नई दिल्लीः समाज में रहने या सामाजिक व्यक्ति होने का एक बेसिक कायदा है कि अच्छे-बुरे वक्त में आदमी-आदमी के काम आए. एक और अनलिखा कायदा यह भी है कि गुरबत पड़ेगी तो रिश्तेदार बाद में आएंगे पहले तो पड़ोसी काम आएंगे. पड़ोस का जिक्र होता है तो पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी याद आते हैं. वह कहते थे कि आप अपना मित्र बदल सकते हैं पड़ोसी नहीं.
बेशक वह यह बात पाकिस्तान के लिए बोल रहे थे, जो हमेशा सीमा पर हमारे सीने पर बंदूक ताने खड़ा रहता है. बंदूक तानने की बात पर मनीष सिसोदिया भी याद आते हैं जो एक भाषण में कहते सुने गए कि आज बंदूकें सिर्फ सीमा पर नहीं तनी हुई हैं. वह हर पड़ोस में तनी हैं, हर घर में तनी हैं.
रिंकू शर्मा की हुई हत्या
सिसोदिया दिल्ली के डिप्टी सीएम हैं और उनकी ही बात की लकीर पकड़कर मंगोलपुरी चलते हैं. जिसके रास्ते खून से रंगे हैं. यह खून एक पड़ोसी का है जिसे एक पड़ोसी ने ही छुरा मारकर बहाया है. जिस खून में वे सारी बातें लथपथ वहीं कहीं पड़ी हैं. वही बातें जो हमें समाज और सामाजिक आदमी बनने के लिए बताई गईं थीं.
कहने वाले कह रहे हैं कि यह खून किसी रिंकू शर्मा का है. बताने वाले यह भी बता रहें हैं कि मारने वाला कोई इस्लाम है. मारा इसलिए गया क्योंकि रिंकू जय श्री राम बोलता था और इस्लाम (और उसके तीन साथियों) को ये पसंद नहीं था.
रिंकू ने जिसके लिए खून दिया
ये पसंद-नापसंद वाली इतनी बड़ी हो गई कि उसके सामने रिंकू की जान छोटी पड़ गई. आखिर क्यों इस्लाम को ये याद नहीं आया कि जिस रिंकू को वो मार रहा है वह कोई अन्जाना या सिर्फ किसी दल से जुड़ा चेहरा नहीं है, बल्कि एक आदमजात है. चलो ये बात भूला तो भूला फिर ये कैसे भूल गया कि वो उसका पड़ोसी भी है. चलो माना कि वहशियत की रतौंधी में ये नहीं दिखा होगा.
फिर रिंकू के जिस्म से बहे खून के पहले ही कतरे ने उसे ये क्यों नहीं याद दिलाया कि ये वही लहू है जो जिंदगी बनकर उसकी खुद की बीवी के जिस्म में भी है. उसे यह क्यों नहीं याद आया कि चाकू से छेदकर वह जिस खून को पानी की तरह बहाने पर अमादा है कभी रिंकू ने यही खून उसकी पत्नी की जिंदगी बचाने के लिए दिया था. वह भी एक नहीं बल्कि दो-दो बार.
इस्लाम ये कैसे भूल गया कि जब महामारी के दौर में आदमी-आदमी से दूर हो गया था तब रिंकू ही था, जिसने कोरोना से बीमार उसके भाई को अस्पताल पहुंचाया था. कोविड का खौफनाक दौर अभी बीता नहीं है कि उसका असर याद्दाश्त से इतनी जल्दी हट जाए.
Corona के दौर में भी मदद की
Lockdown के उस दौर को याद कर लीजिए जब अस्पताल और एंबुलेंस नाम सुनते ही जेहन में मौत आती थी. खांसी-जुखाम ही किसी को श्मशान याद दिलाने को काफी था, उस दौर में यही जय श्रीराम बोलने वाला रिंकू इस्लाम के भाई की जान बचाने के लिए भाग-दौड़ कर रहा था. राम का नाम तो उसने तब भी लिया होगा, लेकिन मौका परस्त इस्लाम को शायद तब नागवार नहीं लगा होगा, या फिर अपना काम बनता देख थूक निगल लिया होगा.
रिंकू की मौत पर खामोशी क्यों?
लेकिन बुधवार की रात जो चाकू रिंकू की रीढ़ में फंसा रह गया था, दरअसल वह रीढ़ रिंकू की थी ही नहीं. वह रीढ़ इसी समाज की है, जो हमेशा जख्मी रही है. जो अखलाक और रिंकू के खून में अलग-अलग रंग पहचान लेती है. जो रीढ़ देखती है कि किस लाश के सहारे वह सीधी खड़ी हो सकती है और कौन सी लाश यूं ही लुढ़का दिए जाने लायक है.
एक 25 साल के लड़के को क्यों मार दिया गया? मंगोलपुरी की तंग गलियों से निकला ये सवाल समाज के हर हिस्से के कान तक पहुंचने की कोशिश तो कर रहा है, लेकिन बेचारा राह भूल जा रहा है. राह क्यों भूल रहा है एक सवाल यह भी है? एक सवाल यह भी है कि इस मौत पर इतना सन्नाटा क्यों है? एक सवाल यह भी कि इन सवालों के जवाब क्या हैं?
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