नई दिल्लीः लोकसभा चुनाव को लेकर बीजेपी ने 195 उम्मीदवारों के नाम का ऐलान कर दिया है. यूपी की 80 लोकसभा सीटों में भी आधे से ज्यादा पर सत्तारूढ़ बीजेपी ने प्रत्याशियों के नाम की घोषणा कर दी है. कांग्रेस का गढ़ माने जाने वाली अमेठी से भी बीजेपी ने स्मृति ईरानी को फिर से मैदान में उतार दिया है. लेकिन राहुल गांधी या गांधी परिवार के किसी भी सदस्य की अब तक उम्मीदवारी का ऐलान नहीं हो सका है. अमेठी से सटी लोकसभा रायबरेली में भी बीजेपी ने अपने पत्ते सेट करने शुरू कर दिए हैं लेकिन कांग्रेस यहां भी रणनीतियों में पिछड़ती दिख रही है. कांग्रेस की ये देरी कहीं न कहीं उसको भारी भी पड़ सकती है. ऐसा हम क्यों कह रहे हैं, आइए इसकी वजह आपको बताते हैं.
2014 से सेंधमारी की तलाश में बीजेपी
2004 में पहली बार राहुल गांधी ने अमेठी से लोकसभा का चुनाव लड़ा था. उसके बाद वह लगातार तीन बार यानी की 2019 तक इस क्षेत्र से सांसद रहे. लेकिन इन 15 सालों में एक बात गौर करने वाली थी.2004 और 2009 में राहुल गांधी के जीत का अंतर 3 लाख से भी ज्यादा था. 2004 की तुलना में वो 2009 में ज्यादा बड़ी जीत के साथ संसद पहुंचे थे लेकिन 2014 में जब स्मृति ईरानी लोकसभा प्रत्याशी बनीं तो बीजेपी ने इस गढ़ को तोड़ने की कोशिश की. खुद नरेंद्र मोदी प्रचार के लिए अमेठी पहुंचे.
2014 में राहुल की जीत का अंतर 1 लाख के आसपास आकर टिक गया. ये तब हुआ जब स्मृति के नाम का ऐलान भाजपा ने देरी से किया था. कहानी 2019 में पूरी तरह बदल गई. राहुल गांधी न सिर्फ करीब 50 हजार से ज्यादा के अंतर से चुनाव हार गए बल्कि राहुल गांधी ने शायद 15 साल में उतनी मेहनत नहीं की थी जितना चुनाव के समय वो क्षेत्र में टहलते रहे.
इसका बड़ा कारण ये था कि स्मृति ने चुनाव हारने के बाद भी अमेठी आना नहीं छोड़ा. जबकि राहुल गांधी 2014 में सांसद बनने के बाद अमेठी पर कम ध्यान देने लगे.
नाम के ऐलान में देरी से क्या होगा असर?
2019 में मिली हार के बाद राहुल गांधी ने अमेठी से किनारा कर लिया है. उनके अमेठी के दौरे की कहानी भी लगभग न के बराबर रही हैं. कार्यकर्ताओं से संवाद या क्षेत्र की जरूरी समस्याओं पर लोगों के बीच पहुंचकर चर्चा न के बराबर रही. वो अगर 2019 के बाद से अमेठी आए भी तो पार्टी के नेता के तौर पर आए. कभी वह इस क्षेत्र के पूर्व सांसद के तौर पर अमेठी नहीं आए. इसका असर ये हुआ कि अमेठी के कांग्रेस कार्यकर्ताओं का उत्साह गिर गया. इसके उलट स्मृति ईरानी ने अमेठी में अपनी पैठ बनाने की कोई कसर नहीं छोड़ी है.
अब अमेठी में उनका निजी आवास भी है. इस 'आवास' वाली पॉलिटिक्स को उन्होंने खूब भुनाया भी है. इसके अलावा वह राहुल के अमेठी को नजरअंदाज करने की आदत पर उन्हें घेरती भी रहती हैं. कांग्रेस कार्यकर्ता भी राहुल की इस दूरी के कारण समर्पित रहने में असहज महसूस करते हैं.
लोकसभा की राह क्यों नहीं आसान
अमेठी लोकसभा में 4 विधानसभा क्षेत्र आते हैं- अमेठी, गौरीगंज, तिलोई और जगदीशपुर. मौजूदा समीकरण को समझें तो तिलोई और जगदीशपुर में बीजेपी के विधायक हैं, जबकि गौरीगंज और अमेठी में सपा का कब्जा है. लेकिन राज्यसभा चुनाव के वक्त राकेश प्रताप की पलटी से गौरीगंज भी भाजपा की पकड़ में दिख रहा है जबकि अमेठी सीट पर भले ही सपा का कब्जा हो लेकिन इस विधानसभा में भाजपा मजबूत है. जानकार बताते हैं कि 2019 के चुनाव में भी राकेश प्रताप ने अंदरखाने स्मृति का साथ दिया था.
राहुल का मुख्य वोट जगदीशपुर और तिलोई विधानसभा में माना जाता है. जहां पिछले कुछ समय से स्मृति ने बहुत से दौरे किए हैं और गांव गांव प्रचार किया है.
कांग्रेस कार्यकर्ता क्यों हैं असहज?
अमेठी कई दशकों तक कांग्रेस का गढ़ रहा है. लेकिन 2014 के बाद कहानी पलट गई. स्मृति के चुनाव हारने के बाद भी बीजेपी ने उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया. जिसके चलते स्मृति ने अमेठी में कार्यकर्ताओं को मजबूत किया. 2019 में जब वह सांसद बन गईं तो भी केंद्रीय मंत्री हैं. ऐसे में एक संदेश जो अमेठी कांग्रेस कार्यकर्ताओं में है वो ये है कि स्मृति चाहे चुनाव जीतें या न जीतें लेकिन भाजपा की सरकार बनी तो वह मंत्री बनेंगी. ऊपर से राहुल गांधी की क्षेत्र में निष्क्रियता से कार्यकर्ताओं को इस बात का डर है कि अगर वह खुलकर कांग्रेस का समर्थन करते भी हैं तो चुनाव खत्म होने के बाद उन्हें क्षेत्र में दिक्कत का सामना करना पड़ सकता है.
लंबे समय बाद अमेठी में राहुल गांधी ने न्याय यात्रा के जरिए कदम रखा लेकिन वह भी अमेठी के एक कोने को छूकर निकल गई.ऐसे में अगर राहुल गांधी को इस गढ़ पर फिर कब्जा करना है तो जल्द ही उन्हें अपने नाम का ऐलान करना होगा और एक जमीनी नेता की तरह लोगों से संपर्क साधना होगा.
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