जखनी के 'आरुणि' जो प्रकृति से निभा रहे हैं गुरूभक्ति
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जखनी के 'आरुणि' जो प्रकृति से निभा रहे हैं गुरूभक्ति

ये वही बांदा है जो इस साल उत्तर प्रदेश का सबसे गर्म जिला था. इसी बांदा के जखनी में जून में भी तालाब लबालब पानी से भरे हुए हैं, कुएं में इतना पानी है कि लंबा आदमी हाथ बढ़ा कर बाल्टी से निकाल ले. जिले का सबसे ज्यादा बासमती उत्पादन करने वाला गांव है जखनी और यहां की सब्जी पूरे जिले भर में मशहूर है.

जखनी के 'आरुणि' जो प्रकृति से निभा रहे हैं गुरूभक्ति

बचपन में हिंदी की किताब में एक कहानी पढ़ी थी- आरुणि की गुरुभक्ति. कहानी में अचानक बाऱिश होते देख गुरूजी अपने शिष्य आरुणि से कहते हैं कि बारिश बहुत तेज़ है, इससे खेत की मिट्टी कट जाएगी और मेड़ बह जाएगी जिससे सारा पानी खेत से निकल कर बह जाएगा. गुरू अपने शिष्य आरुणि से कहते हैं कि वो खेत पर जाकर मेड़ को बांधे और पानी को बहने से रोके. आरुणि खेत में जाकर देखता है कि खेत में एक तरफ से बहुत तेजी से पानी बह रहा है. वो बहुत कोशिश करता है लेकिन तेज बहाव की वजह से मिट्टी रुकती नहीं है, अपने गुरू के आदेश को सर्वोपरि मानते हुए वो खुद मेड़ बनकर लेट जाता है और पानी को खेत से बाहर नहीं जाने देता है.

बचपन में ये कहानी पढ़ने के बाद हमसे सवाल किया जाता था कि इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है. हम एक सुर में जवाब देते थे - गुरूर्ब्रह्मा, गुरूर्विष्णु, गुरूर्देवो महेश्वर:

लेकिन ये पता नहीं था कि इस कहानी में एक शिक्षा और छिपी हुई है जिसे इतने सालों बाद एक गांव में जाकर सीखा. वो शिक्षा थी खेत का पानी खेत में, गांव का पानी गांव में.

बांदा जिले में मुख्यालय से महज 14 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव बसा है- जखनी. महुआ ब्लॉक के इस गांव की आबादी 3200 के करीब है. यहीं पर कृषि भूमि करीब 2172 बीघा है. गांव में 33 कुएं हैं, 25 हैंडपंप हैं और करीब छह तालाब है और जून की तपती दोपहर में भी लगातार तालाब बनाए जा रहे हैं. ये बांदा जिला उसी बुंदेखखंड में आता है जहां पानी के नाम पर हर साल त्राहिमाम की खबरें सुनाई देती हैं.

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ये वही बांदा है जो इस साल उत्तर प्रदेश का सबसे गर्म जिला था. इसी बांदा के जखनी में जून में भी तालाब लबालब पानी से भरे हुए हैं, कुएं में इतना पानी है कि लंबा आदमी हाथ बढ़ा कर बाल्टी से निकाल ले. जिले का सबसे ज्यादा बासमती उत्पादन करने वाला गांव है जखनी और यहां की सब्जी पूरे जिले भर में मशहूर है. यही नहीं गांव में मछली पालन भी हो रहा है और तालाबों में कमल भी खिल रहे हैं और ये सब उस भयानक गर्मी में हो रहा है जब पानी के नाम पर देश के कई जिले जीरो डे के हाल पर पहुंच गए हैं.

सुनने में ये बात उस भ्रम की तरह लगती है जैसा रेगिस्तान में देर तक प्यासे भटकते हुए इंसान को पानी की मृगमरिचिका नज़र आती है. लेकिन न तो ये भ्रम है और न ही यहां की हरियाली कहीं गायब हो रही है.

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आखिर ये हुआ कैसे
आज से करीब दस साल पहले गांव के कुछ जागरूक लोगों ने सर्वोदय आदर्श जल ग्राम स्वराज अभियान समीति का गठन किया. इसके संयोजक गांव के ही एक समाजसेवी उमाशंकर पांडेय और प्रबंधक अशोक अवस्थी थे. समिति ने लोगों को पानी बचाने को लेकर जागरूक करने की शुरूआत की, साथ ही गांव के घरों की नालियों से बहकर बर्बाद होते पानी को नालियां बनाकर उसका रुख खेतों की तरफ कर दिया गया. ये पानी जब खेतों में पहुंचा तो सिंचाई के लिए उपयोग किया जाने लगा.  

