शरजील उस्मानी: एक गद्दार, नफरत पसंद जिहादी और 'वामपंथी' प्रेम

मार्क्स के गुरु हेगल के थिसिस, एंटिथिसिस, सिंथेसिस का पहिया प्रोपेगेंडा के तौर पर 2014 से ही देश में घुमाया जाने लगा था. असहिष्णुता की टर्मिनोलॉजी से नफरत की ये एंटिथिसिस लिखी जानी शुरू हो चुकी थी. पाखंडी वामपंथी साहित्यकारों, मीडिया में बैठे उनके टट्टुओं ने खूब हायतौबा मचाई. अवार्ड वापसी गैंग ने खूब ड्रामेबाजी की.

Written by - Rakesh Pathak | Last Updated : Feb 4, 2021, 04:52 PM IST
  • रक्त क्रांति के बिना वामपंथ कभी संतृप्त नहीं होता
  • मुसलमानों को खुद से पूछना होगा कि उनकी राह क्या है?
शरजील उस्मानी: एक गद्दार, नफरत पसंद जिहादी और 'वामपंथी' प्रेम

नई दिल्लीः मैं जैसे-जैसे उस दुबले-पतले और किसी अफीमची के चेहरे वाले शख्स के शब्दों को सुन रहा था मेरा गुस्सा वैसे-वैसे बढ़ रहा था. वामपंथियों के प्रति नफरत और देश के खिलाफ उनकी गद्दारी के एक-एक पन्ने खुलते चले जा रहे थे. मैं चाहता था कि उस शख्स के अल्पसंख्यकों के प्रति चिंताओं का कोई ईमानदार सिरा खोजूं और खुद को उसकी पूरी बात सुनने के लिए तैयार कर सकूं. पर वो दुबला-पतला अलीगढ़ 'मुस्लिम' यूनिवर्सिटी का जिहादी मुझे मौका नहीं दे रहा था. मैं हैरान था कि क्या एल्गार परिषद के इस पूरे कार्यक्रम में मौजूद मेरे देश का एक भी शख्स हिंदुओं से, मेरे मुल्क से बेसाख्ता नफरत करने वाले इस सूखे कट्टरपंथी जिहादी को ये क्यों न बोल सका कि तुम हो क्यों इस देश में? इस शख्स का नाम था शरजील उस्मानी.

मुगलों और इस्लामिक इन्वेडर्स के खूनी इतिहास को भूल गए

उसने कहा- हिंदू समाज पूरी तरह सड़ चुका है, (क्योंकि लिचिंग सिर्फ हिंदू ही कर रहा है), इस अफीमची शक्ल वाले किरदार की माने तो सारे हिंदू न जाने कैसे लिंचिंग करते हैं, फिर घर जाकर हाथ धोते हैं, खाना खाते हैं, मोहब्बत करते हैं और फिर दूसरी लिंचिंग के लिए तैयार हो जाते हैं? मतलब ये कि शरजील उस्मानी और उसकी सेक्युलर वामपंथी गैंग मानती है गोया हिंदुओं का जन्म ही मुसलमानों की लिंचिंग करने के लिए हुआ है.

जिन लोगों ने 1947 के बाद का इतिहास पढ़ा है, या वामपंथियों के इस्लामिक तुष्टिकरण में लिखे मुगलकालीन इतिहास को पढ़ा है उनसे निवेदन है कि मुगलों और इस्लामिक इन्वेडर्स के खूनी इतिहास और हिंदुओं पर ढाए गए उनके ज़ुल्मों को भी पढ़ें. ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है. भारत विभाजन के वक्त आज के पाकिस्तान में किस तरह से हिंदुओं (इसमें दलित भी हैं), सिखों को चुन-चुन कर खत्म किया गया. महिलाओं के साथ बर्बर रेप, मर्डर और धर्मांतरण जैसी वहशी घटनाओं को अंजाम दिया गया इसके बारे में पढ़ें. 'रेप ऑफ रावलपिंडी' का दस्तावेज आपको तस्वीरों के साथ इस्लाम के नाम पर मुल्लाओं की चलाई गई जहरीले-नफरती कट्टरपंथ की गवाही देता है. चाहें तो आप इसे भी पढ़ सकते हैं, बशर्ते मिले तो.

और शरजील उस्मानी पूछता है कि पाकिस्तान से नफरत क्यों सिखाई जाती है? और मुझे याद नहीं आता कि किसी मुसलमान (बीजेपी से जुड़े मॉडरेट मुस्लिमों को छोड़कर) ने इस बात पर कभी दुख जताया हो कि हिंदुओं के आराध्य भगवान राम की जन्म भूमि पर बने मंदिर, भगवान कृष्ण की जन्मभूमि पर बने मंदिर के अलावा काशी विश्वनाथ मंदिर को मुस्लिम आक्रांताओं ने और इस्लामिक भीड़ ने खंडित किया? कभी हिंदुओं को अपनी ही जमीन पर दोयम दर्जे का नागरिक बना देने वाले इस्लामिक कट्टरपंथी इसलिए घुल कर शरजील उस्मानी हुए जाते हैं क्योंकि अब हिंदुस्तान में बात समानता की होती है, तुष्टिकरण की नहीं.

