आजादी की लड़ाई में संघ संस्थापक ने निभाई थी महत्वपूर्ण भूमिका
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आजादी की लड़ाई में संघ संस्थापक ने निभाई थी महत्वपूर्ण भूमिका

संघ के संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार युगांतर और अनुशीलन समिति के सदस्य थे. श्री अरविंद, त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती और रासबिहारी बोस के साथ काम करने के लिए उन्होंने कोलकाता के राष्ट्रीय मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया.

आजादी की लड़ाई में संघ संस्थापक ने निभाई थी महत्वपूर्ण भूमिका

संघ की स्थापना के 95 वर्ष बाद भी संघ और इसके संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार के विषय में सार्वजनिक मंचों पर जानकारी बहुत कम या पूर्वाग्रह से ग्रसित ही दिखती है. वैसे भी कांग्रेस और वामपंथियों ने देश के इतिहास के महापुरुषों का मूल्यांकन व चित्रण अपनी सुविधानुसार ही किया है. अब खुले में अपनी गतिविधियां करने वाले संघ को गुप्त संगठन कहकर प्रचारित किया गया और तीन बार अलग-अलग मौकों पर बिना किसी सबूत व वैध कारण के प्रतिबंधित भी किया गया. संघ और संघ संस्थापक की स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी को भी कमतर आंकने की एक होड़ देश के इतिहासकारों में रही है.

संघ के संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार युगांतर और अनुशीलन समिति के सदस्य थे. श्री अरविंद, त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती और रासबिहारी बोस के साथ काम करने के लिए उन्होंने कोलकाता के राष्ट्रीय मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया. फिर डिग्री पूरी करने के बाद वो वापस नागपुर आ गए. मध्य प्रांत में तब केवल 75 डॉक्टर थे लेकिन उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए पेशे और काम में नहीं आने का फैसला किया. हालांकि डॉ. हेडगेवार महात्मा गांधी द्वारा खिलाफत के साथ असहयोग आंदोलन शुरू करने की नीति से असहमत थे क्योंकि इसका प्रमुख मुद्दा तुर्की में खलीफा को बहाल करना था. उन्होंने यात्राएं जारी रखीं और बैठकों को संबोधित करते हुए लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया.

मई 1921 में करोल और भरतवाड़ा में दिए गए भाषणों के लिए हेडगेवार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. उन्होंने अदालत में अपना बयान पढ़ा तो न्यायाधीश ने कहा, 'उनके मूल भाषण की तुलना में उनका बचाव और भी अधिक देशद्रोही है'. मामले की सुनवाई 14 जून, 1921 को शुरू हुई और बेंच की अध्यक्षता न्यायाधीश स्मेली ने की. 19 अगस्त, 1921 को दिए गए अपने फैसले में न्यायाधीश ने उन्हें लिखित रूप में एक वचन देने का आदेश दिया कि वो भविष्य में एक वर्ष की अवधि के लिए देशद्रोही भाषण नहीं देंगे और 3000 /- रुपये की जमानत दें. डॉ. हेडगेवार ने जमानत के आदेश का पालन करने से इनकार कर दिया. इसके बाद न्यायाधीश ने उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई. उन्हें जुलाई 1922 में अजानी जेल से रिहा कर दिया गया और कांग्रेस द्वारा एक सार्वजनिक स्वागत समारोह आयोजित किया गया, जिसमें तत्कालीन वरिष्ठ कांग्रेस नेता पंडित मोती लाल नेहरू और हकीम अजमल खान ने भी सभा को संबोधित किया.

