डियर जिंदगी : सुखी होने को क्‍या चाहिए…
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डियर जिंदगी : सुखी होने को क्‍या चाहिए…

भारत का सबसे बड़ा रोग यही है, ‘लोग क्‍या कहेंगे.’ जबकि लोग अक्‍सर कुछ नहीं कहते. जिसके पास आपके दुख में खड़े होने की शक्ति नहीं, उसके कहने से हम इतना क्‍यों डरते हैं.

डियर जिंदगी : सुखी होने को क्‍या चाहिए…

उनसे बात करके यह पता लगाना मुश्किल है कि वह कितने आनंद में हैं. उनका चेहरा लगभग भावहीन होता है. जिस मिजाज के किरदार की ओर मैं यहां इशारा कर रहा हूं, ऐसे कई लोगों से आप भी कभी न कभी टकराए ही होंगे! ऐसे लोग हमारे घर, परिवार, मित्र मंडली कहीं भी हो सकते हैं. 

ऐसे लोग अक्‍सर मल्‍टीनेशनल कंपनियों के बहुत काम के होते हैं. लेकिन समाज, परिवार और अपने लिए वह कितने सुखी होते हैं. इस बारे में कहना एकदम मुश्किल नहीं है. 

अगर आप सुखद चीजों से प्रसन्‍न नहीं होते. खिलखिलाकर हंसते नहीं. किसी बात से परेशान होकर चिंतित नहीं होते, तो इसके मायने हमेशा यह नहीं होने चाहिए कि आप तो बड़े स्थिरप्रज्ञ अथवा ठहरे हुए चित्‍त के हैं. 

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हम अनुभव के साथ मैच्‍योरिटी की ओर बढ़ते हैं, लेकिन अक्‍सर देखा गया है कि यह मैच्‍योरिटी हमारे व्‍यक्तित्‍व को खंडित, बाधित कर देती है. हम सहज हंसना, रोना भूल जाते हैं. जबकि इसकी भारी कीमत हमें बीमार तन और मन दोनों के रूप में चुकानी पड़ती है. 

ग्‍वालियर से ‘डियर जिंदगी’ के पाठक रमेश त्रिपाठी लिखते हैं कि वह एक ऐसे बॉस के सानिध्‍य में लगभग बीस बरस तक रहे, जो ऑटोमैटिक मशीन की तरह थे. उनके सुख-दुख का सारा मीटर कंपनी से तय होता था. 

इसका असर यह हुआ कि उनका स्‍वभाव भी काफी हद तक बॉस जैसा हो गया. उनके स्‍वभाव से सहजता का गुण जाता रहा. धीरे-धीरे वह जिंदगी से जुड़े सामान्‍य फैसले करने की क्षमता भूलने लगे. 

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मजेदार बात यह रही कि इस दौरान वह निरंतर कंपनी के लिए उपयोगी होते गए, क्‍योंकि वह अपनी ‘समझ’ को भुलाकर प्रबंधन के निर्णय को माथे से लगाए बैठे रहे. ऐसा नहीं कि उनके पास फैसले करने का वक्‍त नहीं था, लेकिन उन्‍होंने जोखिम की जगह एक जगह टिके रहने का ‘सुख’ चुना. 

हम जैसा चुनते हैं, उसकी वैसी ही कीमत हमें चुकानी पड़ती है. हम अनजाने में अक्‍सर ‘निर्णय’ को टालते रहते हैं, क्‍योंकि हमें तेजी से निर्णय लेना और उसकी जिम्‍मेदारी लेना कभी नहीं सिखाया गया. 

भोपाल में हमारे एक सुपरिचत हैं. उनके दो बेटे हैं. दोनों की उनसे नहीं बनती. संपत्‍त‍ि अभी बुजुर्ग दंपति के नाम पर ही है. बस, इसलिए ही उनको वहां से बच्‍चे बेदखल नहीं कर सकते. 

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एक ही घर में तीन रसोई हैं. इसमें भी कोई बुराई नहीं, लेकिन बच्‍चे बुजुर्ग माता-पिता को दो पैसे की मदद दो दूर, हार्ट अटैक आने पर तुरंत इलाज कराने तक को तत्‍पर नहीं होते. दोनों बुजुर्ग दुखी हैं, लेकिन वह अपने बच्‍चों को अपनी संपति से बेदखल करने का निर्णय नहीं लेते... 

क्‍योंकि, सबसे बड़ा डर उनके दिल में यह बैठा है कि लोग क्‍या कहेंगे! असल में यह डर नहीं रोग है. भारत का सबसे बड़ा रोग यही है, ‘लोग क्‍या कहेंगे.’ जबकि लोग अक्‍सर कुछ नहीं कहते. जिसके पास आपके दुख में खड़े होने की शक्ति नहीं, उसके कहने से हम इतना क्‍यों डरते हैं. 

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रिश्‍ते में स्‍नेह, प्रेम और आत्‍मीयता सबसे बुनियादी चीजें हैं. इनका हर हाल में ध्‍यान रखना चाहिए. लेकिन ‘अपनी’ कीमत पर नहीं. किसी भी रिश्‍ते को बचाने की पूरी कोशिश हाोनी चाहिए, लेकिन वहीं तक जहां तक उसमें आप बचे रहें. 

जहां जाकर आपको लगने लगे कि अब सफर के मोड़ पर आपका दूसरी ओर ‘मुड़’ जाना सही है, आपको उसके बारे में फैसला करना ही होगा. 

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चीजों को टालिए नहीं. जीवन अनंत नहीं है. इसलिए अपने समय, सुख और प्रेम के प्रति सजग, स्‍नेहिल और निर्णायक बनिए.

ईमेल : dayashankar.mishra@zeemedia.esselgroup.com

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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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