Pranab Mukherjee- पत्रकार, प्रोफेसर, राष्ट्रपति, जानिए पूर्व राष्ट्रपति के जीवन के पहलू

देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी नहीं रहे. कोरोना संक्रमण होने और ब्रेन सर्जरी के लिए अस्पताल में भर्ती होने के बाद उनकी हालत लगातार नाजुक बनी हुई थी. कभी पत्रकार तो कभी प्रोफेसर और फिर एक सशक्त राजनेता बनकर उभरे प्रणब दा.. कांग्रेस के लिए तो कई बार संकटमोचक बने. भारत रत्न पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अपने पीछे कई स्मृतियां छोड़ गए हैं. 

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Aug 31, 2020, 06:39 PM IST
    • 1984 में यूरोमनी मैग्जीन ने प्रणब मुखर्जी को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ वित्त मंत्री घोषित किया गया था
    • वह अकेले ऐसे मंत्री हुए हैं जिन्होंने चार बड़े मंत्रालय यानी रक्षा, वाणिज्य, विदेश और वित्त मंत्रालय को संभाला है.
Pranab Mukherjee- पत्रकार, प्रोफेसर, राष्ट्रपति, जानिए पूर्व राष्ट्रपति के जीवन के पहलू

नई दिल्लीः 30 अक्टूबर 1984, वह काला दिन जब देश की पहली महिला प्रधानमंत्री के तौर पर विख्यात इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई. चारों तरफ एक ही सवाल, अब देश का क्या होगा? भारत का क्या होगा, सबसे बड़ा सवाल कांग्रेस का क्या होगा? 

उस दौरान जब सबकी निगाहें चारों ओर घूम रही थी तो ऐसे में एक शख्स था जिसने दोनों हाथों से हाथ (कांग्रेस का चुनाव चिह्न) थाम रखा था. नाम प्रणब मुखर्जी.. उन्होंने संगठन को बनाए रखा, हालांकि उन्हें तात्कालिक लाभ नहीं हुआ और राजीव गांधी के सामने आने पर वह हाशिए पर चले गए. 

इंदिरा गांधी के बाद से थे पीएम पद के दावेदार
खैर यह समय कांग्रेस की परिवार और वंशवाद की बात करने का नहीं, समय है देश के अभूतपूर्व राष्ट्रपति को उनके योगदान के लिए याद करने का. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इंदिरा गांधी के बाद सबसे प्रबल और प्रखर व्यक्ति थे जो कि पीएम बन सकते थे, बल्कि 2004 में भी उन्हें ही आगे किया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 

अपनी सेवा और लगन का उन्हें प्रसाद मिला और वे राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर गए. 

 जिंदगी के कई पहलुओं को देखा
देश के 13वें राष्ट्रपति, एक जमाने में उम्दा प्रोफेसर रहे, कभी बंगाली समाचार पत्र देशर डाक में पत्रकार के तौर पर जीवन की सुर्खियों को देखने-समझने वाले प्रणब मुखर्जी ने कई पहलुओं को जीकर अनुभव बटोर रखा था. यही वजह थी कि प्रशासनिक फैसलों में उनकी दृढ़ता के कसीदे कढ़े जाते हैं. 

एक नजर में जीवन की झांकी
गुलामी के दौर का समय, साल था 1935. दिसंबर का ग्यारहवां सर्द दिन था, जब पं. बंगाल के बीरभूम जिले में बंगाली ब्राह्मण परिवार को उनका वंश चिराग मिला. पिता स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रहे थे, लिहाजा आजादी के बाद स्वतंत्र भारत की राजनीति में उनका पदार्पण हो ही चुका था. 

1952 से 1964 तक पश्चिम बंगाल विधान परिषद् के सदस्य रहे और आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी थे. यहां से राजनीति विरासत में मिली और एक राह बन गई थी कि मुखर्जी इस रास्ते चल सकते हैं. 

कोलकाता विवि से किया LLB
खैर अभी इसमें समय था तो बीरभूम के सूरी विद्यासागर कॉलेज (कोलकाता विश्वविद्यालय से सबद्ध) में पढ़ाई जारी रही. बाद में राजनीति शाष्त्र और इतिहास विषय में एम.ए. भी किया और फिर उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. की डिग्री भी हासिल की. 

1969 में राजनीति के लिए दिया इम्तिहान
यह सब होने के बाद राजनीति उनकी राह निहार रही थी, लेकिन कोई कितनी भी विरासत लेकर क्यों ही न आ जाए राजनीति अपने धुरंधरों को बिना परीक्षा लिए नहीं चुनती. प्रणब मुखर्जी के लिए भी इस परीक्षा का समय आया 1969 में. 

