अर्द्धशहरी मतदाताओं पर रहेगी राजनीतिक दलों की नजर

शहरीकरण के विस्तार के साथ देश का एक बड़ा हिस्सा अर्द्धशहरी क्षेत्र में तब्दील हो गया है। विश्लेषकों एवं राजनीतिक दलों ने ऐसे ग्रामीण एवं शहरी छाप लिए मतदाताओं की बड़ी संख्या को आगामी चुनाव में निर्णायक माना है। राजनीतिक दल इस वर्ग को अपनी रणनीति में महत्व दे रहे हैं। इस वर्ग में वैसे भी अर्धशहरी वोटरों का रसूख बीते कुछ चुनावों से बढ़ा है।

शहरीकरण के विस्तार के साथ देश का एक बड़ा हिस्सा अर्द्धशहरी क्षेत्र में तब्दील हो गया है। विश्लेषकों एवं राजनीतिक दलों ने ऐसे ग्रामीण एवं शहरी छाप लिए मतदाताओं की बड़ी संख्या को आगामी चुनाव में निर्णायक माना है। राजनीतिक दल इस वर्ग को अपनी रणनीति में महत्व दे रहे हैं। इस वर्ग में वैसे भी अर्धशहरी वोटरों का रसूख बीते कुछ चुनावों से बढ़ा है।
यदि देश के दो प्रमुख दलों कांग्रेस और बीजेपी को पिछले साल मिले वोटों को देखें तो इनके बीच अंतर जरूर था, लेकिन इनमें अर्धशहरी वोटर की भूमिका काफी निर्णायक रही। ये वर्ग ऐसा है जो मतदान केंद्रों पर अब बड़ी संख्‍या में उमड़ रहा है। पिछले आम चुनाव में भाजपा को 114 सीटें और 19.8 फीसद वोट मिला था यानी भाजपा 1991 के दौर में पहुंच गई थी। कांग्रेस को उसके मुकाबले करीब नौ प्रतिशत वोट ज्यादा मिले लेकिन सीटें 206 आर्इं। साफ है कि वोट प्रतिशत बढ़ने से कांग्रेस की सीटें जितनी रफ्तार से बढ़ती हैं वैसा भाजपा के साथ नहीं होता। बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्‍मीदवार नरेंद्र मोदी को इन आंकड़ों पर भी ध्यान देना होगा।
वहीं, साल 1998 के मुकाबले देश में क्षेत्रीय दल और मजबूत हुए हैं। बंगाल में ममता बनर्जी, ओड़िशा में नवीन पटनायक, उत्तर प्रदेश में सपा या बसपा, तमिलनाडु में जयललिता या करुणानिधि के साथ-साथ हमें अब आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी दिख रहे हैं। इनमें से जयललिता को छोड़ बाकी मोदी के साथ जाते दिख नहीं रहे हैं।
एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा कि भारत में चुनावी प्रक्रिया सन 1952 से चली आ रही है। हर पांच साल पर चुनाव होते हैं और लोगों को अपना मत व्यक्त करने का मौका मिलता है। समय के साथ चुनावी परिदृश्य बदला है और अब शहर एवं गांव के बीच मतदाताओं का ऐसा वर्ग उभरा है जो न तो पूर्ण रूप से गांव से जुड़ा है और न ही पूरी तरह से शहर से। उन्होंने कहा कि ग्रामीण एवं शहरी छाप लिए इन मतदाताओं की बड़ी संख्या इस लोकसभा चुनाव में निर्णायक रहेगी। विश्लेषकों का मानना है कि यह नई श्रेणी बेहद शक्तिशाली है जो न सिर्फ बाजार और अर्थव्यवस्था की दिशा तय कर रही है बल्कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कई दलों की तकदीर को बना बिगाड़ सकती है।
अर्द्धशहरी क्षेत्र विकास की धारा में ‘नो मैंस लैंड’ की तरह है जहां रहने वाले लोग न तो शहरों के होते हैं और न ही गांव के। इस अर्द्धशहरी क्षेत्र के मतदाताओं की बड़ी संख्या चुनाव में महत्वपूर्ण होगी। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र के लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है । व्यवहारिक तौर पर इस क्षेत्रके लोग शहरों के होते हैं जबकि सैद्धांतिक रूप से ये गांव से होते हैं। इस क्षेत्र के लोगों की समस्याओं पर सरकार एवं योजना आयोग के स्तर पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है।
हालांकि पहले की कुछ सरकारी योजनाओं में गांव को दरकिनार किया जा रहा है, इसके फलस्वरूप लोगों का गांव से पलायन हो रहा है। शहरों में स्थान की कमी के कारण इसका विस्तार हो रहा है। कई कस्बों ने छोटे शहरों का रूप ले लिया है, कई स्थानों पर ऐसे कस्बों को शहर का दर्जा भी मिला है लेकिन इन छोटे शहरों में बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। उन्होंने कहा कि आगामी चुनाव में ऐसे अर्द्धशहरी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों और इस क्षेत्र के मतदाताओं की चुनाव परिणाम पर महत्वपूर्ण असर रहेगा। इन क्षेत्रों की समस्याएं चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सकती हैं।
चुनावी समर में नई पार्टी ‘आप’ ने भी इस वर्ग को ध्यान में रखते हुए अपनी रणनीति तैयार की है। इन अर्द्धशहरी क्षेत्रों में आप ने सदस्यता अभियान चलाया है। विशेषज्ञों के मुताबिक, देश की 2001 की जनगणना के अनुसार करीब 5000 शहर थे। इनमें से 1200 शहरों का चरित्र अर्द्धशहरी था। एक दशक बाद 2011 में ऐसे शहरों की संख्या 8000 हो गई जिनमें करीब आधे अर्द्धशहरी चरित्र के थे। लोकसभा चुनाव के लिहाज से करीब 125 सीटें ऐसी मानी जा रही हैं जिनका चरित्र अर्द्ध शहरी है। देश की 1.21 अरब जनसंख्या में 83.3 करोड़ लोग गांव में रहते हैं और 37.7 करोड़ लोग शहरों में रहते हैं। ऐसे में यह तबका चुनावों के नतीजों में काफी निर्णायक साबित हो सकता है।

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