थिसिस, एंटिथिसिस, सिंथेसिस

मार्क्स के गुरु हेगल के थिसिस, एंटिथिसिस, सिंथेसिस का पहिया प्रोपेगेंडा के तौर पर 2014 से ही देश में घुमाया जाने लगा था. असहिष्णुता की टर्मिनॉलॉजी से नफरत की ये एंटिथिसिस लिखी जानी शुरू हो चुकी थी. पाखंडी वामपंथी साहित्यकारों, मीडिया में बैठे उनके टट्टुओं ने खूब हायतौबा मचाई. अवार्ड वापसी गैंग ने भी खूब ड्रामेबाजी की. याद रखिए कि ये बस शुरुआत भर थी और अभी जो पिछले करीब दो वर्षों में देश के भीतर हुआ है, ये वामपंथ के माओवादी संस्करण के रक्तबीज ही हिंदुस्तान की जमीन पर रोपे गए हैं.

रक्त क्रांति के बिना वामपंथ कभी संतृप्त नहीं होता, इतिहास उठा कर देख लीजिए. ये अलग बात है उसके बाद उन देशों के गति क्या होती है. अगर प्रदेश के तौर पर वामपंथ के खूनी प्रयोग और उसके आर्थिक इंपैक्ट को समझना है तो पश्चिम बंगाल को देख लीजिए. इस्लामिक कट्टरपंथ से वामपंथ की गलबहियों और चिरपवित्र संबंध को देखना है तो केरल को देख लीजिए, जहां सबसे ज्यादा इस्लामिक कन्वर्जन है और ISIS के इस्लामिक जिहादियों का आना जाना है.

ये खुद से पूछना होगा मुसलमानों को कि आखिर उनकी राह है क्या? खुलेपन और दिलो-दिमाग के साथ जीना, या शरजील उस्मानी जैसे धर्मखोरों के जहर में डूबते उतराते एक दिन मर जाना. अब कहां कोई शंका बची है कि ये कहें शरजील जैसे लोग मानवीय दृष्टिकोण या मानवीय चिंताओं को उभारते हैं. जिसे जिन्ना और मौलाना मोहानी में उसके अस्तित्व को बचाने वाला किरदार दिखता हो वो हिंदुस्तान का भला सोच कैसे सकता है?

सिर्फ नफरतों से गढ़ा गया एक धर्म

और तब उदासी घेर लेती ये सोचकर कि हम कैसे तेजाबी और जहरीले लोगों के बीच रह रहे हैं. हम अभिव्यक्ति आजादी के नाम पर अपने देवी-देवताओं के अपमान को सहने को मजबूर हैं. हम बहुसंख्यक होने का पाप ढो रहे हैं. वो अल्पसंख्यक होने का पुण्य कमा रहे हैं. वो जब चाहें हमारे आराध्य को फिल्मों में, साहित्य में और अपनी गलीज वामपंथियों नौटंकियों में उतार सकते हैं. और फ्रांस में जब कोई शिक्षक अभिव्यक्ति की आजादी का हिमायती बन मोहम्मद का कार्टून को दिखा कर अपने बच्चों को खुल कर बोलने का मंत्र देता है तो उसका सिर कलम कर सकते हैं, क्यों? आखिर क्यों? तब मेरा एक वामपंथी मित्र मुझे समझाता है- समझा करो उनकी आस्था पर चोट पहुंचती है, उनके धर्म में है कि पैगंबर की तस्वीर नहीं बना सकते. ये ईशनिंदा है और इसकी सजा मौत है.

तो क्या हमारे देवी-देवताओं, हमारे देश, हमारे संविधान, हमारे मंदिरों पर हमला करने वाले लोगों को सिर्फ इसलिए बच निकलने की गुंजाइश है क्योंकि सनातन धर्म में धर्म के नाम पर किसी को मार देने का चलन नहीं? और तब शरजील उस्मानी तुम्हें पलट कर देखना चाहिए अपने धर्म को. जो गैर मुस्लिम मासूम बच्चों को कत्ल करता है. जो यजिदियों की महिलाओं को रेप कर उनके गले रेत देता है और तब मुझे एक बजबजाती नाली के कीड़े की याद आती है. जो दुर्गंध से भरा है जिसका चेहरा नफरतों के ना जाने कितने जालों से घिरा है.

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