बिहार में कांग्रेस की हालत, मान न मान मैं तेरा मेहमान!
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बिहार में कांग्रेस की हालत, मान न मान मैं तेरा मेहमान!

बिहार में कांग्रेस के पास भले ही 19 विधायक हैं, लेकिन आरजेडी जैसे यह जताती रहती है कि इन कांग्रेसी विधायकों का उसके लिए कोई खास महत्व नहीं है. 

बिहार में कांग्रेस के पास 19 विधायक हैं.

पटना: बिहार में आरजेडी कांग्रेस को घास डालने को तैयार नहीं है तो दूसरी तरफ कांग्रेस है कि अपने को उससे खुद को अलग मानने को राजी नहीं है. जब भी मौका मिलता है कांग्रेस ये जताने से नहीं चूकती कि गठबंधन कायम है और उसमें उसकी अभी भी आरजेडी के साथ महत्वपूर्ण भूमिका है. 

दूसरी तरफ आरजेडी उसे गठबंधन से बाहर दिखाने और उसे उसकी औकात बताने का कोई अवसर नहीं खोती है. बिहार में कांग्रेस के पास भले ही 19 विधायक हैं, लेकिन आरजेडी जैसे यह जताती रहती है कि इन कांग्रेसी विधायकों का उसके लिए कोई खास महत्व नहीं है. तभी तो पहले राज्यसभा चुनाव में और अब फिर विधान परिषद चुनाव के लिए आरजेडी ने कांग्रेस से कोई सलाह मशविरा किए उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया. 

कांग्रेस की रणनीति पर फिर फिरेगा पानी!
राज्यसभा चुनाव में अनदेखी को तो कांग्रेस ने किसी तरह से सह लिया, लेकिन विधान परिषद चुनाव के लिए उसने माले के साथ मिलकर गेम खेलने की कोशिश की. आरजेडी ने तीन उम्मीदवारों का ऐलान किया तो माले भी लाल हो गयी. कांग्रेस को लगा कि यही सही मौका है माले के साथ मिलकर आरजेडी को औकात बताने का. उसने आरजेडी के तीसरे उम्मीदवार को हराने और माले उम्मीदवार उतारकर उसका समर्थन करने की रणनीति बनाई. 

कांग्रेस गठबंधन से बाहर: राजद
सब कुछ पटरी पर चल ही रहा था कि इसी बीच आरजेडी विधायक राकेश कुमार रोशन ने कांग्रेस को रणनीति को फेल करने का ऐलान कर दिया. उन्होंने न सिर्फ कांग्रेस की रणनीति को कोरी कल्पना बता दिया बल्कि यहां तक कह दिया कि कांग्रेस की तो गठबंधन में कोई जगह ही नहीं है, आरजेडी के लिए तो वह गठबंधन से बाहर है. उन्होंने तो यह कहकर कांग्रेस की भूमिका को ही खत्म कर दिया कि यह आरजेडी और वामदलों के बीच का मामला है, जिसे बातचीत के बाद सुलझा लिया जाएगा. 

वजूद तलाशती कांग्रेस के लिए मुसीबतें अपार
जाहिर है राकेश कुमार रोशन का बयान कांग्रेस की दुखती रग पर और करारा प्रहार है. अब पहले तो उसे खुद यह तय करना होगा कि वह गठबंधन का हिस्सा है भी या नहीं. आमलोग यह सच जानना चाहते हैं कि बिहार में क्या सचमुच गठबंधन टूट चुका है? तारापुर और कुशेश्वर स्थान विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के दौरान जब दोनों दलों में मिलकर लड़ने पर सहमति नहीं बनी, तो बिहार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मदन मोहन झा और प्रभारी भक्त चरण दास समेत तमाम नेता यह कहते रहे कि गठबंधन टूट चुका है. लेकिन, उपचुनाव परिणामों में जब उसकी मिट्टी पलीद हुई तो फिर गठबंधन का राग अलापने लगे.

हालांकि न तो कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से कभी गठबंधन टूटने की बात की गयी और न ही आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव ने कभी खुलकर ऐसी बात कही. ऐसे में सस्पेंस आज भी बना हुआ है कि बिहार में आरजेडी और कांग्रेस के बीच सालों से चला आ रहा गठबंधन अब बचा है या टूट चुका है. 

RJD की उम्मीदें टूटी तो कांग्रेस के लिए कड़वाहट बढ़ी
कांग्रेस और आरजेडी के रिश्ते की बात करें तो हर अच्छे और बुरे समय में भी यह मजबूती से कायम रहा. बिहार में आरजेडी ने कांग्रेस को पूरी तवज्जो और गठबंधन में सहभागिता भी दी. दोनों दलों का रिश्ता तब बिगड़ा जब पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जिद के चलते उसे आरजेडी ने पचास से अधिक सीटें चुनाव में लड़ने के लिए दे दीं. हालांकि उसे भी पता था कि कांग्रेस की स्थिति इतनी अच्छी नहीं है, फिर भी गठबंधन धर्म को आरजेडी ने निभाया. 

कांग्रेस की स्थिति ठीक नहीं
आरजेडी उम्मीद कर रही थी कि इस बार उसकी अगुवाई में सरकार बना लेगी. परिणाम आए तो न सिर्फ आरजेडी ने अच्छा प्रदर्शन किया बल्कि वामदलों ने भी अच्छी खासी सीटें हासिल की. लेकिन इस दौड़ में गठबंठन का तीसरे सहयोगी कांग्रेस को हालत खस्ता रही, जिससे तेजस्वी की सरकार बनने की उम्मीदें धरी की धरी रह गयी. 

राजद-कांग्रेस में बढ़ी 'दूरियां'
इसके बाद से ही कांग्रेस और आरजेडी के बीच कड़वाहट बढ़ती चली गयी. एक तरफ कांग्रेस है जो यह चाहती है कि उसे पहले की तरह की महत्व मिले, दूसरी तरफ आरजेडी का शायद यह मानना है कि कांग्रेस को जितना महत्व दिया जा रहा है, वह उसके काबिल नहीं है. 

गठबंधन का सस्पेंस कब होगा खत्म ?
अब पहले तो दोनों दलों के शीर्ष नेतृत्व को यह साफ करना होगा कि गठबंधन की सच्चाई क्या है. अगर गठबंधन बाकी है तो उसमें शामिल सभी दलों का यह धर्म बनता है कि शब्दों की मर्यादा में रहते हुए अपने सहयोगी दल को पूरा सम्मान दे. किसी पार्टी की हालत से उसको महत्व देने की जगह गठबंधन में बराबरी के सिद्धांत का पालन किया जाए और कोई भी फैसला आपसी सहमति से बने. अगर ऐसा नहीं है तो फिर गठबंधन का चोला पहनकर बैठे रहने का किसी भी दल के लिए कोई मतलब नहीं है. और खासकर लगातार अपनी जमीन खोती कांग्रेस अगर इस हकीकत को जल्दी नहीं समझ पाती तो न सिर्फ उसे यूं ही बार-बार बेआबरू होना होगा बल्कि इस संकट की घड़ी में भी उसके साथ खड़े अपने कट्टर समर्थकों का भरोसा भी खोना होगा.

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