12 जुलाई, 1930 को नागपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में डॉ. एल. वी. परांजपे ने डॉ. हेडगेवार के साथ भाग लिया. ये घोषणा की गई थी कि डॉ. हेडगेवार 'जंगल सत्याग्रह' में भाग लेने जा रहे हैं. डॉ. हेडगेवार और डॉ. परांजपे के एक संक्षिप्त भाषण के बाद खड़े हुए और सरसंघचालक (आरएसएस प्रमुख) ने 'जंगल सत्याग्रह' में शामिल होने के लिए अपने इस्तीफे की घोषणा की. डॉ. हेडगेवार की वापसी तक डॉ. परांजपे को सरसंघचालक (आरएसएस का प्रमुख) नियुक्त किया गया. डॉ. हेडगेवार ने 21 जुलाई, 1930 को नागपुर में गिरफ्तारी दी. उन्होंने 11 लोगों के साथ 'जंगल कानून' को तोड़ दिया और उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया. उसी दिन कांग्रेस ने भी उनके समर्थन में एक रैली का आयोजन किया था. न्यायमूर्ति भरूचे ने उन्हें 9 महीने के कठोर कारावास की सजा सुनाई. उनके साथ गए 11 अन्य लोगों को केवल 4 महीने की सजा सुनाई गई. ये उनकी दूसरी जेल अवधि थी. डॉ. हेडगेवार का सत्याग्रह केंद्रीय प्रांत के सविनय अवज्ञा आंदोलन के सबसे सफल कार्यक्रमों में से एक था. फरवरी में जेल से लौटने के बाद वो 21 फरवरी को एक बार फिर सरसंघचालक बने.

हमें देश के विभाजन के साथ ही 15 अगस्त 1947 को आजादी मिली. ये विभाजन 1946 में प्रांतीय असेंबली के चुनाव में मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में मुस्लिम लीग के उम्मीदवारों के जीतने के कारण हुआ. विभाजन के साथ जनसंख्या का हस्तांतरण भी हुआ. जब पूरा देश आजादी की लड़ाई का जश्न मना रहा था, तब देश का एक हिस्सा खून से नहा रहा था और दिल्ली में बैठे लोगों ने उन हिस्सों विशेष रूप से पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं की पीड़ा के प्रति अपनी उदासीनता दिखाई थी. निष्पक्ष सुरक्षा तंत्र की कमी के कारण हिंदुओं को सशस्त्र मुस्लिम लीग के गुंडों से स्वयं को बचाने के लिए छोड़ दिया गया था.

प्रोफेसर ए. एन. बाली ने 1949 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'नाउ इट कैन बी टोल्ड' में लिखा है कि किस प्रकार आरएसएस प्रमुख 'श्रीगुरूजी' के नेतृत्व में सिखों और आरएसएस के स्वयंसेवकों ने नवनिर्मित सीमा को पार करके परित्यक्त सिखों और हिंदुओं की मदद की. वो लिखते हैं, 'Police was generally league minded. Non- violence and advice given by Mrs. Sucheta Kriplani, Mahatma Gandhi and Dr. Rajender Prasad etc., to stay out where they were with a firm trust in God appeared to most of the victims as a counsel of perfection which could only be given from a safe distance. Who else came to the rescue of the people at the this stage, but a band of young selfless Hindus popularly known as R.S.S? He further writes “They organised in every Mohalla, every town of the province the work of evacuation of the Hindu & sikhs women and children from dangerous pockets to comparatively safe centers... these young men were the first to come to help of the stricken Hindus and sikhs and were last to leave their places for safety. It it was left to Sanghies alone this problem of the rehabilitation of refugees from west and east Pakistan would have been solved long ago.'

संघ के स्वयंसेवकों की जहां आवश्यकता थी वहां सिखों और हिंदुओं को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने के साथ-साथ फायर ब्रिगेड तक बनाने का काम किया. उन्होंने अपनी और अपने परिवारों की चिंता किए बिना उन क्षेत्रों से हिंदुओं और सिखों को निकालने में अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए. रेफ्यूजी इलाकों में बचे हुए बुजुर्ग आज भी ससम्मान संघ को याद करते हैं.

लेखक: राजीव तुली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दिल्ली की प्रांत कार्यकारिणी के सदस्य हैं.

(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं.)

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