स्कूल सपनों की फैक्ट्री बन गए हैं, जहां से टॉपर्स, होनहार बच्चे पैदा करने का दावा कुछ इस अदा से किया जाता है कि हम उनके मायाजाल में सहज उलझते जाते हैं.
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सपने देखना सहज, सरल, सरस आदत है. बचपन से ही हमें सिखाया जाता है कि तय करो क्या बनना है. इधर कुछ बरस में तो अजब-गजब स्कूल खुल गए हैं. जो बच्चे के जन्म से पहले, जन्म के तुरंत बाद और नर्सरी में पहुंचने से पहले ही उसके ‘गुणों’ की खोज में जुट गए हैं. यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि हम अपने बच्चों के बहाने अपने ख्वाब को चांद पर ले जाने की आरजू रखते हैं!
बच्चे से अधिक तनाव में माता-पिता हैं, क्योंकि उन्हें एक ही चिंता है कि कहीं उनका बच्चा पिछड़ न जाए. वह कहीं पीछे न रह जाए, उस दौड़ में जहां से अनगिनत बच्चों से मुकाबला करना है. सुपरिचित डॉक्टर मित्र ने बताया कि इन दिनों महिलाओं में चिंता, तनाव और चिड़चिड़ेपन का बच्चों के रिपोर्ट कार्ड से गहरा संबंध है. यहां तक कि अनिद्रा, चिंता मिलकर थाइराइड बढ़ाने का काम कर रही हैं.
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सपने दो तरह के हैं. एक वह जो आप अपने लिए निजी तौर पर देखते हैं. आपकी नौकरी कैसी हो. आपको उसके बदले मिलने वाला स्टेटस, रकम कैसी हो!
दूसरा, वह जो आप अपने बच्चों के ‘बहाने’ देखते हैं. आपका बच्चा कुछ ऐसा कर जाए, जो पड़ोसी, ‘दूर’ गांव का बच्चा सोच भी न पाए. उसके लिए जतन करते हैं.
पहले वाला तो बहुत हद तक नियंत्रित है. क्योंकि वह आपकी क्षमता पर निर्भर करता है. जिसका कुछ ही दिनों में आपको पता चल जाता है. अब यह और बात है कि आप खुद को ही भ्रम में रखें. केवल कल्पना लोक में विचरण करते रहें, तो इससे बस तनाव के बादल जिंदगी पर मंडराएंगे, होगा कुछ नहीं!
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इस समय समाज में पहले से कहीं अधिक दूसरे सपने का संकट गहराया हुआ है. ‘डियर जिंदगी’ में हम निरंतर स्कूल की शिक्षा, संस्कार, रवैए पर सवाल करते रहे हैं.
स्कूल सपनों की फैक्ट्री बन गए हैं, जहां से टॉपर्स, होनहार बच्चे पैदा करने का दावा कुछ इस अदा से किया जाता है कि हम उनके मायाजाल में सहज उलझते जाते हैं.
स्कूल चार साल से ही बच्चे के दिमाग पर अपनी सोच थोपने का काम कुछ इस चतुराई से करने लगते हैं कि अच्छे, भले, समझदार अभिभावक इसकी चपेट में आने से नहीं बच सकते.
वह बहुत जल्द बच्चे के खराब होते भविष्य के भंवर में डूबने-उतराने लगते हैं. वह भूल जाते हैं कि ‘चीजों’ को बड़ा होने में वक्त लगता है.
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यह लेख मुंबई से लिखा जा रहा है. सोमवार की शाम मुझे उस शिवाजी पार्क में ‘नेट्स’, मैदान में कुछ वक्त बिताने का समय मिला, जहां सैकड़ों बच्चों के बीच कभी ‘भारत रत्न’ सचिन तेंदुलकर ने अपने अथक ‘रियाज’ से न जाने कितनी सुबह, दोपहर और शाम को लुभाया था.
हम भारतीय क्रिकेट का अलाप तो करते रहते हैं, लेकिन खेल से जिंदगी में कुछ सीखते नहीं. खेल को निखरने, संवरने में जो धैर्य, निष्ठा चाहिए, उसका दस प्रतिशत भी जीवन में उतर आए तो यह सपनों के तूफान हमें डरा नहीं सकते.
चिंता क्या होती है, उस नाविक से पूछिए, जिसकी नौका तूफान में फंसी होती है. वह चिंतित होने की जगह प्रयास में जुटा रहता है, जो वह कर सकता है, करता है. शेष वह नियति पर छोड़ देता है.
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दूसरी ओर शहरी, मध्यमवर्गीय, नौकरीपेशा समाज ‘बच्चों के बहाने’ अपने सपनों को लेकर इतना कुंठित होता जा रहा है कि वह अपने साथ, उनके जीवन पर भी अनजाने में ‘ग्रहण’ लगा रहा है.
सपनों के पीछे अगर समझ की सही आंच नहीं होगी तो वह बिखर जाएंगे. उनका बिखरने के बीच खुद को संभालना बहुत मुश्किल होता है. इसलिए जितना संभव हो सपने बुनते समय खुद को अधिक से अधिक सहज, यथार्थवादी, ठोस बनाया जाए. इसके साथ ही सपने को सही आंच पर चढ़ाया जाए. इससे जीवन का स्वाद बना रहेगा!
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