डियर जिंदगी : खुद को कितना जानते हैं!
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डियर जिंदगी : खुद को कितना जानते हैं!

हमें दुनिया को जानने के मिशन, दावों पर निकलने से पहले अपने बारे में निश्‍चित होने की जरूरत है. हमारे सुख, प्रसन्‍नता, ‘जीवन -आनंद’ के सारे रास्‍ते यहीं से होकर जाते हैं.

 

डियर जिंदगी : खुद को कितना जानते हैं!

हम खुद के बारे में कितना जानते हैं! अक्‍सर इस बात का जवाब कुछ यूं मिलता है कि सवाल करने वाले का हौसला ही खत्‍म हो जाता है. हम कितना दावा करते हैं कि हम अपने बारे में बहुत कुछ जानते हैं, लेकिन अक्‍सर यह दावा गलत साबित होता है.

कमाल की बात तो यह होती है कि जब-जब दावा गलत साबित होता है, हम तर्क की गलियों में भटकने लगते हैं. खुद के लिए कोई महफूज कोना खोजने में जुट जाते हैं. इससे हम आखिर में साबित कर देते हैं कि मैं खुद को बहुत अच्‍छे से जानता हूं. आपको ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जो हर दूसरी बात पर यह दावा करते नजर आ जाएंगे कि मैं दूसरों को तो नहीं लेकिन खुद को अच्‍छे से समझता\जानता हूं.

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मेरा यहां विनम्र निवेदन है कि इस बात के लिए थोडा ठहरिए, सोचिए कि हम स्‍वयं को कितना कम जानते हैं. इसीलिए जिंदगी के चौराहे में अक्‍सर ऐसी दिशा में मुड़ जाते हैं जो हमारे स्‍वभाव, नजरिए के एकदम उल्‍ट होती है.

हम होते इतने नरम हैं कि हवा का झोका हमें पलट दे और रास्‍ता बर्फीला पकड़ लेते हैं. तो कहीं दिखेगा कि तूफानों को हराने वाला ऐसी नाव में सवार हो गया जो उसे महासागर तो दूर ‘झुमरी तलैया’ भी पार नहीं करा सकती.

अपने को जानना ‘दुनिया’ को जानने से कहीं अधिक मुश्किल, जरूरी है. इससे सही नदी, नाव और किनारे को पहचानने में आसानी होती है! दूसरों को पहचानने में गलती को सुधारा जा सकता है, लेकिन स्‍वयं के प्रति हुई चूक को सुधारने का मौका मिलना आसान नहीं.

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एक मिसाल लेते चलते हैं… कहानी भोपाल की है. इसका साक्षी मैं स्‍वयं हूं.

वह एमएससी टॉपर थे, अपने जिले, संभाग के नहीं मप्र के थे. टॉपर भी आज के नहीं, बल्कि नब्‍बे के दशक के. जब टॉपर का अर्थ ऐसी योग्‍यता का अटूट प्रमाण होता था. टॉपर के लिए समाज के मन में सम्‍मान से लेकर नौकरी मिलने के रास्‍ते भी सुगम माने जाते थे. वह आईएएस, दूसरी बड़ी परीक्षा की तैयारी करने भोपाल पहुंच गए. तैयारी में जुट गए. उनके परिश्रम ने सबका ध्‍यान अपनी ओर खींचा.

एक दिन वहां मप्र पुलिस के जवानों की भर्ती हो रही थी. उनकी कद काठी एकदम अमिताभ बच्‍चन वाली है. इसलिए उनके एक सुपरिचित ने कहा कि भर्ती में तुमको जाना चाहिए. तुम्‍हारा चयन हो ही जाएगा. इस टॉपर के मन में आया कि मैं और पुलिस का जवान की भर्ती. मुझे तो कम से कम आईपीएस अफसर बनना है. लेकिन वह बड़ों का कहना नहीं टाल सके. 

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वह पुलिस की भर्ती में गए और चुन लिए गए. सबने उनको बधाई दी. समझाया कि बेटा कितने किस्‍मत वाले हो! बिना रिश्‍वत, सिफारिश के पुलिस की नौकरी मिल गई. उस वक्‍त मैं भी भोपाल में ही था. कुल जमा नौंवी का छात्र था.

फि‍र भी मैंने उनसे जो कि रिश्‍ते में हमारे मामा हैं, कहा, ‘आपको यह नौकरी नहीं करनी चाहिए. जब आपमें आईपीएस अफसर बनने की योग्‍यता है तो सिपाही क्‍यों. एक बार सिपाही हो गए तो कभी उस मंजिल तक नहीं पहुंच पाएंगे, जो आपका ख्‍वाब है.’

लेकिन मैं छोटा था, उस वक्‍त अपने रिजल्‍ट से जूझता हुआ बच्‍चा था! जैसा बच्‍चों के साथ अब होता है, तब भी होता था. मेरी बात की ओर किसी ने ध्‍यान नहीं दिया. एक शानदार नौजवान ने सिपाही की नौकरी ज्‍वाइन कर ली. हमारा सिस्‍टम इतना सहयोगी नहीं कि वह बहुत दूर निकल पाते. आज लगभग पच्‍चीस बरस बाद वह दो चार कदम ही उस पद से आगे बढ़ पाए हैं.

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काश! वह खुद को अच्‍छी तरह समझते. वैसे इससे भी जरूरी यह होता कि उन्‍हें स्‍वयं पर दूसरों की समझ से अधिक भरोसा होता. अपने भीतर हुनर होने जितना ही जरूरी यह भी है कि आपको उस पर यकीन हो.

जीवन के संघर्ष का हासिल उसकी योग्‍यता से कहीं अधिक उस जज्‍बे से होता है, जिसे हम यकीन कहते हैं. खुद में यकीन. अक्‍सर लोग कहते हैं कि उन्‍हें किसी में बड़ा भरोसा है. उस पर बहुत विश्‍वास है, उनसे दो मिनट बात कीजिए तो पता चल जाएगा कि उन्‍हें खुद पर कितना कम यकीन है.

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जिसे खुद पर ही यकीन नहीं. वह दूसरे को क्‍या और कितना समझेगा, यह लिखने की जरूरत नहीं! इसलिए हमें दुनिया को जानने के मिशन, दावों पर निकलने से पहले अपने बारे में निश्‍चित होने की जरूरत है. हमारे सुख, प्रसन्‍नता, ‘जीवन -आनंद’ के सारे रास्‍ते यहीं से होकर जाते हैं.

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