नई दिल्लीः यह रात का आखिरी प्रहर था. तड़के चार बजे होंगे. वक्त ऐसा था कि देश क्या समझिए उसका भाग्य ही सो रहा था. घोर सन्नाटा पसरा था. इसी सन्नाटे को चीरने वाली गति से चादर में खुद को ढके हुए तीन आकृतियां बढ़ी जा रही थीं.
जरा सी आहट होती तो पांव ठिठक जाते थे. सावित्री पर जिम्मेदारी थी कि जिन दो किशोरियों को वह बीती रात चुपके से उनके घर से बुला लाई थी, सबके जागने से पहले उन्हें वहां पहुंचाना भी था.
इसी उधेड़बुन में तीनों कुछ आगे बढ़ी ही थीं कि किसी ने उन पर गोबर फेंक दिया. सावित्री ने झटके से अपनी चादर दोनों लड़कियों पर डाल दी. उन्हें बचाने में खुद गंदगी से सन गईं, लेकिन दोनों लड़कियों को सुरक्षित घर पहुंचाकर ही दम लिया.
उनमें से एक लड़की ने पूछा, आई! हम कब तक ऐसे रात के अंधेरे में छिपते-छिपाते पढ़ेंगे. तब सावित्री ने कहा- घबराती क्यों है? देख इस रात की सुबह तो अभी हो जाएगी, लेकिन अगर तूने डरकर पढ़ाई छोड़ दी, तो तुम्हारे और तुम्हारे जैसी न जाने कितनों की जिंदगी से अंधेरा कभी नहीं छंट पाएगा.
स्त्री शिक्षा की अलख जलाने वाली सावित्री बाई फुले
तकरीबन डेढ़ सौ साल पहले यह बड़ी बात कहने वाली थीं, सावित्री बाई फुले. बाबा ज्योतिबा फुले की पत्नी. लेकिन उनकी यही पहचान बिल्कुल भी नहीं है. बल्कि उनकी पहचान भारत की उन सशक्त नारियों में होती है, जिन्होंने वाकई स्त्री शिक्षा (woman Education) को समझा, नारी को उसकी ताकत (women empowerment) का अहसास कराया.
जिस दौर में भारत के पैर में कुरीतियों की बेड़ियां बंधी थीं और हाथ दासता की जंजीरों में जकड़े थे, सावित्री बाई फुले (Savitribai Phule) पूरे साहस और उत्साह के साथ स्त्री शिक्षा की अलख जगाने निकल पड़ी थीं.
3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित नायगांव में जन्मी सावित्री (Savitribai Phule) के लिए यह कर पाना बेहद मुश्किल था. इतना कि समझिए शब्दकोश में खोजे से भी आसान शब्द न मिले. दौर ही ऐसा था कि कुछ तो डर और कुछ गलत सोच और निचला सामाजिक स्तर औरतों-लड़कियों को Object से अधिक कुछ समझने ही नहीं देता था.
उनके कोई अधिकार नहीं थे. पढ़ना-लिखना तो दूर की बात, लड़िकियों की खेल-कूद की उम्र भी 4-5 साल की उम्र में खत्म हो जाती थी. 8 साल की उम्र होती है उनके विवाह की चिंता घरों सताने लगती और 10 की होते-होते ब्याह दी जातीं. फिर काली होती थी सिर्फ चूल्हे की राख और उजले होते थे धो दिए कपड़े. सावित्री बाई (Savitribai Phule) ने इन सारी स्थितियों-परिस्थितियों को बड़े ही करीब से देखा था, बल्कि खुद झेला भी था.
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सबसे पहले पिता का किया विरोध
समाज बदलने निकलो तो पहले घर ही बदलना पड़ता है. सावित्री को भी शुरुआत घर से ही करनी थी. जल्द ही इसका मौका भी मिल गया. रोजमर्रा के काम निपटा रही सात साल की इस लड़की को घूरे (वह स्थान जहां कूड़ा इकट्ठा होता है) पर एक चमकती सी चीज दिखा. कौतूहल उसे उसके पास ले गया.
देखा तो कोई अंग्रेजी की किताब थी. सावित्री (Savitribai Phule) उसे उठा लाई और बगल मे झाड़ू दाबे हाथ से पन्ने पलटते घर में घुसी. पिता ने देख लिया तो आग-बबूला हो गए. जोर से डांटा, सावित्री (Savitribai Phule) ने कहा- मुझे पढ़ना सीखना है. पिता ने गुस्से में किताब बाहर फेंक दी. सावित्री कुछ देर बाद बाहर गईं, किताब उठा लाई और प्रण किया उन्हें पढ़ना ही है.
फिर 9 साल की उम्र में ब्याह दी गईं
इसके बाद आनन-फानन में दो साल बाद ही सावित्री (Savitribai Phule) का विवाह हो गया. मात्र 9 साल की उम्र में सावित्री बाई, ज्योतिबा की पत्नी बनकर आ गईं. वह अनपढ़ थीं. फुले भी सिर्फ तीसरी कक्षा तक ही पढ़े थे. जिस दौर में सावित्री बाई फुले (Savitribai Phule) पढ़ने का सपना देख रही थीं.
