वो तारीख थी 13 जून 1998, समय था रात सवा 8 बजे. पटना की सड़कों पर तेज़ी से रफ़्तार भर रही थीं दो गाड़ियां. एक टाटा सूमो थी जिसका नंबर था BR 1 P 1818 और दूसरी बिना नम्बर प्लेट की सफ़ेद एम्बेसडर कार थी. दोनों कार में सवार थे हथियार बंद लोग. एक शख़्स के हाथ में स्टेन गन थी जबकि बाकियों के पास पिस्टल. ये गाड़ियां सीधे पहुंची इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़ और वहां पहुंचते ही फायरिंग शुरू कर दी.
बिहार के मंत्री की दिनदहाड़े हत्या
उत्तरी बिहार के एक बाहुबली के कहने पर इस हत्याकांड को अंजाम दिया गया. निशाने पर थे बिहार सरकार में मंत्री ब्रिज बिहारी प्रसाद, उनके साथ उनका बॉडीगार्ड भी मारा गया. इस हत्याकांड को अंजाम देने का इल्ज़ाम जिन लोगों पर लगा, उनमें से एक था विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला
बड़े भाई छोटन शुक्ला की हत्या ने बनाया गुंडा
मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार का वो ज़िला है जो अपनी लीची के लिए देश में जितना प्रसिद्ध है उससे कहीं ज़्यादा यहां के भूमिहार गैंगस्टर्स के लिए जाना जाता है. उत्तरी बिहार की राजधानी कहे जाने वाले मुज़फ़्फ़रपुर ने देश को जितने प्रशासनिक अधिकारी दिए हैं, उससे कहीं ज़्यादा यहां की धरती ने बिहार के जाने-माने बाहुबली नेताओं और अपराधियों को जन्म दिया.
जिस मुन्ना शुक्ला और मुज़फ़्फ़रपुर की बात हो रही है, ना तो वो शख़्स शुरुआत से गुंडा था और ना ही उसकी धरती शुरू से बाहुबल के लिए जानी जाती थी लेकिन आज़ादी की जंग से ही ये धरती क्रांतिकारी रही और 70 का दशक आया. देश परिवर्तन की एक बयार से गुज़र रहा था और इसके बाद देश में राजनीति और अपराध, दोनों की बुनियाद बनी जाति.
इस वक़्त में जेपी की संपूर्ण क्रांति ने देश को हिला दिया था. छात्र कॉपी किताब जलाकर इस आंदोलन में कूद पड़े थे. छात्र नेताओं ने हिन्दुस्तान को बदलने की ठान ली थी. बिहार के कॉलेज में यही चल रहा था, जहां लंगट सिंह कॉलेज में जाति के हिसाब से वर्चस्व कायम करने की होड़ लगी थी. मुज़फ़्फ़रपुर में दो गुट थे एक कौशलेंद्र शुक्ला उर्फ छोटन शुक्ला का गुट जिसे बाहुबली राजपूत नेता आनंद मोहन सिंह की सरपरस्ती हासिल थी, दूसरा ओंकार सिंह का गुट जिस पर पिछड़ी जाति के बाहुबली नेता ब्रिज बिहारी प्रसाद का हाथ था.
इन दोनों गुटों में आए दिन गैंगवॉर होते थे, अगड़ी और पिछड़ी जातियों का. ज़मीन हड़पना, हत्या करना, आगजनी करना. पूरा शहर दहशत में था और फिर सियासी सरपरस्ती में इन्हें पैसों का गेम दिखा, रेलवे और सरकारी ठेकों का खेल. दोनों गुटों को सपोर्ट मिला, हथियार मिले और फिर आए दिन शहर में फायरिंग होने लगी. पूरे मुज़फ़्फ़रपुर में ये रोज़ की कहानी थी.
