डियर जिंदगी: कैसे रुकेगा खुद से पलायन...
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डियर जिंदगी: कैसे रुकेगा खुद से पलायन...

हम घर, परिवार, बुजुर्गों को निरंतर अकेला कर रहे हैं और ऐसा करते हुए खुद अकेले होते जा रहे हैं.

दयाशंकर मिश्र

हम दुनिया में हो रही हर बात जानना चाहते हैं. हमें हर बात पता है, जमाने की. बस अपनी फिक्र से दूर हैं, स्‍वंय से संवाद बाधित हो गया है. भीतर-भीतर कुछ टूट रहा है, लेकिन उसका आवाज हमारे अंतर्मन तक नहीं पहुंच रही. हम 'सेल्‍फी' को अपना सच मान बैठे हैं. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि हमें अपनी त्‍वचा से तो प्रेम है, लेकिन हम मन, विचार, चिंतन यानी आत्‍मा की खुराक से दूर हो गए हैं. हमने आंतरिक सौंदर्य की राह से भटके हुए समय में जी रहे हैं. हम मन की खुराक से दूर हो गए हैं. हर दिन यह दूरी बढ़ती जा रही है. यह दूरी स्‍वंय से पलायन का सबसे बड़ा कारण है.

यह दूरी कैसे बनी? क्‍यों बनी? किसने बनाई? इसका दोष किस पर है. क्‍या कोई और इसके लिए जिम्‍मेदार है. दूसरों, बाहरी कारणों को जिम्‍मेदार मानने से पहले अपने भीतर झांकना होगा. पूरा मामला आंतरिक है, तो इसका निदान भी भीतर से ही आएगा. गुरुवार को देर शाम एक मित्र ने अपने भाई का जिक्र करते हुए कहा कि वह हर छोटी से छोटी बात फेसबुक पर शेयर करता है. हर बात. कब उसने क्‍या किया. कब उसे कैसा महसूस हुआ. तकरीबन 14 घंटे मोबाइल पर होता है. वह दुनिया को हर पल अपनी खबर देना चाहता है. हर एहसास की खबर. 

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मैं पूछा, क्‍या वह एकदम अकेला है. उसके घर पर उससे बात करने वाला कोई नहीं है. मेरे दोस्‍त ने कहा, नहीं उसका भरापूरा परिवार है. माता-पि‍ता है. भाई बहन है. सब हैं. तो उसके पास इतना समय कैसे है कि वह हमेशा सोशल मीडिया में डुबा रहता है. मेरे दोस्‍त ने कहा, यही तो सबसे बड़ा सवाल है. इतना ही नहीं, वह एक बड़ी कंपनी में अच्‍छे पद पर भी है. कई बार उसे सहकर्मी भी जरूरत से अधिक मोबाइल पर चिपके रहने पर आपत्ति जता चुके हैं. लेकिन वह सुधरने को तैयार नहीं है.

क्‍या इनके भाई जैसा ही ज्‍यादतर लोग इस समय नहीं हैं. बल्कि अब तो यह कहने में भी संकोच नहीं रहा कि अधिकांश शहरी ऐसे ही होते जा रहे हैं. वह गैजेटस से चिपके रहने को संवाद मानने लगे हैं. जब हम आभासी संसार को असली मान लेंगे. तो यही होगा. जब हम यह जानते हुए एक झूठ का शिकार हों कि यही सबसे बड़ा संसार है, तो मामला सच में कहीं अधिक गंभीर है. यहां प्रेम करने के दावे हैं, सिनेमा जैसे. जैसे फि‍ल्‍म के पात्र आभासी होते हैं, वैसे ही सोशल मी‍डिया का संसार है. आपका होते हुए भी आपका नहीं हैं. लेकिन दिल मानता ही नहीं कि यह आपका नहीं है. हम घर, परिवार, बुजुर्गों को निरंतर अकेला कर रहे हैं. और ऐसा करते हुए खुद अकेले होते जा रहे हैं. और उनके नजदीक जो हमारे हैं ही नहीं.

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इसलिए तो अब फेसबुक पर लाइव वीडियो डाले जा रहे हैं. आत्‍महत्‍या के. आत्‍महत्‍या से पहले पोस्‍ट लिखी जा रही हैं. बजाए बात करने, संवाद से चीजों के सुलझने में हमारा यकीन हर दिन खत्‍म हो रहा है. क्‍यों बेतुकी बातों पर लोग जिंदगी को अलविदा कह रहे हैं. इसे दूर की समस्‍या मत मानिए. बढ़ती आत्‍महत्‍या का संकट बहुत नजदीक का संकट है. हमारे एकदम समीप का. बेहद संक्रामक भी. इसलिए अपने आसपास और खुद से संवाद का विस्‍तार कीजिए. स्‍वंय से पलायन रोकना किसी के जन्‍म जितनी ही जरूरी बात है. 

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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