उस दौर में अस्पृश्यता, छुआछूत, भेदभाव जैसी कुरीतियां चरम पर थीं. लेकिन फुले पढ़ाई का महत्व समझते थे. पढ़ाई का अधिकार भी जातियों में बंटा था. उन्होंने खुद सावित्री (Savitribai Phule) की इच्छा पर उन्हें पढ़ना सिखाया. लगनशील सावित्री तीसरी कक्षा तक का सारा ज्ञान सीख गईं.
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एक-एक करके खोले 18 स्कूल
अब आगे पढ़ना था. क्या करें, कहीं और तो दाखिला मिलता नहीं तो 1 जनवरी 1848 में सावित्री बाई फुले (Savitribai Phule) ने घर में ही स्कूल खोला.यह पहला स्कूल था जिसने स्त्री शिक्षा में क्रांतिकारी काम किया.
तमाम विरोधों और कई चोटिल हमलों के बाद भी सावित्री रुकी नहीं और एक-एक करके 18 स्कूल खोले. शुरुआत में वह लड़कियों को रात में उनके घर से ले आतीं. उन्हें पढ़ातीं और उनके परिवार के जागने से पहले ही उन्हें सुरक्षित घर पहुंचा देतीं. यह सिलसिला लंबा चला.
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स्कूल खोला तो लोगों ने गोबर फेंक कर 'नवाजा'
स्कूल खुलने के बाद वह खुलेआम दलित व स्त्रीशिक्षा की कवायद करने लगीं. वह हमेंशा दो साड़ी लेकर जाती थीं. रास्ते में कुछ लोग उन पर गोबर फेंक देते थे. गोबर फेंकने वाले उच्च जाति का मानना था कि शूद्र-अतिशूद्रों को पढ़ने का अधिकार नहीं है.
सावित्री घर से जो साड़ी पहनकर निकलती थीं वो दुर्गंध से भर जाती थी. स्कूल पहुंच कर दूसरी साड़ी पहन लेती थीं. फिर लड़कियों को पढ़ाने लगती थीं. ऐसा होने पर भी उनके चेहरे पर चिंता की शिकन तक नहीं आती थी. वह बस आंख बंद करके इंतजार कर रही थीं उस सुबह का, जिसका सपना उन्होंने खुली आंखों से देखा था.
सिर्फ पढ़ाया ही नहीं महिलाओं को सम्मान से जीना सिखाया.
इन बीते 10 सालों में सावित्री के भीतर एक अदम्य साहस आ चुका था. उन्होंने एक तरीके से महिलाओं के प्रति हो रहे हर अत्याचार के विरोध में मोर्चा खोल दिया था. इसका असर यह हुआ कि फुले दंपति को उनके पिता ने घर से ही निकाल दिया. पति-पत्नी सड़क पर आ गए, लेकिन हार नहीं. स्त्री शिक्षा के बाद, स्त्री के मौलिक अधिकारों की लड़ाई लड़नी थी और जल्द ही सावित्री ने इसे छेड़ भी दिया.
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बालहत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना
1853 में बालहत्या प्रतिबंधक गृह स्थापित किया. जिसमें विधवाएं अपने बच्चों को जन्म दे सकती थीं. अगर वो मां अपने बच्चे को साथ न रख पाएं, तो वो उसे वहां छोड़कर भी जा सकती थीं, क्योंकि उस समय विधवा को उसके सगे संबंधी या अन्य गर्भवती बना उन्हें छोड़ देते थे.
उन्हें अपनाने से इनकार कर दिया जाता था, इससे महिलाएं बचने के लिए वहां अपने बच्चों को आश्रय के लिए छोड़ देती थीं. ऐसी समस्याओं के लिए सावित्री का काम बेहद ही सराहनीय रहा. यह समस्या कितनी विकराल थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मात्र 4 सालों के अंदर ही 100 से अधिक विधवा स्त्रियों ने इस गृह में बच्चों को जन्म दिया.’
आज के Fake Feminism को आइना दिखातीं हैं सावित्री
आज के बाजारवाद के दौर में नारीवाद भी महज Product बन कर रह गया है. Feminism के वास्तविक अर्थ को न समझते हुए और उसके असल मकसद से बिल्कुल दूर फैशन परस्त Fake Feminism नया सामाजिक अभिशाप है. नारी क्रांति और सशक्तिकरण का असल चेहरा देखना है तो पुराने भारत में देखिए.
उन वीरांगनाओं में देखिए जिन्होंने अधिकार और स्वतंत्रता का अर्थ समझा और हक से लिया. सावित्री बाई फुले असल नारीवाद का असल चेहरा हैं, जिनके सामने Fake Feminism पानी भरता नजर आता है.
आज उनकी जयंती पर उन्हें शत-शत नमन.
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