नई दिल्ली: हॉलीवुड की कभी मशहूर जोड़ी रही स्टॉर एम्बर हर्ड और जॉनी डेप की लीगल लड़ाई अब अपने अंतिम चरण में है. अमेरिका के वर्जिनिया में पिछले छह हफ्तों से मानहानी के इस केस को लड़ा जा रहा था. अब केस का फाइनल निर्णय जूरी को सौंप दिया गया है. जूरी अपने फैसले से पहले अब तक इस केस में हुई गवाही और पेश किये गये साक्ष्यों पर आपस में चर्चा कर रही है. इस हाईप्रोफाइल केस में अंतिम फैसला आने में कुछ सप्ताह का वक्त लग सकता है. ऐसे में दुनियाभर की नज़र अब इस जूरी पर आकर टिक गयी है.
अमेरिका में जूरी सिस्टम अदालत का महत्वपूर्ण हिस्सा
अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों की न्यायपालिका में जूरी सिस्टम अदालत का महत्वपूर्ण हिस्सा है. इसमें अक्रमिक रूप से मामले की गंभीरता को देखते हुए 12 से लेकर 100 से अधिक सदस्य तक शामिल हो सकते हैं. ये सदस्य आम नागरिक से लेकर अलग अलग क्षेत्र के विशेषज्ञ नागरिक भी होते हैं और ये अस्थायी होते हैं. ये सदस्य अदालत में जज की तरह उसके साथ ही मामले की सुनवाई करते हैं और फिर फैसला भी देते हैं. फैसला देने के बाद जूरी मंडल को भंग कर दिया जाता है, हर नए मामले के लिये नए लोग शामिल किये जाते हैं. कई देशों में ये जूरी सिस्टम जज को राय या सलाह देने के लिए का कार्य करता है और उसकी फैसला लेने में भूमिका नहीं होती है.
हमारे देश में भी था यह सिस्टम
आजादी से पहले और आजादी के बाद हमारे देश की न्यायपालिका में जूरी सिस्टम अहम हिस्सा रहा है. हमारे देश में जूरी सिस्टम की समाप्ति का दारोमदार पूरी तरह से देश के दिवंगत वरिष्ठ वकील जेठमलानी के नाम है. रामजेठमलानी हिंदूस्तान में वकालत की दुनिया के वो सितारे थे जिनकी चमक तक पहुंचाना हर किसी के बुते के बात नही हैं. लेकिन ये एक इत्तिफाक है जिस केस की वज़ह से वकालात के पेशे में रामजेठमलानी की एन्ट्री हुई थी उसी केस ने हमारे देश से जूरी सिस्टम को न्याय व्यवस्था से बाहर कर दिया था.
आधा सच है रूस्तम मूवी का अंत
अक्षय कुमार की फिल्म रुस्तम को आपने देखी ही होगी. कम से कम उसके बारे में तो जरूर सुना होगा. ये फिल्म जिस केस से प्रेरित होकर बनी है, उसे राम जेठमलानी ने ही लड़ा था. और ये वही केस था जिसे रामजेठमलानी ने महज 17 साल की उम्र में अपने पहले केस के रूप में लड़ा था. ये अलग बात है कि इस फिल्म का अंत जिस तरीके से दिखाया गया है, हकीकत में इस केस का अंत उसके विपरीत है. क्योंकि अंत में इस मूवी हीरो के तौर पर पेश किये जाने वाले रूस्तम को वास्तविक जीवन में हत्या का दोषी मानते हुए जेल भेज दिया जाता है.
नानावती बनाम महाराष्ट्र सरकार
ये केस था 1959 का नानावती बनाम महाराष्ट्र सरकार का केस. रामजेठमलानी ने ये केस यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ के साथ लड़ा था, जो बाद में देश के चीफ जस्टिस भी बने थे और वर्तमान में उनके बेटे जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ सुप्रीम कोर्ट के सीनियर जज हैं और आगामी कुछ महीनों में ही वे देश के सीजेआई बन सकते हैं.
नानावती बनाम महाराष्ट्र सरकार
केएम नानावती का ये केस देश की न्यायपालिका में आजादी के बाद का सबसे हाईप्रोफाइल केस माना जाता है. नेवल कमांडर कावस मानेकशॉ नानावती ने अपनी ब्रिटिश पत्नी सिल्विया के प्रेमी प्रेम आहूजा के बेडरूम में घुसकर गोली मारकर उसकी हत्या कर दी थी. हत्या करने के बाद नानावती ने मुंबई के एक पुलिस स्टेशन में आत्मसमर्पण कर दिया था. जिसके बाद पुलिस ने नानावती पर धारा 302 के तहत मामला दर्ज किया था और जूरी ट्रायल शुरू किया गया था.
नानावटी के बचाव पक्ष के अधिवक्ताओं ने जूरी के सामने नेवी कमांडर को देशसेवा में तत्पर सिद्धांतों पर चलने वाले आदर्श अधिकारी के तौर पर प्रस्तुत किया था, जबकि मृतक आहूजा को अनैतिक अय्याश शख्स के तौर पर पेश किया गया. छवि गढने के इस तरीके में स्थानीय मीडिया और हाई प्रोफाइल क्लबों की बड़ी भूमिका रही थी.
