डियर जिंदगी : कितना सुनते हैं!
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डियर जिंदगी : कितना सुनते हैं!

जब हमें गुस्‍सा दिलाने के लिए अब शब्‍दों की जगह आंख भर से काम हो जाए तो हमें समझना होगा कि हम कितने गंभीर स्‍तर पर पहुंच गए हैं! हम अंदर से इतने उबल रहे हैं कि ‘तापमान’ में जरा सा बदलाव हमारे गुस्‍से को ज्‍वालामुखी में बदल देता है.

डियर जिंदगी : कितना सुनते हैं!

हम एक दूसरे को कितना सुन रहे हैं! सुनना तो दूर हम अनसुना करने के नए ‘रिकॉर्ड’ बनाते जा रहे हैं. ऐसा क्‍या है, जो हमें सुनने से दूर करता है. हम सबसे प्रिय सखा, मित्र, अभिभावक सबको सुनने से दूर निकलते जा रहे हैं. हम खुद अपने को कितना सुन पा रहे हैं, इस बारे में भी मन के भीतर बहुत दुविधा है.

इस अनसुने का कारण क्‍या है?

शोर! कोलाहाल. अशांति. 

हमारे आसपास दो तरह की आवाजों का शोर बढ़ता जा रहा है. पहला- बाहरी. दूसरा- आंतरिक! हम बाहरी शोर से तो सजग रहते हैं, लेकिन अंतर्मन का शोर न जाने कब मन के भीतर बढ़ता जाता है और हमें इसका अंदाजा भी नहीं होता. हम ‘बाहर-बाहर’ के पीछे भागते रहते हैं, जबकि भीतर ही भीतर भारी शोर इकट्ठा होता रहता है. यह शोर जैसे ही अपनी सीमा पार करता है, उसका असर हमारे जीवन पर गहरा दिखने लगता है!

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अपने नजदीक, अपनी कॉलोनी, ऑफिस, परिवार में ऐसे व्‍यक्ति मिल जाएंगे, जो किसी की सुनते नहीं. ऐसा नहीं कि वह इनकार करते दिखेंगे, लेकिन वह चीजों को स्‍वीकार करते नहीं दिखते. जरा सी असुविधा उनके भीतर इतनी अस्थिरता बढ़ा देती है कि उसका परिणाम हमें अक्‍सर हिंसा के विविध रूपों में दिखने लगता है.

छोटे बच्‍चे अक्‍सर बताते हैं कि उनके माता-पिता उन्‍हें ‘सुनते’ ही नहीं. बात-बात पर डांटने लगते हैं. छोटी-छोटी चीजों पर पीटने लगते हैं. घर में काम करने वाले घरेलू सहायक\सहायिका बताते हैं कि कैसे साहब\बीबी जी जरा-जरा सी बात पर भड़कने लगते हैं! मारपीट पर उतर आते हैं. इसकी अगली कड़ी घरेलू हिंसा के रूप में भी सामने आती है.

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हम चेतना के स्‍तर पर ‘गूगल मैप’ होते जा रहे हैं. यह मैप आपको घर, ऑफि‍स पहुंचने का सर्वोत्‍तम रास्‍ता नहीं दिखाता, बल्कि सबसे जल्‍दी पहुंचने वाला बताता है. जबकि हो सकता है, दो मिनट के अंतर से आप उस रास्‍ते को छोड़ रहे हैं, जो कहीं बेहतर है. जिस पर गाड़ी चलाना, सफर करना अधिक सुविधाजनक है.

कितनी मजेदार बात है कि हम कहीं आते-जाते एक-एक मिनट के लिए मैप पर नजरें गड़ाए रहते हैं, जबकि दूसरी ओर दिनभर में हम न जाने कितने मिनट यूं ही लुटाते रहे हैं. उनकी गणना हमारे दिमाग में कभी नहीं गूंजती. इस ‘जल्‍दी’ ने हमारे बहुत से ‘सुख’ सोख लिए हैं.

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दूसरों को न सुनने की एक वजह यह भी है कि हम भीतर से भरते जा रहे हैं. यह भरना जब खतरनाक स्‍तर पर पहुंच जाता है तो जरा सी बात पर तनाव पैदा हो जाता है. हमारी गाड़ी को कोई यूं ही ओवरटेक कर ले तो अचानक हमारे भीतर गुस्‍से, हिंसा का भाव प्रबल हो जाता है. कई बार हमें सड़क पर चल रहे दूसरे वाहन चालक की आंखों का भाव तक क्रोधित कर जाता है!

जब हमें गुस्‍सा दिलाने के लिए अब शब्‍दों की जगह आंख भर से काम हो जाए तो हमें समझना होगा कि हम कितने गंभीर स्‍तर पर पहुंच गए हैं! हम अंदर से इतने उबल रहे हैं कि ‘तापमान’ में जरा सा बदलाव हमारे गुस्‍से को ज्‍वालामुखी में बदल देता है. 

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अपने गुस्‍से, ‘भीतर’ बढ़ते शोर को संभालना होगा. थोड़ा ठहरकर चीजों को देखने, सुनने और समझने की आदत विकसित करनी होगी. यह बेकाबू होता गुस्‍सा, शोर कहीं किसी दिन हमारी जिंदगी में इतना तनाव न पैदा कर दे कि उससे दूसरे तो दूर हमारे जीवन का सुख, शांति, गहरी चिंता, उदासी में तब्‍दील हो जाए.

इसलिए, अपने गुस्‍से, शांति की हर दिन समीझा करें. गुस्‍से को कम करने और शांति को बढ़ाने की ओर बढ़ें. 

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