Rana Sanga History: इतिहास में राणा सांग अपने अद्भुत शौर्य के प्रसिद्ध हैं. अपने लंबे सैन्य करियर में, सांगा ने कई पड़ोसी मुस्लिम राज्यों, विशेष रूप से दिल्ली के लोदी वंश के खिलाफ लगातार सफलता हासिल की. कहा जाता है कि उनके शरीर 80 घाव थे जो सभी युद्धों में लगे थे.
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History of Mewar: मेवाड़ के शासक राणा सांगा की वीरता इतिहास में अमर है. उन्होंने मेवाड़ पर साल 1509 से 1528 तक शासन किया. उन्होंने एक मजबूत शासन व्यवस्था कायम की. उनके नेतृत्व में मेवाड़ उत्तर भारत की सबसे बड़ी शक्तियों में से एक बन गया.
राणा रायमल और रानी रतन कुंवर के पुत्र राणा सांगा का साम्राज्य मौजूदा राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों तक फैला. चित्तौड़ उनके साम्राज्य की राजधानी थी.
उत्तर भारत के बड़े भाग पर शासन
राणा सांगा उत्तरी भारत के ऐसे अंतिम स्वतंत्र हिंदू राजा थे जिन्होंने मुगल काल से पहले एक महत्वपूर्ण क्षेत्र को नियंत्रित किया था. कुछ समकालीन ग्रंथों में, उन्हें उत्तरी भारत के हिंदू सम्राट (हिंदूपति) के रूप में वर्णित किया गया है.
अद्भुत शौर्य के लिए प्रसिद्ध
इतिहास में राणा सांग अपने अद्भुत शौर्य के प्रसिद्ध हैं. अपने लंबे सैन्य करियर में, सांगा ने कई पड़ोसी मुस्लिम राज्यों, विशेष रूप से दिल्ली के लोदी वंश के खिलाफ लगातार सफलता हासिल की. कहा जाता है कि उनके शरीर 80 घाव थे जो सभी युद्धों में लगे थे. उन्होंने युद्ध में एक पैर, एक हाथ और एक आंख भी गंवा दी थी.
बाबार से मुकाबला
राणा सांगा ने यूं तो कई युद्ध लड़े लेकिन सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण युद्ध उन्होंने 1526 में बाबर के खिलाफ लड़ा था. 1526 में बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हराकार कर दिल्ली पर शासन शुरू कर दिया था. अब सांगा और बाबर का मुकाबल होना तय हो गया था.
सांगा ने पृथ्वीराज चौहान के बाद पहली बार कई राजपूत वंशों को एकजुट किया और 100,000 राजपूत सैनिकों की एक सेना बनाई और आगरा की ओर बढ़ा. राणा सांगा और मुगल बादशाह बाबर के बीच 1527 में खानवा का युद्ध हुआ था. इस युद्ध में राणा की हार को भारतीय इतिहास का एक निर्णायक मोड़ माना जाता है. इस कामायाबी के बाद बाबर उत्तर भारत का निर्विवाद स्वामी बन गया.
खानवा के युद्ध के बाद
मारवाड़ के पृथ्वीराज कछवाहा और मालदेव राठौर द्वारा सांगा को अचेत अवस्था में युद्ध के मैदान से दूर ले जाया गया. होश में आने के बाद राणा ने तब तक चित्तौड़ न लौटने की शपथ ली जब तक कि वह बाबर को हराकर बाहर नहीं कर देता. उन्होंने पगड़ी पहनना भी बंद कर दिया और इसके बजाय अपने सिर पर एक कपड़ा लपेटना चुना.
राणा बाबर के खिलाफ एक और युद्ध की तैयारी में लगे थे. हालांकि उनका सपना पूरा नहीं हो पाया. माना जाता है कि उन्हें उन सामंतों ने जहर दे दिया जो बाबर के साथ एक और संघर्ष नहीं चाहते थे. जनवरी 1528 को कालपी में उनकी मृत्यु हुई.
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