रूमी: जो इश्क करने वालों की मंजिल भी हैं और रास्ता भी

अगर आप अतिवादी नहीं है, तो आप प्रेमी भी नहीं हैं. जीवन को शांति और संयम के पहिए में बांध देने वाला शख्स... वह क्या ही प्रेमी होगा. और जो ऐसा हो गया वह रूमी हो जाएगा... पर ऐसा शायद ही मुमकिन हो.  

Written by - Animesh Nath | Last Updated : Jun 4, 2021, 08:55 AM IST
  • रूमी जिन्हें ईश्वर की इबादत में भी इश्क सुनाई देता था
  • कहते हैं जिसे रूमी की रुबाइयों से इश्क नहीं हुआ, उसे कभी इश्क नहीं हो सकता
रूमी: जो इश्क करने वालों की मंजिल भी हैं और रास्ता भी

नई दिल्ली: ये तारीखों वाले अल्फाजों में बहुत पीछे की बात है. इतनी कि आसमान में दौड़ लगा रहा आज का आदमजात फिर से जमीं पर आ जाए और एक-एक कदम कर के वैसे ही चले-फिरे जैसे कि 13वीं सदी के उस दौर में चला करता था. अपनी चाल में ही सही लेकिन जमाना तब भी तेजी से कदम बढ़ा रहा था. बस ठहरा था तो केवल एक शख्स. उसकी अपनी ही अलग दुनिया थी.  

जब मीनारों से आवाज आती अल्लाह हु अकबर तो उसे इश्क सुनाई देता, जब सिजदों में सिर झुक जाया करते तो उसे इश्क दिखाई देता. दुनिया उसे ऐसा करते देखती तो कहती है, क्या पागलपन है? ये तो गलत है. वह कहता 'सही और गलत से दूर एक जगह है, मैं तुम्हें वहां मिलूंगा'

वह दरों-दीवारों में होकर भी हर बंद से खुला था और खुले आसमां के नीचे वह खुद में बंद था. कहते हैं कि वह कोई जुनूनी था, पागल था. वह रूमी था. 

800 साल पहले जब दुनिया शमशीरों के बल पर जीती जा रही थी, तजाकिस्तान के वख्स गांव में रूमी (Rumi) पैदा होता है. बाबा जान और अब्बा हुजूर दोनों ही अल्लाह का पैगाम बांटने वाले लोगों में शुमार थे और दीनी बातों के जानकार थे.

रूमी भी इस राह पर बढ़े तो जवान होते-होते लोग उनसे भी दीन-ईमान सीखने-जानने आने लगे. लोग जितना पूछते जाते, रूमी (Rumi) उतने ही खोजी होते जाते. खोज के जुनून में दिल में खलल पैदा की तो पांव चल पड़े.

जिस ओर सूरज जाकर छिप जाया करता है, रूमी (Rumi) उस ओर रौशनी खोजने निकल पड़े. तजाकिस्तान से उज्बेकिस्तान, वहां से समरकंद और आगे बढ़े तो ईरान, सीरिया और दमिश्क तक का सफर तय किया.

अलेप्पो में जब उनके कदम रुके दुनियावी तालीम उन्होंने पूरी हासिल कर ली थी. 

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अब बस खुदा की राह में आगे बढ़ना था. यह साल था 1244 जो रूमी (Rumi) की जिंदगी में खास साबित हुआ और एक मोड़ भी ले आया. उनकी मुलाकात सूफी दरवेश शम्स तबरेजी (Shams Tabrezi) से हुई.

इस मुलाकात का असर ऐसा हुआ कि शम्स रूमी (Rumi) हो गया और रूमी तबरेजी बन गया. रूमी पहले ही समय से आगे की बातें लिख और कह चुके थे.

तबरेजी से मिले तो सच को खोजने लगे तो कभी प्रेम को जानने लगे. वाकई में कहें तो सच्चे प्रेम को खोजने लगे. 

रूमी ने कहा-  मैं उसे क्यों खोजूं? मैं भी वैसा ही तो हूं, जैसा कि वह है. उसी का सार तो मेरे जरिए बोलता है. ये तो मैं खुद को ही खोज रहा हूं.'

रूमी के इस कहे में 'वह' वही है, जिसकी आज सबको तलाश है 'सुकून' और उस सुकून की डोर एक प्रेमी के हाथ में है. पर रूमी जानता था कि प्रेम हमारे भीतर है.

