‘इस बरस आपके मन के तार उन सबसे जुड़े रहें, जिन्हें आप प्रेम करते हैं. जो आपको स्नेह करते हैं. उनकी आत्मीयता, स्नेहन के आंगन में आपको जिंदगी के सबरंग मिले!’
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नए बरस की किरण, धूप के बीच जब आप इसे पढ़ रहे होंगे, आपका मन शुभकामना के बीच तैर रहा होगा. आप सब तरफ से व्यस्त भी होंगे, ऐसे में डियर जिंदगी की शुभकामना है कि ‘इस बरस आपके मन के तार उन सबसे जुड़े रहें, जिन्हें आप प्रेम करते हैं. जो आपको स्नेह करते हैं. उनकी आत्मीयता, स्नेहन के आंगन में आपको जिंदगी के सबरंग मिले!’
प्रख्यात कवि कुंवर नारायण के ताजा कविता संग्रह ‘सब इतना असमाप्त’ से गुजरते हुए कुछ इतनी शानदार कविताएं, भावनाएं मिलीं, जिनके बखान के लिए ‘डियर जिंदगी’ के अनेक अंक लग जाएं तो भी कम हैं. फिलहाल कुछ कोमल भावनाओं अनुभवों से मित्रता की जाए.
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कविता ‘आवाजें’ की यह कोमलता मानों जिंदगी से छिटक गई है. क्या है, जो हमें एक-दूसरे से जोड़ता है! बिन चिट्ठी, बिन तार! एक-दूसरे तक संदेश पहुंचाने वाले समाज को एक-दूसरे से जोड़ने वाले तार किसी ‘गठान’ के कारण अपने संवाद से भटक गए. कवि कहता है...
‘सूक्ष्म कड़ियों की तरह
हमें एक दूसरे से जोड़ती हुई
अदृश्य श्रृंखलाएं!
जब वे नहीं रहतीं तो भरी भीड़ में भी
हम अकेले होते चले जाते हैं.’
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हमारे भीतर की सूक्ष्म कड़ियों से ही जीवन को वह ऊर्जा मिलती थी, जिससे हम मुश्किल से मुश्किल वक्त का सामना हंसते हुए कर लेते थे. एक-दूसरे के लिए जीते हुए, एक-दूसरे के बताए बिना!
अब जब दुनिया टेलीफोन से बहुत आगे निकल आई. हमारे बीच में अव्यक्त भावनाओं की पोटली क्यों है! मन का गुबार कहीं निकलता क्यों नहीं. जिस मनभेद, अबोले को कोई घर में बैठने को न कहता, वह पांव पैसारे बैठा है.
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यह इसलिए हुआ क्योंकि हमने अपने दायरे छोटे कर लिए. स्वयं को हमने केवल अपने होने से बांध लिया. जब खुले आंगन में दौड़ने वाले बच्चे को फ्लैट में दौड़ने को कहा जाता है तो उसकी जो मनोदशा होती है, कुछ वैसे ही हमारी हो रही है.
हरे-भरे, संयुक्त परिवार से बच्चे जब एकाकी जीवन में अपनी जिंदगी को आकार देने लगे, तो उनके भीतर स्नेह, आत्मीयता की नदी धीरे-धीरे सूखने लगी. कुछ हवा उसे अनियंत्रित महत्वाकांक्षा से मिली तो आग उसमें बाजार की मखमली ख्वाहिशों ने लगाई.
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इनके फेर में सबसे अधिक नुकसान उस सूक्ष्म भावना का हुआ, जिनके अदृश्य तार से हम जुड़े हुए थे. हमारे समाज की मूल संरचना जिसमें सबकी मंगलकामना थी, वह धीरे-धीरे ध्वस्त होती जा रही है. पहले संयुक्त परिवार में विवाद होने पर बच्चों को उससे दूर रहने को कहा जाता था. अक्सर हम देखते थे कि मां-चाची, चचेरे, ममेरे रिश्तों में जमकर तकरार होती लेकिन बच्चों के कोमल मन से कोई यह न कहता कि तुम्हारे बड़े\छोटे पिताजी खराब हैं. बच्चों को कोई पट्टी पढ़ाने का चलन कम ही दीखता था.
जबकि आज हम देखते हैं, रिश्तों में ज़रा सी खटास पड़ते ही हम बड़े बच्चों को उपकरण(टूल) की तरह इस्तेमाल करने लगते हैं. ऐसा करते समय वह भूल जाते हैं कि वह बगिया के रास्ते में कांटे लगा रहे हैं. वह कांटे सबसे अधिक उनको ही चुभने वाले हैं. दूरियों से कभी रिश्ते नहीं बिगड़ते! दूरी से तो चीज़ों को ठीक होने का नैसर्गिक समय मिल जाता है. रिश्ते बिगड़ते हैं, उन मन की भावनाओं के दरकने से, जिनकी ओर हमारे प्रिय कवि ने स्पष्ट संकेत किया है.
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आइए, इस ‘नए’ बरस दूसरों से पहले अपने मन, भावना, विचार को यथासंभव कोमल, उदार, सहिष्णु बनाने की ओर बढ़ें.
‘डियर जिंदगी’ कुछ और नहीं बस, जीवन की शुभकामना है!
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