भूमिहार ज़मीदारों और नेताओं के इस गढ़ में 1990 के दशक में एक और बाहुबली उभर रहा था, जिसका केंद्र था मुज़फ़्फ़रपुर का लंगट सिंह कॉलेज, इस कॉलेज ने देश को कई IAS, IPS अफसर दिए हैं तो साथ में कई नाम-चीन राजनेता भी दिए हैं. इसी कॉलेज में बारी-बारी से पढ़ने पहुंचे 4 भाई. जिसमें से सबसे बड़ा भाई कॉलेज में आने के साथ राजनीति का हिस्सा बना, उसका नाम था कौशलेंद्र शुक्ला उर्फ छोटन शुक्ला. ये वो दौर था जब इसी कॉलेज से जातियों में जंग चलती थी और इसी बीच में यहां के छात्र सियासी सरपरस्ती में गुनाह के रास्ते पर निकल जाते थे. छोटन शुक्ला ने भी गुनाह की गलियों में कदम रखा और बहुत जल्द सरकारी ठेकों का बेताज बादशाह बन गया.
दूसरी तरफ आनंद मोहन विधायक बन चुका था और अब लोकसभा की ताक में था, जनता दल ने जब वीपी सिंह के मंडल कमीशन का साथ दिया तो आनंद मोहन ने जनता दल छोड़ दी और बनाई अपनी पार्टी “बिहार पीपल्स पार्टी” और इस पार्टी का कर्मठ नेता बना मुज़फ़्फ़रपुर में अंडरवर्ल्ड को जन्म देनेवाला कौशलेंद्र शुक्ला उर्फ छोटन शुक्ला.
4 दिसम्बर 1994 को एक घटना घटी. उत्तरी बिहार में दहशत का पर्याय बने डॉन कौशलेंद्र शुक्ला उर्फ छोटन शुक्ला की हत्या कर दी गई. आनेवाले विधानसभा चुनाव में बिहार पीपल्स पार्टी के कैंडिडेट छोटन शुक्ला और उसके 4 साथियों को रात करीब 10 बजे चांदनी चौक के पास एक-47 से से भून दिया गया.
इस हत्या का आरोप लगा तत्कालीन शिक्षा राज्यमंत्री ब्रिजबिहारी प्रसाद पर. लेकिन उत्तरी बिहार के डॉन की मौत ने उसका एक ऐसा उत्तराधिकारी पैदा किया जो आगे जाकर कोसी के इस बेल्ट में बेताज बादशाह बननेवाला था और बिहार की सरकार के साथ पैरलल सरकार बनानेवाला बनने वाला था.
5 दिसंबर 1994 को मुज़फ़्फ़रपुर में छोटन शुक्ला के शव को सड़क पर रखकर प्रदर्शन चल रहा था. इसकी अगुवाई कर रहा था बिहार पीपल्स पार्टी का अध्यक्ष आनंद मोहन सिंह, आनंद के साथ उसकी पत्नी लवली आनंद भी थी और छोटन शुक्ला के दो भाई भी थे.
मुन्ना शुक्ला और भुटकुन शुक्ला. आनंद मोहन ने प्रशासनिक अफसरों पर हमला करने के लिए लोगों को उकसाया. बत्ती लगी गाड़ियों को निशाना बनाने के लिए और उसी वक़्त गोपालगंज के डीम जी कृष्णैय्या हाज़ीपुर में एक बैठक में हिस्सा लेकर लौट रहे थे. उनकी कार पर भीड़ ने हमला बोल दिया और एफआईआर में दर्ज दास्तां के मुताबिक गोपालगंज के डीएम जी कृष्णैय्या को छोटन शुक्ला के बदमाश भाई अवधेश उर्फ भुटकुन शुक्ला ने तीन गोलियां मारीं.
जबकि वो बार बार कहते रहे कि मैं मुज़फ़्फ़रपुर नहीं, गोपालगंज का डीएम हूं. इस सनसनी खेज़ मामले में पहली बार राजेश शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला का नाम पुलिस की डायरी में दर्ज हुआ. मुन्ना शुक्ला पर लगे पहले आरोप में उस पर IPC की 147, 302/149, 307/149 और 427/149 धाराएं लगीं.