वह पागल था? फिर ऐसा क्या है कि 21वीं सदी के इस दौर में जबकि पुर्जे भी बोल पड़ते हैं. आदमी दिली बातों को एक छुअन भर से सात समंदर पार पहुंचा देता है तो दुनिया उस आदमी को खोज कर पढ़ रही है जिसे रूमी (Rumi) कहते हैं.

इस सवाल का एक जवाब है आज का आदमी दौड़ने-उड़ने के बीच ही ठहर लेना चाहता है. ये ठहर पाना उसकी अपनी जिंदगी में शायद ही मुमकिन हो, इसलिए वह रूमी को पढ़ लिया करता है और इसी बहाने थोड़ा ठहर भी लिया करता है. रूमी उनकी मंजिल भी है और उनका रास्ता भी.

रूमी और शम्स (Shams) की दोस्ती इतनी गहरी थी कि रूमी के शिष्यों और परिवार को यह बात नागवार गुजरने लगी कि वे धर्म के प्रचार को छोड़कर शम्स (Shams) से साथ अपना सारा वक्त व्यतीत करने लगे थे.

कई लोगों का यह भी मानना है कि रूमी (Rumi) शम्स से प्रेम करने लगे थे. ऐसा प्रेम जिसकी रौशनी के आगे उन्हें सारी दुनिया फीकी लगने लगी थी.

इस साथ के तीन साल बीतने के बाद एक दिन शम्स गायब हो गए. उसके बाद वे कभी नहीं लौटे. कई लोगों का यह भी मानना है कि रूमी के बेटे अल्लाउद्दीन ने ही शम्स की हत्या कर दी थी.

इस घटना के बाद रूमी जैसे पागल से हो गए. वे पागलों की तरह दर-बदर शम्स को खोजने लगे. एक दिन वे शम्स को खोजते-खोजते सीरिया की राजधानी दमिश्क जा पहुंचे. वहां वे रेगिस्तान में शम्स की तलाश में भटक रहे थे. 

जब तक यह तलाश बाहरी थी रूमी भटक रहे थे, जैसे ही तलाश ने अंदरूनी रुख किया तो गजब हो गया. तबरेजी (Tabrezi) वहीं थे. रूमी (Rumi) के भीतर. रूमी ने आंखें खोलीं, जमीं देखी, आसमां निहारा, हर ओर शम्स, सब ओर तबरेजी. बाखुदा, खुशी में उनके हाथ आसमां की ओर उठ गए और जमीं पर पांव नाचने लगे. रूमी खूब झूमे, खूब नाचे और जब रुके तो सूफी हो गए. 

रूमी (Rumi) जो पागल था, वह सूफी (Sufi) हो गया. वह नाचता-झूमता ही सड़कों पर चलता मिलता. वह प्रेम और सच से दुनिया को रूबरू कराने लगे.

न जाने तब के दौर में लोगों ने उसे क्या समझा लेकिन 21वीं सदी गवाह है कि 13वीं सदी की वह बातें जो कुछ भी हासिल हो सकीं हैं, किताबों की शक्ल में सबसे ज्यादा खरीदी जाने वाली बातें हैं. उन्हें रुबाइयां कहते हैं, जिसमें रूमी का बताया सच है, उसकी दिखाई मंजिल है, उसकी सुझाई राह भी है और राह पर सहा उसका दर्द भी है. 

मसनवी (Masnavi) नाम का उसका कागज का पुलिंदा बहुत कीमती है, जिसके आज कई भाषाओं में तर्जुमे (अनुवाद) हैं. लोग हाथों-हाथों पढ़ रहे हैं. ठहर रहे हैं और फिर चल दे रहे हैं.

क्योंकि रूमी को समझ पाना आसान नहीं है. रूमी रहस्यवादी थे इतने कि हर सच एक-एक परत में लिपटा है. उन परतों को खोलने के लिए उतना ही जुनून चाहिए जितना रूमी में था. अतिवाद जितना जुनून. 

दुनिया रूमी को सूफी दरवेश (Sufi Darvesh) ही जान पाती है. रूमी इससे भी दो फर्लांग (दो कदम) आगे हैं. जिनमें इश्क (Love) के परवाज फैलाने का दम होता है रूमी उनके ईश्वर हैं. 

रूमी अतिवादी हैं. सही है कि अगर आप अतिवादी नहीं है, तो आप प्रेमी भी नहीं हैं. जीवन को शांति और संयम के पहिए में बांध देने वाला शख्स... वह क्या ही प्रेमी होगा. और जो ऐसा हो गया वह रूमी हो जाएगा... पर ऐसा शायद ही मुमकिन हो.

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