समाजसेवी उमाशंकर पांडेय बताते हैं कि हमने कुछ नया काम नहीं किया बल्कि पुराने कामों को फिर से जीवित किया. उनका कहना है कि बुंदेलखंड में जब हरबोला किसानों ने काम किया तो उन्होंने खेत पर मेड़ बनाई, हम ये बात जानते थे कि अगर खेत में पानी रुकेगा तो वो मेड़ बनाकर रुकेगा. जिस खेत पर मेड़ होगी, मेड़ पर पेड़ होगा, पानी वहीं रुकेगा, पानी रुकेगा तो उसमें बासमती आसानी से ऊगेगी, लोगों को आय भी होगी और भूजल स्तर भी बढ़ेगा.

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आज जखनी गांव में गरीब से गरीब किसान 50 हज़ार की धान पैदा करता है. जिसके पास कभी साहूकार का कर्ज चुकाने के पैसे नहीं होते थे आज बैंक में उसके पास खुद का एक लाख रुपया पड़ा हुआ है, यहां तीन बीघे खेत वाले किसान के पास भी ट्रैक्‍टर है, हार्वेस्टर मशीन पूरे बांदा जिले में यहीं के किसान मामून खां के पास ही है. जून की गर्मी में भी गांव के दस ट्रैक्‍टर सिर्फ खेतों की मेड़बंदी करने में लगे हुए हैं. पिछले साल जखनी बासमती उत्पादन में अव्वल रहा है.

समाजसेवी पांडेय का कहना है–‘बांदा जिले में धान की खेती पहले से की जाती रही है, यहां की अतर्रा मंडी अंग्रेजों के जमाने में एशिया की सबसे बड़ी मंडी हुआ करती थी, जब देश में भोजन संकट था तब भी अतर्रा से रोज़ाना एक मालगाड़ी धान जाता था. हमने बस उसमें बासमती का परिचय करवाया, बासमती उगाने के लिए खेत में आठ महीने पानी रखना होता है, तो जब खेत में पानी भरा रहेगा तो स्वाभाविक तौर पर भूजल स्तर ऊपर आ जाएगा, फिर उस खेत में इतनी नमी रहती है कि चना बो दो तो वो ऐसे ही अच्छी फसल दे देता है, मेड़ पर मूंग, अरहर अच्छी होती है, पेड़ लगाकर जानवरों के चारे का इंतजाम हो जाता है, हमने कोई बड़ा काम नहीं किया है बस अपने पुराने तरीकों को फिर से जीवित किया है.'

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खास बात ये है कि जखनी गांव खुद के दम पर बना गांव है, आज गांव में जो कुछ भी नज़र आ रहा है वो सब गांव वाली की मेहनत है, न यहां कोई सरकारी मदद दी गई, न इन्होंने ली, न ही गांव वाले कोई मदद की दरकार रखते हैं. उमाशंकर कहते हैं कि फावड़ा, खुरपी, सब्बल हमारा अपना है, हाथ हमारे अपने हैं तो हम किसी से कुछ मांगे क्यों.

उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए गांव के ही गजेन्द्र त्रिपाठी एक किस्सा सुनाते हुए बताते हैं, 'हमारे गांव में एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति थे कलुआ. वो जब रास्ते में कहीं गड्ढा देखते थे तो प्रधान के पास जाकर ये नहीं बोलते थे कि गड्ढा है, वो खुद ही फावड़ा से मिट्टी खोद कर चार तसले मिट्टी उसमें डाल दिया करते थे, इसी तरह उन्हें जहां भी ज़मीन मिलती थी तो वो वहां पर पेड़ लगा दिया करते थे, हम छोटे से उन्हें ऐसा करते देखते थे, एक बार हमने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि छोटे मोटे काम तो हम खुद ही कर सकते हैं, हर काम के लिए किसी का मुंह क्यों ताका जाए और वो ये भी बोला करते थे कि जिस दिन मैं नहीं रहा तो मेरा नाम ये पेड़ बताएंगे, अब वो जिंदा नहीं है लेकिन वो पेड़ बहुत बड़े और अच्छी हालत में है. हम बस अपने हिस्से का काम कर रहे हैं और इतना ही सब कर लें तो परिणाम सामने आ जाते हैं.'

‘सौ के चाहे पचासे ही कीन्हे, पर ऊंची राखे आरी, तऊं देव ना देऊ तो घाघ को देओ गारी’

इस कहावत का मतलब है सौ की जगह भले ही पचास बीघे पर खेती करो लेकिन आरी यानी मेड़ ऊंची रखो, उसके बाद भी अगर देवता कुछ न दे तो घाघ को गाली दे सकते हैं. ये घाघ वही लोग हैं जिन्हे पानी का देवता भी कहा जाता है, जो बरसों से गांव में पानी की उपलब्धता कहां होगी उसकी सटीक जानकारी दिया करते थे. ये घाघ आज से एक सदी पहले ये बात कह कर चले गए थे कि खेत पर मेड़ बन जाने से पानी का प्रबंधन किया जा सकता है. बस जखनी के गांव वालों ने अपनी परंपराओं को फिर से जीवित करके अपनी ज़मीन को पानी से सराबोर कर दिया है.