हाथों में गुनाह की मेंहदी लग चुकी थी और मुन्ना शुक्ला अपने दोनों बड़े भाईयों छोटन शुक्ला और भुटकुन शुक्ला की राह पर निकल पड़ा था. छोटे-मोटे वारदातों को वो अंजाम देता रहता था. उसके भाई भुटकुन शुक्ला की दहशत कायम थी. दहशत इतनी थी कि अपने बच्चे का जन्मदिन पटना-हाजीपुर को जोड़ने वाले गांधी सेतु को ब्लॉक कर के पुल के बीच में मनाता था. भाई की हत्या का बदला लेने के लिए भुटकुन ने कुछ महीनों बाद ही, छोटन शुक्ला की हत्या में शामिल ओंकार सिंह के साथ 7 लोगों की हत्या कर दी.
शुक्ला ब्रदर्स का बदला अभी पूरा नहीं हुआ था क्योंकि ब्रिजबिहारी प्रसाद अभी ज़िंदा था. ब्रिजबिहारी प्रसाद को भी अंदाज़ा था कि भुटकुन शुक्ला और मुन्ना शुक्ला उसकी जान के दुश्मन बने हुए हैं, उसने अपनी सुरक्षा बढ़ा ली साथ ही कथित तौर पर उसने एक साज़िश रची और अगस्त 1997 में भुटकुन शुक्ला को उसी के गुर्गे दीपक सिंह ने घर में गोली मारकर उड़ा दिया.
अब मुन्ना शुक्ला के भीतर बदले की ज्वालामुखी फट पड़ी और फिर अगड़ी जाति के गैंगस्टर्स ने मिलकर बिहार को हिला देने वाली घटना को अंजाम देने की सोची, इसमें शामिल हुए बाहुबली सूरजभान सिंह, श्री प्रकाश शुक्ला, मुन्ना शुक्ला, मंटू तिवारी और राजन तिवारी. ब्रिज बिहारी प्रसाद पर इंजीनियरिंग एंट्रेंस स्कैम का आरोप लगा, उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजा गया तो सीने में दर्द की शिकायत लेकर वो भर्ती हो गए पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में. यहीं पर 13 जून 1998 को शाम 8 बजकर 15 मिनट पर ब्रिज बिहारी प्रसाद को निशाना बनाया गया.
इस हत्याकांड ने पूरे बिहार को हिलाकर रख दिया. पहली FIR में जो नाम आए उनमें सबसे बड़ा नाम था बाहुबली सूरजभान सिंह का, उसके बाद श्रीप्रकाश शुक्ला, मुन्ना शुक्ला, मंटू तिवारी, राजन तिवारी, भूपेंद्र नाथ दूबे, सुनील सिंह सहित अनुज प्रताप सिंह, सुधीर त्रिपाठी, सतीश पांडे, ललन सिंह, नागा, मुकेश सिंह, कैप्टन सुनील उर्फ सुनील टाइगर का. एफआईआर नंबर था 336/98 और आईपीसी की धार 302/307/34/120बी और 379 के तहत मामला दर्ज हुआ.
सियासत में उतरा, जेल में कराया नाच
अपराध की दुनिया में मुन्ना शुक्ला अब एक बड़ा नाम हो चुका था. हालांकि ब्रिजबिहारी हत्याकांड में वो जेल पहुंच गया. गुनाह की दुनिया से पाक साफ निकलने का रास्ता उसे सियासत की सफ़ेदी से नज़र आया और साल 2000 में हाजीपुर जेल में रहते हुए मुन्ना शुक्ला ने लालगंज विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की.
अपराधी मुन्ना अब राजनेता बन चुका था, माननीय विधायक बन चुका था, जेल में वैसे भी उसकी ज़िंदगी आम कैदियों जैसी नहीं थी. वो आए दिन जेल से बीमारी का बहाना बनाकर बाहर रहता था.
