440 km दूर जाकर बचाई बीमार महिला की जान, रेयर 'बॉम्बे' ब्लड ग्रुप के शख्स ने दिखाई इंसानियत
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440 km दूर जाकर बचाई बीमार महिला की जान, रेयर 'बॉम्बे' ब्लड ग्रुप के शख्स ने दिखाई इंसानियत

किसी की जान बचाने के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य जाने वाले शख्स की खूब तारीफ हो रही है, क्योंकि उन्होंने पिछले 10 साल में कई बार ब्लड डोनेट किया है.

440 km दूर जाकर बचाई बीमार महिला की जान, रेयर 'बॉम्बे' ब्लड ग्रुप के शख्स ने दिखाई इंसानियत

भले ही समाज में कितनी भी नफरत की बातें क्यों न हो, लेकिन इंसानियत आज भी जिंदा, जिसके लेकर लोग खुद की भी तकलीफ भूल जाते हैं. ऐसी ही मिसाल पेश की रविंद्र अष्टेकर (Ravindra Ashtekar) ने जो पेशे से फ्लोरिस्ट हैं. इनका ब्लड ग्रुप बेहद रेयर है जिसे मेडिकल टर्म में 'बॉम्बे' कहा जाता है. रविंद्र ने महाराष्ट्र के शिरडी से 400 किलोमीटर की राइड करके मध्य प्रदेश के इंदौर शहर पहुंचे, जहां 30 साल की बीमार महिला की जान बचाई.

पहले भी कर चुके हैं नेक काम

रविंद्र अष्टेकर 36 साल के हैं जो शिरडी में फूलों का बिजनेस करते हैं, वो 25 मई को शिरडी से इंदौर पहुंचे और वहां जाकर अस्पताल में एक महिला को ब्लड डोनेट किया. फिर ट्रांस्फ्यूजन के बाद पेशेंट की हालत में सुधार हुआ. बल्ड डोनर ने पीटीआई को कहा, "जब व्हाट्सऐप में ब्लड डोनर ग्रुप के जरिए मुझे इस महिला की क्रिटिकल कंडीशन का पता चला, तब मैं दोस्त की कार में बैठकर इंदौर के लिए निकल गया और तकरीबन 440 किलोमीटर की यात्रा की." रविंद्र ने बताया कि पिछले 10 सालों से उन्होंने जरूरतमंद मरीजों के लिए 8 बार ब्लड डोनेट किया है, वो ये काम अपने होम स्टेट महाराष्ट्र, साथ ही गुजरात, यूपी और एमपी के कई शहरों में कर चुके हैं.

बच गई महिला की जान

इंदौर के महाराजा यशवंतराव अस्पताल में ट्रांस्फ्यूजन मेडिसिन डिपार्टमेंट के हेड डॉ. अशोक यादव (Dr. Ashok Yadav) ने बताया कि महिला को किसी दूसरे अस्पताल में प्रसूति से जुड़ी बीमारी के ऑपरेशन के दौरान गलती से 'ओ' पॉजिटिव ग्रुप का ब्लड चढ़ा दिया गया था, जिसकी वजह से उनकी हालत खराब हो गई और किडनी पर भी बुरा असर पड़ा.

डॉक्टर ने कहा, "जब महिला की हालत खराब होने पर उसे इंदौर के रॉबर्ट्स नर्सिंग होम भेजा गया, जहां टेस्ट में उसका हीमोग्लोबिन लेवल गिरकर तकरीबन 4 ग्राम प्रति डेसीलीटर रह गया था, जबकि एक हेल्दी वूमेन का हीमोग्लोबिन लेवल 12 से 15 ग्राम प्रति डेसीलीटर होना चाहिए."

डॉ. अशोक ने बताया कि जब 4 यूनिट 'बॉम्बे' ब्लड चढ़ाया तब पेशेंट की हालत पहले से बेहतर हो गयी. डॉक्टर के मुताबिक अगर वक्त पर इस महिला को रेयर ग्रुप का खून नहीं दिया जाता, तो उसकी लाइफ रिस्क पर आ सकती थी.

कैसे हुआ 3 यूनिट का इंतजाम?

इंदौर की सामाजिक संस्था 'दामोदर युवा संगठन' के हेड अशोक नायक (Ashok Nayak) ने बीमार महिला के लिए 'बॉम्बे' ब्लड ग्रुप के खून का इंतजाम करने में मदद की. उन्होंने बताया कि रविंद्र अष्टेकर के एक यूनिट के अलावा एक यूनिट ब्लड को नागपुर से इंदौर फ्लाइट के जरिए लाया गया और बाकी एक यूनिट खून बीमार महिला की बहन ने इंदौर में डोनेट किया. 

क्या है 'बॉम्बे' ब्लड ग्रुप?

'बॉम्बे' ब्लड ग्रुप की खोज साल 1952 में डॉक्टर वाई एम भेंडे (Dr. Y. M. Bhende)की थी, ये बेहद दुर्लभ है जो आमतौर पर भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोगों में पाया जाता है. इसमें एच एंटीजन नहीं होता, जब एंटी-एच-एंटीबॉडीज पाई जाती है, यही वजह है कि इसे 'एचएच' (hh)  ग्रुप भी कहा जाता है.  इस ग्रुप के लोग अपने ही ब्लड ग्रुप वाले खून को रिसीव कर सकते हैं, यही वजह है कि कई बार सेम ग्रुप के खून की कमी के कारण उन्हें जान का खतरा बना रहता है.

(इनपुट-पीटीआई)

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