प्रतीकों में पूज्य और धरातल पर धकियाया जाता पशु जगत
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प्रतीकों में पूज्य और धरातल पर धकियाया जाता पशु जगत

वानर, गाय, सांप, हाथी और अन्य जानवरों की पूजा करने वाली सांस्कृतिक परम्परा और शहरी समाज के बेरूखे आचरण का विरोधाभास कब खत्म होगा.

प्रतीकों में पूज्य और धरातल पर धकियाया जाता पशु जगत

चुनावी माहौल में नेताओं द्वारा राम मन्दिर और हनुमान जी की चर्चा के दौर में अज्ञेय की ये पंक्तियाँ फिर प्रासंगिक हो गईं हैं.

जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यतः पीछे रह जाएँगे.
सेनाएं हो जाएंगी पार
मारे जाएंगे रावण, जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे इतिहास में, बंदर कहलाएँगे.

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दलित तो अनुसूचित जनजाति के अध्यक्ष नंद किशोर साय ने हनुमान जी को आदिवासी करार दे दिया. राहुल गांधी के गोत्र पर विवाद खत्म नहीं हुआ. परन्तु साय ने त्रेता युग के हनुमान के गोत्र को बताते हुए उनका रिश्ता दण्डकारणय क्षेत्र के जनजातीय वर्ग से जोड़ दिया.

भारतीय संस्कृति में मनुष्यों का प्रकृति, पशु और पक्षियों से सजीव नाता रहा है. नदियों को माँ, पहाड़ों को पिता और जानवरों को सखा मानने की अद्भुत परम्परा वाले देश में अब सरकारी नियमों ने जल-जंगल और जमीन के संतुलन को ध्वस्त कर दिया है-

दिल्ली जैसे महानगरों में बंदर अब जंगली हैं
चित्रकूट जैसे धार्मिक स्थलों में बंदर और मनुष्य का स्नेहपूर्ण नाता आज भी दिखता है, परन्तु दिल्ली जैसे महानगरों में उत्पाती बंदरों के सामने सभी सरकारी एजेंसियों ने घुटने टेक दिए. समस्या को हल करने में विफल नगर निगम ने बंदरों को जंगली करार देते हुए, उनकी जवाबदेही वन विभाग के ऊपर डाल दी है. सरकारी एजेंसियों ने नोटिस जारी करके बंदरों को खाना खिलाना अब गैर कानूनी घोषित कर दिया है. मेनका गांधी के पशु प्रेम की वजह से मदारियों के पास भी बंदरों को आश्रय नहीं मिलता तो फिर इंसानों के पूर्वज अब कहां जाएं?

गायों का बढ़ता दर्द
मध्यप्रदेश के चुनावों में गोबर और गोमूत्र की चर्चा भले ही हो रही हो, परंतु बुंदेलखण्ड में गायों के हालात बद्तर है. बंजर और वीरान गांवों में इंसानों की गुजर बसर नहीं हो पा रही तो फिर जानवरों की सुध कौन ले? मुंबई और चंडीगढ़ जैसे शहरों में नगर निगम के नियमों के अनुसार आवासीय बंगलों और सामान्य औद्योगिक प्लॉटों में भी गायों को नहीं रखा जा सकता. आवारा होती गायें अब खेती और शहरी जीवन के लिए नये संकट का सबब बन गयी हैं. देश भर में गोरक्षा के आंदोलनों के दौर में गायों के संरक्षण के लिए धरातल पर शायद ही कुछ हो रहा हो. देश भर में राजमार्गों का जाल बिछाया जा रहा है. उसी तर्ज पर दिल्ली से मथुरा तक यमुना किनारे गायों को बसाया जाए तो ग्रीन बेल्ट के संरक्षण के साथ शहरी बच्चों को पौष्टिक दूध भी दिया जा सकता है. सवाल यह है कि शहरों में कुत्तों को संरक्षण की तर्ज पर नगरीय मास्टर प्लान में गायों के लिए और ज्यादा स्थान क्यों नहीं होना चाहिए?

कुत्तों पर खेमेबंदी से आतंकित शहरी समाज
भारत में बंदर और कुत्ते दोनों की इंसान से दोस्ती की परंपरा रही है. युधिष्ठिर को आखिरी समय में कुत्ते का साथ मिला तो भैरव देवता का वाहन ही कुत्ता था. बंदर तो जंगली हो गए लेकिन कुत्ते अभी भी शहरी माने जाते हैं. पालतू कुत्तों के जरूरी रजिस्ट्रेशन के नियम के बावजूद सन् 2017 में दिल्ली के तीन नगर निगमों में सिर्फ 913 कुत्तों का रजिस्ट्रेशन कराया गया. देशभर में लगभग 3 करोड़ कुत्ते होने का अनुमान है, जिनमें अधिकांश आवारा हैं. कश्मीर से लेकर केरल तक पूरे देश में लाखों लोग कुत्तों के काटने का शिकार हो चुके हैं. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे के अनुसार मुंबई में आतंकवाद से ज्यादा मौतें, कुत्तों  के काटने की वजह से हुईं हैं. कुत्तों के काटने से रैबीज़ बीमारी की वजह से सालाना 20 हजार से ज्यादा लोग भारत में मौत का शिकार होते हैं, जो विश्व में सर्वाधिक हैं. दिल्ली नगर निगम में पूर्व वैटिनरी सलाहकार के अनुसार रैबीज़ के इंजेक्शन बेचने से दवा कम्पनियों को बड़ा मुनाफा होता है और जिसके लिए आवारा कुत्तों की बढ़त को प्रोत्साहित किया जाता है. सरकारी खर्चे पर कुत्तों की नसबंदी और टीकाकरण भी एक बड़े मुनाफे का धंधा बन गया है. दिल्ली में इंसानों के घायल होने पर पुलिस शिकायत भले ही दर्ज न हो परंतु कुत्तों के मामले में त्वरित कार्यवाही का चलन बढ़ गया है.

वानर, गाय, सांप, हाथी और अन्य जानवरों की पूजा करने वाली सांस्कृतिक परम्परा और शहरी समाज के बेरूखे आचरण का विरोधाभास कब खत्म होगा. मॉल, मेगासिटी और स्मार्टसिटी के बढ़ते दौर में वंचित वर्ग की स्थिति जानवरों से भी बद्तर हो रही है. 25 फीसदी आबादी वाले दलित और जनजाति वर्ग का सुप्रीम कोर्ट में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. देश में करोड़ों लोगों के पूज्य हनुमान को चुनावी लाभ के लिए दलित या आदिवासी करार देने से जातिविहीन समाज का सपना कैसे साकार होगा? सियासी और एनजीओ के बेजा लाभों की बजाय जानवरों को इन्सानी समाज का हिस्सा बनाने की ठोस मुहिम से ही उनका सम्यक संरक्षण किया जा सकता है. चुनावी दौर के बाद पशुओं को धर्म के साथ समाज और अर्थव्यवस्था से जोड़ना हम सबकी संवैधानिक जवाबदेही भी है.

(लेखक विराग गुप्‍ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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