ज़ी मीडिया ने साल 2001 में एक वीडियो शूट किया था जिसमें मुन्ना शुक्ला मुज़फ़्फ़रपुर के सदर अस्पताल में बने क़ैदी वॉर्ड में था और उसके लिए अस्पताल में ही लड़कियों को बुलाया गया था. वीडियो में मुन्ना शुक्ला हाथों में हथियार लिए लड़कियों के साथ नाच रहा था.
इतना ही नहीं मुन्ना शुक्ला के लिए जिम के साजो सामान उपलब्ध थे, वो हर रोज़ कसरत करता और ये भी देखा गया कि जब मन करता था जेल से निकलकर क्षेत्र में जनता से मिलने भी पहुंच जाता था.
संसद जाने की हसरत
मुन्ना शुक्ला सबसे बड़े सियासी मंच पर जाना चाहता था लेकिन साल 2004 के लोकसभा चुनाव में निर्दलीय वैशाली सीट से आरजेडी के कद्दावर नेता रघुवंश प्रसाद के सामने उतरा और हार गया. हालांकि एंटी बीजेपी हवा में सबके तंबू उखड़ गए थे फिर भी अपने बाहुबल के दम पर विजय उर्फ मुन्ना शुक्ला ने रघुवंश प्रसाद को अच्छी टक्कर दी और 2.5 लाख वोट बटोरने में कामयाब रहा, जबकि रघुवंश प्रसाद वैशाली सीट से ही 3 बार चुनकर संसद जा चुके थे, उनके भी पसीने निकाल दिए.
मुन्ना ने अब साल 2009 के लोकसभा चुनावों में भी वैशाली सीट से जेडीयू के टिकट पर ताल ठोकी. इस बार भी हत्या के 5 मुकदमों में आरोपी विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला ने रघुवंश प्रसाद को कड़ी टक्कर दी लेकिन शुक्ला का सांसद बनने का सपना धरा का धरा रह गया.
बाहुबली को आरजेडी और जेडीयू दोनों पसंद
अगले साल यानी साल 2005 में विधानसभा चुनाव का शंखनाद हुआ, लोक जन शक्ति पार्टी ने विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला ने फिर लालगंज सीट से सियासी समर में उतरा और जीत दर्ज की. इसी साल राज्य में दोबारा चुनाव हुए और मध्यावधि चुनाव में मुन्ना शुक्ला पर भरोसा जताया नीतीश कुमार ने और मुन्ना ने फिर जीत दर्ज की.
जब मुन्ना को हुई उम्र क़ैद की सज़ा
नीतीश सरकार की सरपरस्ती हासिल थी और मुन्ना शुक्ला एक-एक कर मुकदमों में बरी होता चला गया लेकिन 3 अक्टूबर साल 2007 को पटना के अपर ज़िला जज प्रथम की अदालत ने डीएम जी कृष्णैय्या की हत्या के मामले में फ़ैसला सुनाया और पूर्व लोकसभा सांसद आनंद मोहन समेत तीन लोगों को फांसी की सज़ा दी और आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद के साथ 4 लोगों को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई. उम्र क़ैद पानेवालों में मुन्ना शुक्ला का नाम भी शामिल था. मामला हाईकोर्ट पहुंचा और साल 2008 में आनंद मोहन की सज़ा कम कर उम्र क़ैद में तब्दील हो गई और मु्न्ना शुक्ला समेता बाकी आरोपियों को बरी कर दिया गया.
साल 2009 में 12 अगस्त को एक और फ़ैसला आया. ब्रिज बिहारी प्रसाद की हत्या के मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने मुन्ना शुक्ला समेत 9 आरोपियों को दोषी करार दिया और विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला के साथ पूर्व सांसद सूरजभान सिंह, पूर्व विधायक राजन तिवारी, मंटू तिवारी, ललन सिंह, कैप्टन सुनील सिंह, मुकेश सिंह और रमनीरंजन चौधरी को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई, वहीं जेडीयू के एक और नेता शशि कुमार राय को 5 साल क़ैद की सज़ा सुनाई, वहीं इनमें से एक आरोपी सुनील सिंह ने साल 2007 में बेऊर जेल पटना में खुदकुशी कर ली थी.