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मेड़ बन जाने से ज़मीन ज़ाया होने और उत्पादकता पर असर पड़ने के सवाल पर गजेन्द्र बताते हैं कि मेड़ पर अरहर, मूंग की पैदावार काफी अच्छी होती है. साथ ही इस पर गांव के जानवरों के लिए चारा भी मिल जाता है. आमतौर पर एक मेड़ तीन फिट चौड़ी और दो फिट ऊंची होती है जिसे दोनों तरफ के किसान आधा आधा इस्तेमाल करके उत्पादकता ला सकते हैं.

सरकार सेक्टर पर मिट्टी डाल दे
गांव के किसान बताते हैं, ‘सरकार ने चकबंदी तो की लेकिन सेक्टर को खाली छोड़ दिया, हमारा सरकार से कहना है कि वो अपने सेक्टरों पर मिट्टी डाल दे तो 10 काश्तकारों की मेड़ बंदी हो जाएगी और उनका भला होगा साथ में पानी बचेगा और पेड़ भी लग जाएंगे. दरअसल 100 बीघे का एक सेक्टर बनाया जाता है, और उसमें खंडवार लोगों के चक बांट दिये जाते हैं. अब अगर सरकार पूरा सेक्टर बांध दे तो सब के खेत बंध जाएंगे. इससे खेत का पानी खेत में रहेगा. इस काम को करवाने से मनरेगा से लोगों को रोज़गार मिलेगा, जो मेड़ बनेगी उस पर पेड़ लगा देने से हरियाली भी होगी और मिट्टी भी रूकी रहेगी. साथ ही इससे 80 फीसद ज़मीन से जुडे गांव के झगड़े भी खत्म हो जाएंगे.'

बुंदेलखंड में पानी की कमी एक प्रोपेगेंडा
उमाशंकर बोलते हैं कि उन्हें लगता है बुंदेलखंड में पानी का संकट एक प्रोपेगेंडा है, बुंदेलखंड में केन बड़ी नदी है, धसान है, बेतवा है, बागेय, यमुना, संबल जैसी करीब 35 नदियां हैं, उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड के हिस्से में करीब 50 हज़ार कुएं और 15 ह़जार तालाब हैं, अगर इसमें मध्य प्रदेश के हिस्से को भी जोड़ लिया जाए तो ये 80 हज़ार से ऊपर पहुंच जाएगा.

उमाशंकर, बाबू केदारनाथ अग्रवाल की कविता सुनाते हैं –

‘केन किनारे पानी बैठा पानी चाट रहा,
धीरे धीरे पानी चाट रहा, पत्थर पानी चाट रहा.’

मतलब इतना पानी है फिर भी हम पानी पानी चिल्ला रहे हैं. वो कहते हैं कि बुंदेलखंड में जितने लोग पानी पानी चिल्लाते हैं, हमने उनके लिए एक मोमबत्ती जलाई है, अब जितने लोग चाहे उससे अपनी मोमबत्ती जला लें.
उमशंकर कहते हैं – ‘मेरी मां हमेशा मुझसे कहती थी भारत में आदमी एकदशी का व्रत रखता है, औऱते तीज करती है, दोनों में ही निर्जला रहना होता है. हम एक दिन पानी नहीं पीकर पानी बचाते हैं. जब तीर्थ घूमने जाते हैं तो वहां से लोटे में पानी भरकर लाते हैं. मुस्लिम एक महीने का रोजा रखते हैं उसमें भी वो दिन भर पानी ही नहीं पीते हैं. इस तरह हमारे पूर्वजों ने हमें शुरू से पानी को बचाने और संभाल कर खर्च करने की प्रेरणा दी है. पानी ही प्रत्य़क्ष देवता है.‘

राम चरित मानस में कहा गया है, ‘सबसे सेवक धर्म कठोरा'

जखनी गांव के आरुणि ने प्रकृति की सेवा के धर्म को पूरी कठोरता के साथ निभाया है. आज ये गांव पूरे देश के लिए एक मिसाल बनकर उभरा है जो ये साबित करता है की कमी पानी की नहीं हमारी सोच और इच्छा शक्ति की है.

(लेखक पंकज रामेंदु स्वतंत्र टिप्पणीकार और WaterAid India 'WASH Matters 2018' के फैलो हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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