दिमाग के अनसुलझे, कुलबुलाते सवाल जब उत्तर तक नहीं पहुंचते, तो वह हमारी धमनियों में दौड़ रही रक्त कणिकाओं में मिलकर जीवन ऊर्जा को सोखने के काम में जुट जाते हैं.
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घर का काम कितना आसान, कितना मुश्किल है, इस पर जितनी बहस हो सकती है, उससे तीन गुना अधिक लिखा जा सकता है. जितना लिखा जा सकता है, उससे तीन गुना अधिक दिमाग में 'उबलता' रहता है. जिंदगी को तनाव, गुस्से, अवसाद की ओर बहस नहीं ले जाती, मतभेद नहीं ले जाते. उसे गहरी उदासी की ओर सबसे अधिक रिश्तों का उलझाव, दिमाग के अनसुलझे सवाल ले जाते हैं!
दिमाग के अनसुलझे, कुलबुलाते सवाल जब उत्तर तक नहीं पहुंचते, तो वह हमारी धमनियों में दौड़ रही रक्त कणिकाओं में मिलकर जीवन ऊर्जा को सोखने के काम में जुट जाते हैं.
यह 'डियर जिंदगी' का 400वां अंक है. अब तक मिले सभी सुझाव, आग्रह, संवाद को अगर हम आधार बनाकर सवालों की ओर देखें तो हम पाते हैं, कि 'घर का काम' हमेशा दंपति के बीच मनमुटाव, मनभेद का कारण रहता है.
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पति समझते हैं कि उनके ऑफिस जाने के बाद पत्नी के पास करने को कुछ नहीं होता. बच्चे खुद संभल जाते हैं. बच्चे एक उम्र के बाद खुद को संभालने लगते हैं. पत्नी के पास खूब वक्त है, जिसका उपयोग टेलीविजन, नींद और गप्प के लिए किया जाता है. बड़ी संख्या में पुरुष यह भी मानते हैं कि वह दिनभर तमाम जटिल मसलों को सुलझाने में लगे रहते हैं. वह कहीं अधिक मानसिक, शारीरिक परिश्रम में होते हैं.
यह तो ऐसे दंपति की कहानी हुई, जहां कोई एक व्यक्ति है जो काम पर नहीं जाता. लेकिन अब ऐसे दंपति के सवाल भी हमें देखने हैं, जहां दोनों ही कामकाजी हैं! दोनों लगभग एक तरह के प्रोफेशन में हैं. एक जैसी स्थितियों का सामना करते हैं. उसके बाद भी घर के सभी कामकाज महिला सदस्य के भरोसे छोड़ दिए जाते हैं. यह मानते हुए कि घर को संभालने का काम तो महिला का है.
इस मनोदशा के मूल में हमारी वह सोच है, जिसने घर को केवल स्त्री से जोड़ा. इसके कारणों की सूची में मानव विज्ञान, शरीर विज्ञान से लेकर समाज निर्माण की लंबी श्रृंखला है. यह एक मायने में आदि मानव से लेकर 'आधुनिक' समय के सफर से जुड़ा मनोविज्ञान है.
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कुछ समय पहले रेल में सफर के दौरान मुझे एक दिलचस्प दंपति मिले. उन्होंने बहुत ही प्रखर तरीके से बेटियों की शिक्षा, भविष्य पर विचार रखे. इसी दौरान उन्होंने बताया कि वह अपने बेटे के लिए बहू देखने गए थे. लड़की सुशिक्षित, बैंक मैनेजर थी. बेटा भी बैंकिंग सेक्टर में है. इसलिए वह मप्र के जबलपुर से दिल्ली रिश्ते के लिए आए थे.
उन्होंने बताया, 'सबकुछ अच्छा था, लेकिन लड़की की जिद के कारण बात नहीं बनी.'
मैंने कहा, पूरी बात कहिए.
बुजुर्ग दंपति ने कहा, 'हमें सबकुछ मंजूर था, लेकिन हमारी बस एक ही इच्छा थी. घर में दूसरी चीजों के लिए तो सहायक हो सकते हैं, लेकिन खाना तो बहू को ही बनाना होगा! लड़की ने इससे यह कहते हुए इंकार कर दिया कि यह संभव नहीं है. बैंक में वरिष्ठ पद पर होने के कारण आने-जाने का समय बदलता रहेगा. ऐसे में यह कैसे संभव है कि खाना बनाने के लिए हमेशा उसका इंतजार किया जाए! इसके साथ यह भी कि ऑफिस से देर शाम, रात लौटने के बाद उससे यह अपेक्षा कैसी रखी जा सकती है!'
दंपति का परिचय. पति सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं. पत्नी अभी बैंक में क्लर्क हैं. पति इस बात पर आश्चर्य जता रहे थे कि जब उनकी पत्नी ने जिंदगी पर स्वादिष्ट रोटियां खिलाने का दायित्व निभाया, तो उनकी भावी बहू को यह करने में हिचक क्यों होनी चाहिए.
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हम कहां से कहां पहुंच गए. बैंक खुद सरकारी से निजी होने की कगार पर पहुंच गए! समाज, शिक्षा में लड़कियों की हिस्सेदारी कहां से कहां पहुंच गई, लेकिन जिन्हें हम अपना संरक्षक मानते हैं, उनकी सोच, व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं!
इस सोच का जब युवा सपनों के साथ संघर्ष होता है, तो उससे घर में तनाव, उदासी, कभी न खत्म होने वाली बहस का सिलसिला शुरू हो जाता है. जिसका कोई अंत नहीं!
घर सबका है. अब यह कहने से काम नहीं होने वाला. सोशल मीडिया और सबके सामने गप्प हांकने के दिन अब हवा हुए. रिश्तों की स्वस्थ, लंबी उम्र के लिए जरूरी है कि 'नए जमाने में दंपति के बीच, घर के दायित्व' भी नए सिरे से बांटे जाएं.
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घर दोनों का है. इसे मन में गहरे उतारे बिना किसी दूसरी बात का कोई मोल नहीं. 'रिश्ता और घर' दोनों अब नए अर्थ तलाश रहे हैं. हमें बदलना होगा, उनके लिए जिनके लिए हमारी जिंदगी सबसे अनमोल है.
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