान का एक बड़ा उद्देश्य मान सकते हैं, लेकिन आरोप केवल आरोप लगाने के लिए हैं और उसका कोई खास और बड़ा मकसद नहीं है तो #मीटू अभियान समाज में किसी खास बदलाव का जरिया नहीं बन पाएगा बल्कि उल्टे इसे आगे चलकर उन महिलाओं या पुरुषों द्वारा हाईजैक कर लिया जाएगा, जो इससे केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि चाहेगें. जब भी कोई प्रक्रिया या कानून बेलगाम होती है तो उसके दुष्परिणाम आने में देर नहीं लगती है.
#मीटू अभियान अपने आप में सार्वजनिक निंदा जैसे परंपरागत सामाजिक नियंत्रण के उपाय का ई-वर्जन है. गांव और समाज में पुरुष और महिलाएं कई सौ सालों से इसी के जरिये अपने व्यवहार और आचार-विचार पर नियंत्रण करते आयें हैं. इसके ई-वर्जन ने इसका दायरा बहुत अधिक बढ़ा दिया है. #मीटू अभियान तो वैश्विक ही है. इस अभियान का इस्तेमाल अगर सही दायरे में और ईमानदारी से होता है तो निश्चित रूप से सामाजिक चेतना के कारगर यंत्र के रूप में विकसित होगा लेकिन इसका सबसे बड़ा स्याह पक्ष यह है कि केवल कथित आरोपों के आधार पर लोगों से उनके पदों से इस्तीफा देने पर विवश किया जा रहा है या फिर उनके कार्य से उन्हीं छुट्टी पर भेज दिया जा रहा है, साथ ही कई लोगों का बहिष्कार कर दिया जा रहा है. इस तरह से किसी के बारे में कुछ भी कहकर उसकी प्रतिष्ठा और पद को कोई भी नुकसान पहुंचाने की साजिश कर सकता है या करवा सकता है.
इसलिए #मीटू अभियान अपनी जगह होना चाहिए और उनकी कानूनी प्रक्रिया अलग होनी चाहिए. अगर मामला कानूनी प्रक्रिया में जाता है और ऐसा लगता है कि जिसके ऊपर आरोप हैं वह ऐसे पद पर और ऐसी स्थिति में हैं कि पीड़ित या न्याय की प्रक्रिया या जांच को प्रभावित कर सकता है तो निश्चित रूप से उसे पद से हटाने की कार्रवाई होनी चाहिए लेकिन केवल कथित आरोपों के आधार पर किसी की पद और प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ न्याय नहीं होगा.
(लेखक स्वतंत्र टिप्णीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)