इसके साथ ही इस केस को अदालत के बाहर पारसी और सिंधी समुदाय के बीच का केस बनाकर जनमानस के मन में कमांडर के प्रति सहानुभूति पैदा की गयी. इसका नतीजा ये हुआ कि जनता हत्यारे नानावती के पक्ष में झुक गयी जिसने अपनी पत्नी के सम्मान की रक्षा करने की कोशिश की थी. मीडिया, जनता और हाईप्रोफाइल क्लबों के द्वारा तैयार किये नैरेटिव के चलते इस केस की जूरी ने इस महत्वपूर्ण कानूनी बिंदू को नजरअंदाज कर दिया कि इस केस में किसी को गोली लगी थी.
जूरी ने 8-1 से किया था दोषमुक्त
जूरी ने बचाव पक्ष के इन तर्को को स्वीकार कर लिया कि नानावती ने अचानक उकसावे में आकर ये कार्य किया था. ग्रेटर बॉम्बे सत्र न्यायालय में जूरी का कार्य केवल ये था कि उसे घोषित करना था कि आरोपों के तहत नानावती 'दोषी' है या 'दोषी नहीं' हैं. जूरी को ये अधिकार नहीं था कि वो किसी अभियुक्त पर अभियोग लगा सकती थी और न ही अभियुक्त को दण्डित कर सकती थी.
इस मामले में जूरी ने 23 सितंबर, 1959 को अपना फैसला सुनाया. ग्रेटर बॉम्बे सत्र न्यायालय में जूरी के 9 सदस्यों में से 8 सदस्यों ने नानावती को धारा 302 के तहत दोषी नहीं ठहराया. लेकिन तत्कालिन सत्र न्यायाधीश रतिलाल भाईचंद मेहता ने दोषमुक्ति को विकृत मानते हुए जूरी के निर्णय को पलटने का ऐतिहासिक निर्णय लिया. उन्होंने मामले को फिर से सुनवाई के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट के पास भेज दिया.
हाईकोर्ट में अपील से हुई रामजेठमलानी की एन्ट्री
जूरी ने इस मामले में नेवल कमांडर कावस मानेकशॉ नानावती हत्या के मामले से बरी कर दिया. इस फैसले को आहूजा का परिवार स्वीकार नहीं कर पा रहा था, जिसके चलते आहूजा की बहन मैमी ने अपने भाई के हत्यारों को उसके अंजाम तक पहुंचाने के लिए एक लीगम टीम से संपर्क किया था. उस टीम का हिस्सा रामजेठमलानी भी थे. इस मामले का सबसे रोचक पहलू यह था कि राम जेठमलानी बचाव या अभियोजन पक्ष में से किसी भी तरफ के वकील नहीं थे. हालांकि वह उस लीगल टीम का हिस्सा थे, जिसकी आहूजा की बहन मैमी ने सेवाएं ली थीं.
एक युवा वकील के रूप में जेठमलानी इस केस को संक्षिप्त रूप से देख रहे थे, लेकिन मामले के साथ जुड़ने से उन्हें विभाजन के बाद कराची से बॉम्बे में खुद को स्थापित करने में मदद मिली. जूरी के समक्ष इस बात पर जोर दिया गया था कि नानावती ने आहूजा को एक अप्रत्यक्ष घटना के चलते गोली मारी है ना कि पूर्व नियोजित तरीके से प्लान करके.
तर्क, टॉवल क्यों नहीं खुली थी
बॉम्बे हाईकोर्ट में रामजेठमलानी ये साबित करने में सफल हो जाते हैं कि नानावती ने एक योजनाबद्ध तरीके से इस हत्या को अंजाम दिया था और ये घटना आकस्मिक नही थी. रामजेठमलानी इस तर्क को बेहद मजबूती से साबित कर पाये कि अगर आहूजा और नानावटी के बीच हाथापाई होती है, तो आहूजा की टॉवल क्यों नहीं खुली थी.
11 मार्च, 1960 को बॉम्बे हाई कोर्ट ने नानावती को आहूजा की हत्या का दोषी पाया और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 24 नवंबर 1961 को नानावटी की अपील पर फैसला सुनाते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए आजीवन उम्रकैद की सजा को बरकरार रखा. ये अलग बात है कि एक समझौते के तहत तत्कालिन गवर्नर और पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित ने नानावती को माफ करते हुए रिहा कर दिया. 1968 में नानावटी और उनकी पत्नी सिल्विया अपने तीन बच्चों के साथ कनाडा चले गए. वहीं पर 2003 में नानावटी की मृत्यु हो गयी.
जूरी के खिलाफ बनी धारणा
नानावटी के इस केस में जूरी के फैसले को लेकर देशभर में आलोचनाए शुरू हो चुकी थी. सुप्रीम कोर्ट और अलग अलग हाईकोर्ट में भी जूरी की निष्पक्षता पर सवाल उठने लगे. इस केस में पहले बॉम्बे हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भी जूरी की समाप्ति पर मुहर लगा दी और आखिरकार 1960 में जूरी सिस्टम को धीरे-धीरे समाप्त कर दिया गया. देश की न्यायपालिका में जूरी ट्रायल का ये आखिरी मामला साबित हुआ था.
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