मौकापरस्त दलों की एकजुटता

राष्ट्रीय राजनीति में गैर भाजपा-गैर कांग्रेस सरकार का विकल्प देने के लिए एकजुट हुए 11 राजनीतिक दलों का असली स्वरूप और ताकत लोकसभा चुनावों के बाद ही नजर आएगा।

आलोक कुमार राव
राष्ट्रीय राजनीति में गैर भाजपा-गैर कांग्रेस सरकार का विकल्प देने के लिए एकजुट हुए 11 राजनीतिक दलों का असली स्वरूप और ताकत लोकसभा चुनावों के बाद ही नजर आएगा। लेकिन इन दलों के इतिहास को देखते हुए इस बात की आशंका बराबर बनी रहेगी कि चुनावों के बाद सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए क्या ये दल भाजपा अथवा कांग्रेस के साथ नहीं जाएंगे। चुनावी समर में उतर चुके ये दल कांग्रेस की नीतियों को देश हित के खिलाफ और भाजपा को सांप्रदायिक बताकर जनता से अपने लिए वोट मांग रहे हैं। लेकिन यह बात याद रखनी होगी कि कांग्रेस की नीतियों को देश हित के खिलाफ बताने वाले वाम दल और सपा अपनी सुविधा और फायदे के लिए कांग्रेस नीत यूपीए सरकार को अपना समर्थन देते आए हैं। तो दूसरी ओर भाजपा को सांप्रदायिक बताने वाले जद-यू और बीजद जैसे दल राजग सरकार का हिस्सा रह चुके हैं। यानी सत्ता सुख के लिए ये दल अपनी नीतियों से समझौता कर जनता से दगाबाजी करने में इन दलों को कोई संकोच नहीं रहा है।
सवाल है कि राजनीति में तीसरा विकल्प देने का दावा करने वाले ये दल चुनाव के निकट आने पर ही नींद से क्यों जागते हैं। विपक्ष या सत्ता में रहते हुए ये दल तीसरे विकल्प के प्रति जनता में भरोसा क्यों नहीं पैदा कर पाते। आप पार्टी जैसे नए राजनीतिक दल का उभार बताता है कि देश के राजनीतिक परिदृश्य में तीसरे विकल्प की जरूरत है।
पिछले कुछ सालों में वाम दल और क्षेत्रीय पार्टियों की जो गति और मति रही है उससे लोगों में निराशा आई है। बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से आम जनता त्रस्त हुई है जिसकी कीमत कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनावों में चुकाने जा रही है। इन्हीं मुद्दों को लेकर आप पार्टी ने दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस की बाजी पलट दी। आम जनता के समक्ष बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार सबसे बड़े और अहम मुद्दे हैं। चूंकि वाम दल शोषितों, वंचितों और मजदूरों के हितों की लड़ाई लड़ने का दावा करते हैं और क्षेत्रीय दलों के मुकाबले में उनकी राष्ट्रीय, आर्थिक और विदेश नीति व्यापक मानी जाती है। फिर भी वाम दल इस सुनहरे अवसर को अपने पक्ष में नहीं कर पाए। वाम दलों की विफलता ने जो राजनीतिक शून्य पैदा किया है, उस शून्य में आप पार्टी को जमीन मिली है।
कथित तीसरा मोर्चा क्या नया राजनीतिक विकल्प दे पाएगा यह एक बड़ा प्रश्न है क्योंकि इन ग्यारह दलों में जयललिता को छोड़कर किसी अन्य दल को ज्यादा फायदा होने जा रहा है, ऐसा उम्मीद दिख नहीं रही है। वाम दलों की हालत दिनोंदिन खराब हुई है तो क्षेत्रीय दलों में सपा के प्रदर्शन का ग्राफ अखिलेश सरकार में नीचे गिरा है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के बाद अखिलेश सरकार ने शासन के स्तर पर अच्छा काम किया होता तो विस चुनावों जैसी सफलता की उम्मीद लोकसभा चुनावों में की जा सकती थी लेकिन पिछले दो सालों में सपा सरकार कई मोर्चों पर घिरी है और शासन-व्यवस्था को लेकर उसकी काफी आलोचना हुई है।
महत्वाकांक्षा को यदि पीएम बनने का पैमाना माना जाए तो सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव सबसे आगे दिखेंगे। अपनी इस महत्वाकांक्षा को मुलायम सिंह कई मौकों पर जाहिर कर चुके हैं लेकिन उनकी पीएम बनने की महत्वाकांक्षा पूरी हो पाएगी कि नहीं यह उत्तर प्रदेश में आने वाले उनकी सीटों पर ही निर्भर करेगा। किसानों को दी गई बिजली, सिंचाई आदि की मुफ्त सुविधाओं का सही ढंग से अमल न हो पाना, छात्रों लैपटाप के बारे में विवादित सूचनाएं, बेरोजगारी भत्ता देने में कथित पक्षपात, मुजफ्फरनगर दंगे की छाया एवं शासन-व्यवस्था की लचरता के बीच विपक्ष के हमलों के बीच सपा को अपनी लोकसभा की सीटें बढ़ाने की चुनौती है। यह आसान काम नहीं है। टिकट बंटवारे को लेकर भी सपा में काफी घमासान है।
तो बिहार में भाजपा से अलग हो जाने के बाद नीतीश कुमार की राजनीतिक जमीन कमजोर हुई है। पासवान और कुशवाहा के भाजपा के साथ आने और मोदी प्रभाव के आगे जद-यू को अपनी सीटें बचाने की चुनौती है। चुनावी सर्वेक्षणों की मानें तो इस बार के चुनाव में जद-यू को भारी नुकसान होने जा रहा है। बीजू जनता दल शुरू से ही मौकापरस्त रहा है। नवीन पटनायक समय-समय पर एनडीए और यूपीए के साथ खड़े होते आए हैं। झारखंड विकास मोर्चा व असम गण परिषद की बात करें तो झारखंड विकास मोर्चा का वजूद अब तक वहां झारखंड मुक्ति मोर्चा, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बराबर त्रिकोणीय मुकाबले ने बनने ही नहीं दिया है। असम गण परिषद मौका मिलने पर किसी भी गठबंधन में शामिल हो सकता है।
कहने का मतलब है कि तीसरे मोर्चे के गठन की पहल करने वाले दल अपने भविष्य को लेकर सशंकित हैं या यह कहें कि अपने भविष्य के विकल्प खुले रखे हैं। चुनाव बाद हर बार की तरह इस बार भी ये दल अपना-अपना रास्ता यदि तय कर लें तो इस पर किसी को अचरज नहीं होना चाहिए।

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