पत्नी के सहारे बाहुबल जारी रहा
सज़ायाफ़्ता मुजरिम होने के नाते साल 2010 में मुन्ना चुनाव नहीं लड़ सका, लेकिन ऐसा नहीं था उसका राजनीतिक रसूख कम हो चुका था. मुन्ना शुक्ला को टिकट देना जेडीयू की मजबूरी थी और मुन्ना की जगह उसकी पत्नी अन्नु शुक्ला चुनावी मैदान में उतरी और जीत दर्ज की.
जब मुन्ना ने नीतीश के नाम पर मांगी रंगदारी
साल 2012 में मुन्ना शुक्ला हाथों में हथकड़ी डाले बड़े मज़े से कोर्ट परिसर में टहलता हुआ नज़र आया. जेडीयू की अधिकार रैली के पर्चे बांट रहा था. दरअसल जेल में रहते हुए मुन्ना शुक्ला ने जेडीयू और अधिकार रैली का नाम लेकर एक बिज़नेस मैन से रंगदारी मांगी थी, बाद में पुलिस ने जेल से मोबाइल फोन बरामद किया.
इस मामले को काफी सियासी रंग दिया गया लेकिन मुन्ना शुक्ला के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी. वो कोर्ट में बैठकर मीडिया को इंटरव्यू दे रहा था. इस घटना के बाद मुन्ना शुक्ला नीतीश के लिए आंखों की किरकिरी बन चुका था लेकिन सुप्रीम कोर्ट से भी जी कृष्णैय्या हत्या मामले में मुन्ना को राहत मिली और बाद में साल 2014 में हाईकोर्ट ने ब्रिज बिहारी प्रसाद की हत्या के मामले में भी मुन्ना शुक्ला समेत सभी आरोपियों को बरी कर दिया. जेडीयू फिर भी मुन्ना को टिकट नहीं देना चाहती थी लेकिन महागठबंधन में लालू और नीतीश एक हुए और इस चुनाव में उन्हें बाहुबल की ज़रूरत महसूस हुई. मुन्ना शुक्ला एक बार फिर साल 2015 के चुनाव में लालगंज सीट से ताल ठोकने उतर पड़े.
जब माननीय नहीं रह गया बाहुबली
जिस सीट पर 15 सालों से मुन्ना शुक्ला का वर्चस्व चलता था उसे साल 2015 में धक्का पहुंचा. इससे पहले 2014 में वैशाली सीट से लोकसभा का चुनाव भी मुन्ना शुक्ला की पत्नी हार चुकी थीं. कुल मिलाकर मुन्ना का वर्चस्व कम होने लगा था, यही वजह थी कि टिकट मांगने के बावजूद साल 2019 में किसी भी पार्टी मुन्ना शुक्ला को टिकट नहीं दिया। इसका असर ये हुआ कि मुन्ना शुक्ला एंड कंपनी पूरे इलाके में नोटा का प्रचार करती रही और अपने खुद के भूमिहार वोट बैंक से अपील करते रहे कि वो चुनाव में नोटा का बटन दबाएं, जिसका असर भी देखने को मिला था.
2020 में पार्टियों ने मुंह फेरा
मुन्ना शुक्ला को वैसे तो पूरी उम्मीद थी कि वो जेडीयू से टिकट हासिल कर लेगा. लेकिन उसे ना सिर्फ जेडीयू से निराशा हाथ लगी बल्कि किसी और पार्टी ने भी मुन्ना को टिकट नहीं दिया और आखिरकार मुन्ना शुक्ला लालगंज सीट से निर्दलीय ही मैदान में उतर चुका है.
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