डियर जिंदगी : रिश्‍ते की ‘कस्‍तूरी’ और हमारी खोज!
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डियर जिंदगी : रिश्‍ते की ‘कस्‍तूरी’ और हमारी खोज!

तय करिए कि हमारा स्‍नेह, प्रेम और आत्‍मीय उस मोबाइल, गैजेट्स के लिए है, जिसे हमने बनाया है या उनके लिए है, जिन्‍हें हमने बनाया है. जिनसे हम बने हैं!

डियर जिंदगी : रिश्‍ते की ‘कस्‍तूरी’ और हमारी खोज!

आप किसी ऐसी चीज़ का नाम बता सकते हैं, जो जिंदगी का पर्यायवाची हो! संभवत: नहीं, क्‍योंकि जिंदगी एक ही है, उसके जैसी दूसरी कोई चीज़ नहीं. इसलिए उसका कोई पर्यायवाची भी नहीं. जिसके जैसा कोई दूसरा नहीं, वह तो अनमोल हुई, उसकी तो दिन रात ‘बलइयां’ लेते रहना चाहिए, लेकिन यह क्‍या हम उसे सहेज कर रखने की जगह उसकी हर दिन परीक्षा लिए जा रहे हैं! भला अनमोल, अद्भुत और बड़ी शिद्दत से मिली चीजों के साथ ऐसे कोई व्‍यवहार करता है, जैसा हम किए जा रहे हैं.

हम अपने जीवन को खुद मुश्किल बनाने में जुटे हुए हैं. डॉक्‍टर बता रहे हैं कि दिल पर बोझ ज्‍यादा पड़ता जा रहा है, वह तनाव में है. जरा! उसकी खबर लीजिए लेकिन हम तो मोबाइल हाथ में लेकर गूगल पर उसे दुरूस्‍त करने में जुट जाते हैं. जबकि अब दुनियाभर में साबित होता जा रहा है कि मोबाइल और गैजेट्स जीवन पर हावी होते जा रहे हैं. हम उनका उपयोग नहीं कर रहे, बल्कि वह हमारा उपभोग किए जा रहे हैं.

डियर जिंदगी : खुद को कितना जानते हैं!

दुनिया की बातें छोडि़ए. अपने देश, पड़ोस की बातें सुनिए, समझिए. इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस की रिपोर्ट बताती है कि हमारे युवा हर दिन छह घंटे से अधिक मोबाइल से चिपके रहते हैं. यह युवा कोई और नहीं, कोई आपका भाई, बेटा, बेटी, बहन, दोस्‍त और रिश्‍तेदार ही तो है. यह रिपोर्ट बताती है कि हम दिनभर में औसतन 150 बार फोन चेक करते हैं. हर छह मिनट में एक बार.

युवा तो दूर छोटे, किशोर बच्‍चे (टीनएजर्स) मोबाइल से हर दिन चार से पांच घंटे तक चिपके रहते हैं. इसके कारण उनके व्‍यवहार में चिड़चिड़ापन, अनिंद्रा, चक्‍कर आना, आंखों की रोशनी पर बुरा प्रभाव जैसी बातें सामान्‍य होती जा रही हैं.

मोबाइल का नेटवर्क कुछ मिनट के लिए छिनते ही हम इतने बेचैन हो जाते हैं कि मानो किसी ने हमारी सांसें रोक ली हों. इतनी बेचैनी किसी दूसरे रिश्‍ते, चीज़ के लिए होती तो जिंदगी किसी दूसरे ही रस से सराबोर होती!

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हम भारतीय जो कभी अपनी सुकून वाली जीवनशैली के लिए जाने जाते थे, अब अचानक से इतने ‘मॉडर्न’ हो गए हैं कि हमारे पास सोने के लिए समय कम पड़ रहा है. हमारी नींद उड़ गई है. हम औसतन सात घंटे नहीं सो रहे हैं. उसके बीच में भी वाट्सऐप, मैसेंजर हमसे जुदा नहीं होते.

घर की चारदीवारी में घुस आया मोबाइल हमारे बीच अजीब किस्‍म का सन्‍नाटा, दूरी और अबोलापन गढ़ रहा है.

हम पास बैठे दोस्‍त, सखा, बच्‍चे, माता-पिता से बात नहीं कर रहे, हम तो दूर कहीं सुख, संवाद खोज रहे हैं! जैसे मृग कस्तूरी को नाभि में धारण किए  ताउम्र उसके लिए यहां-वहां भटकता रहता है, वही हम कर रहे हैं.

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तो यह सब ठीक कैसे होगा! यह इतना मुश्किल भी नहीं कि इसे ठीक न किया जा सके. सब संभव है, बस तय करना होगा कि हमारा स्‍नेह, प्रेम और आत्‍मीय उस मोबाइल, गैजेट्स के लिए है, जिसे हमने बनाया है या उनके लिए है, जिन्‍हें हमने बनाया है. जिनसे हम बने हैं!

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अब करना क्‍या है!
कुछ वैसा ही जैसा कुछ समय पहले जर्मनी के हैम्‍बर्ग में सात बरस के बच्‍चे एमिल ने किया. उसने अपने पिता सहित सभी अभिभावकों के विरुद्ध एक रैली का आयोजन किया, जिसका स्‍लोगन था,‘प्‍ले विद मी, नॉट विद योर मोबाइल!’

अब बच्‍चों को ही उनके माता-पिता को प्‍यार, दुलार और मनुहार से अपने पास लौटना होगा. कभी-कभी बड़े भी रास्‍ता भटक सकते हैं, जरूरी नहीं हमेशा बच्‍चे ही गलती करें!

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