वीके कृष्ण मेनन को उपचुनाव जीतना था. लोकसभा सीट थी मिदनापुर, कांग्रेस के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना था. और यह जोर लगाया, राजनीति में नौजवान प्रणब मुखर्जी ने. 

इंदिरा गांधी ने कराया राजनीति में प्रवेश
इतना सफल प्रबंधन किया, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस सूरमा को पहचान लिया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल कर लिया. जुलाई 1969 में ही राज्यसभा सदस्य बनाया गया और तय रहा कि प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के हए.

इसके बाद भी वह कई बार मसलन 1975, 1975, 1981, 1993 और 1999 में भी  राज्य सभा के लिए चुने गए. खैर 1973 तक वह इंदिरा के करीबी बन चुके थे और केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल कर लिए गए.

अपनी पार्टी भी बनाई लेकिन विलय कर लिया
राजनीति अस्थिरता का नाम है. इसमें कभी कोई भी पैटर्न एक लीक पर नहीं चलता. इस उदाहरण को आज सचिन पायलट प्रकरण से समझा जा सकता है. ठीक ऐसा ही हुआ इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद. 

जब वह प्रधानमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदार थे, लेकिन माना जाता है की वे राजीव गांधी की समर्थक मण्डली के षड्यन्त्र का शिकार हुए जिसके बाद उन्हें मन्त्रिमणडल में भी शामिल नहीं किया गया. 

नरसिम्हा राव सरकार से फिर चमका करियर
इससे आहत होकर उन्होंने कांग्रेस छोड़ अपने राजनीतिक दल ‘राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस’ का गठन किया पर 1989 में उन्होंने अपने इस दल का विलय पुनः कांग्रेस पार्टी में कर लिया. 

कुछ साल का कूलिंग ऑफ पीरियड रहा और फिर आई पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार जब उनका राजनीतिक करियर फिर से उठान पर आया. 

मुखर्जी को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया और साल 1995 में विदेश मन्त्री के तौर पर नियुक्त किया गया. 

सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाने की भूमिका रची
राजनीति में प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनने के पहले के भी कई प्रकरणों से याद किया जाएगा. खुद इस समय अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी उन्हें नहीं भूल सकतीं क्योंकि वह प्रणब मुखर्जी ही थे जिनके प्रयास और दृढ़ निर्णयों ने सोनिया गांधी (जो कि आज भी बाहरी कह दी जाती हैं) को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया. 

1998 में सोनिया कांग्रेस अध्यक्ष बनीं और प्रणब मुखर्जी बने पार्टी महासचिव.

2004 में जंगीपुर संसदीय क्षेत्र से जीते
2004 में प्रणब मुखर्जी ने पहली बार लोकसभा के लिए चुनाव लड़ा और पश्चिम बंगाल के जंगीपुर संसदीय क्षेत्र से जीत हासिल की. वे लोक सभा में पार्टी के नेता चुने गए और इस वक्त तय था कि वह पीएम बनेंगे. क्योंकि जीत के बाद भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पीएम बनने के लिए इन्कार कर चुकी थीं, लेकिन इसी बीच मनमोहन सिंह का नाम आया और 10 साल देश की कमान उनके हाथों में रही. 

हालांकि प्रणब मुखर्जी आगे चलकर राष्ट्रपति बन गए और महामहिम कहलाए. 

खारिज की सात दया याचिकाएं
पूर्व राष्ट्रपति के तौर पर उनकी कई उपलब्धियां रही हैं. सबसे खास है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में सात दया याचिकाओं को खारिज किया जिनमें अफजल गुरु और अजमल कसाब की भी दया याचिका शामिल थी. 


1984 में उनको यूरोमनी मैग्जीन ने दुनिया का सर्वश्रेष्ठ वित्त मंत्री घोषित किया गया था. वह अकेले ऐसे वित्त मंत्री हैं जिन्होंने सात बार बजट पेश किया. 

चार बड़े मंत्रालय संभालने वाले अकेले मंत्री
एक खास उपलब्धि उनके अलावा अभी तक किसी राजनेता के हिस्से नहीं आई है. वह अकेले ऐसे मंत्री हुए हैं जिन्होंने चार बड़े मंत्रालय यानी रक्षा, वाणिज्य, विदेश और वित्त मंत्रालय को संभाला है.

 

उनके विषय में सबसे अधिक यह चर्चित यह है कि वह अपने जीवन के पहलुओं को डायरी में उतारते हैं, उसका कोई अंक आता है तो सियासत के कई टेढ़े-कई मेढ़े जवाब उसमें शामिल हो सकते हैं.

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