यहां रचने की छटपटाहट और आनंद है, तो द्वंद्व और सवाल भी हैं. इन्हीं सबको मथते हुए विचार की कुछ चिंगारियाँ फूटती हैं. कुछ निष्कर्ष हाथ आते हैं. पहेली-सा जीवन कुछ सार समेटे नई भाषा और भंगिमा में संबोधित होने लगता है.
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कला अगर जीवन का घुंघरू है, तो उसकी ध्वनियों के आरोह-अवरोह में निश्चय ही अनुभूतियों की आहटों को सुना जा सकता है. ये आवाज़ें स्वप्न और यथार्थ की जुगलबंदी हैं. अपने समय में लयबद्ध होती और एक आज उड़ान भरती भीतर और बाहर के फासले को मिटाती हुई. दरअसल, यह अन्तर्लय की पुकार है, जो कला में सांस भरते किसी भी सर्जक की रूह में उसके अभीष्ट को पा लेने की बेचैनी ही है. सोचने, रचने और किसी सिरे पर अपनी सर्जना को विराम दे देने के बीच विचार और अनुभूतियों की टकराहट एक ऐसी रहस्यमयी दुनिया के द्वार खोलती है, जहां लौकिक और अलौकिक के बीच के भेद को जानने-समझने की आकुलता ओर-छोर फैली है. यहां रचने की छटपटाहट और आनंद है, तो द्वंद्व और सवाल भी हैं. इन्हीं सबको मथते हुए विचार की कुछ चिंगारियाँ फूटती हैं. कुछ निष्कर्ष हाथ आते हैं. पहेली-सा जीवन कुछ सार समेटे नई भाषा और भंगिमा में संबोधित होने लगता है.
प्रियेश की सृजनात्मक विकलता के यही आयाम हैं. ‘कुछ पाकर खोना है, कुछ खोकर पाना है’, जैसे इसी शपथ के आसपास उन्होंने कला के संसार में आंखें खोलीं और अनंत की तरफ़ दौड़ लगा दी. इस रास्ते में बहुत सारा बटोरा और खूब सारा उनसे छूटा भी, लेकिन इस जोड़-घटाने में जो हासिल रहा, वो प्रियेश का निजी संतोष है, उसका अपना प्रिय प्राप्य है.
प्रियेश... पूरा नाम प्रियेश दत्त मालवीय. कला के नए माध्यमों का विलक्षण खोजी. जोश-ए-जुनून की मिसाल, जिसकी प्रयोगधर्मिता ने हमेशा नई कौंध जगाई. गुजिश्ता चार दशकों पर ग़ौर करें, तो वे हैरत जगा देने वाले ऐसे शिल्पी-चित्रकार साबित हुए हैं, जिसने हल्लाबोल की तर्ज पर भले ही धमाल न किया हो, लेकिन दर्शकों और कलाविदों को ज़रूर उकसाया. ख़ामोश तबीयत उनके बहिरंग पर तारी है लेकिन उनके अंतरंग में हलचल मचाती एक दुनिया है, जहां जिज्ञासा, संशय, सवाल और उनसे आत्मालाप करता एक सर्जक बहुत साफ दिखाई पड़ता है.
इस आत्म संवाद से गुजरते हुए प्रियेश ने, जो कहा वो क़ाबिल-ए-गौर है- ‘‘मैं मरने के पहले पैदा होना चाहता हूँ.’ फिर-फिर उदित होने, आँखें खोलने, अक्षितिज फैले जीवन और जगत को निगाह भर देखने, स्वप्न और यथार्थ से क्रीड़ा करने और अनुभव की आंच में पके अपने निष्कर्षों को बटोर लेने की फितरत ही प्रियेश के ‘फिर पैदा’ होने की हसरत का सबब हैं. यह जन्म देह का अवतार नहीं, उस परम चेतना को छू लेने की छटपटाहट से भरी इच्छा है, जो रंग या आकारों में कई दफा जज़्ब होकर भी प्रियेश के सर्जक से फिसलती रही या प्रियेश को लगातार उसी में रमे रहने को उकसाती रही.
बहरहाल चालीस बरसों के आसपास फैल गया प्रियेश का कलात्मक पुरूषार्थ अब उस मुकाम पर है, जहां से अध्यात्म का रास्ता खुलता है. इस डगर पर कदम रखते हुए वे सनातन सूत्र देते हैं-‘‘मैं उस शिवत्व की तलाश में हूँ, जो जीवन के विविध रूपों में अदृश्य होकर भी सत्य
और सुंदर है.’ प्रियेश के काम पर मेरी पहली निगाह उनके और मेरे गृह नगर खंडवा में पड़ी थी. चारकोल के पाउडर से उन्होंने कुछ आकृतियाँ गढ़ी थीं. वेलवेट के रेशों से बुना उनका काम भी याद है. फिर पेड़-पौधों की जड़ों और आड़ी-टेढ़ी लकड़ियों में उन्होंने जीवन को अलग-तरह से देखा. हरा प्लास्टर और खराद मिलाकर मूर्तियों की सुंदर श्रृंखला तैयार की.
यूँ एक मनमौजी में सिरजने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहा. इसी रौ में एक दिन प्रियेश लगभग चौंका देने वाले अंदाज़ में पेश आए जब उन्होंने अपने केनवास पर धुँए को उतार लिया. अपनी आकृतियों में धुंध की कमनीय और चंचल काया को मनचाहा सहेज कर वे ऐसा प्रयोग करने वाले दुनिया के पहले और अकेले चित्रकार बन गए. एक क़दम फिर नया उठता है- ‘बर्न इम्प्रेषन्स’ का. ये आकार कपड़े की सलवटों को सँवारने वाली गर्म प्रेस का नतीजा बनें.
दिलचस्प यह कि प्रियेश का कोई भी प्रयोग बेमानी नहीं, कला के मानकों पर सटीक बैठता हुआ सृजन. समय से, मन और आत्मा से संवाद करता हुआ, संवेदनाओं तक उतरता सृजन. यह यात्रा बाहर से भीतर की है. परिधि से केन्द्र की ओर लौटती हुई. इस अंतराल में जो जागा-कौंधा प्रियेश ने उसे मन की ज़मीन पर उतार लिया. प्रियेश इन्हें सूक्ति कहते हैं. दरहक़ीकत ये सात्विक भाव की उपज हैं. ये इबारतें एक कलाकार के भीतर स्पंदित सच की ताईद करती हैं.
(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)