नई दिल्ली: उर्दू और हिंदी गजल के सफर के बीच कहीं खो गया एक शायर, जिसने गुमनामियत में ही अपनी सारी जिंदगी निकाल दी. शौक बहराइची का जन्म 6 जून, 1884 को उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले के सैय्यदवाड़ा मोहल्ले में हुआ था.
शौक हमेशा से इसी नाम से नहीं जाने जाते थे, उनका असल नाम 'रियासत हुसैन रिजवी' था. शौक अयोध्या में पैदा हुए, लेकिन उनकी परवरिश बहराइच में हुई. बहराइच में रहकर ही उन्होंने 'शौक बहराइची' के नाम से शेरो-शायरी करना शुरू किया. रिजवी साहब को 'तंज ए महाजिया' यानी किसी पर कटाक्ष कसने का सबसे ज्यादा शौक था.
उन्होंने साल 1957 में वो मशहूर शेर लिखा, जो आज भी सबकी जुबां पर है. शौक उस दौरान बहराइच की कैसरगंज विधानसभा से विधायक और 1957 के प्रदेश मंत्री मंडल में कैबिनेट स्वास्थ्य मंत्री रहे हुकुम सिंह की एक स्वागत सभा में शेर पढ़ रहे थे और इसी मंच से उन्होंने कहा था,
'बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी है,
हर शाख पे उल्लू बैठे हैं, अंजाम ए गुलिस्तां क्या होगा?'
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शौक का जीवन बहुत गरीबी में बिता. इस गरीबी का ही नतीजा था कि उनके आस-पास उनके लिखे कितने ही शेरों को सहेजने के लिए कोई भी नहीं था. साल 1964 में शौक के इंतकाल तक सरकार और साहित्य की दुनिया के नामचीनों किसी ने उनकी सुध नहीं ली. शौक की जिंदगी पर उनका खुद का लिखा एक शेर एकदम सटीक बैठता है.
अल्लाहो गनी इस दुनिया में, सरमाया परस्ती का आलम,
बेजर का कोई बहनोई नहीं, जरदार के लाखों साले हैं.
आजाद भारत में शौक साहब के इंतकाल से पहले भारत सरकार ने उनके लिए कुछ पेंशन जारी जरूर की थी, लेकिन वह उन तक कभी पहुंची नहीं.
जीवन के आखिरी दिनों में भी मुफलिसी ने उनका साथ नहीं छोड़ा, लेकिन तब भी 'शौक' ने बड़े शौक से अपनी हालत पर तंज से भरा शेर फरमाया था:
सांस फूलेगी खांसी सिवा आएगी, लब पे जान हजी बराह आएगी,
दादे फानी से जब शौक उठ जाएगा, तब मसीहा के घर से दवा आएगी.
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