यह तय है कि जिस तरह से ट्रंप सरकार अमेरिका के हितों को केंद्र में रख कर विश्व बाज़ार और वैश्विक समुदाय को अपने नियंत्रण में करने की नीतिको उग्र तरीके से लागू कर रही है, इससे विश्व मंच पर खुला टकराव होते रहने की पूरा आशंका है.
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4 मई 2018 को अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन में एक शिकायती माहौल बनाने की कोशिश की है कि भारत खाद्य सुरक्षा के लिए जो राजकीय सहायता दे रहा है, वह डब्ल्यूटीओ में तय मानकों से बहुत ज्यादा है. भारत ने अपनी अधिसूचना में उल्लेख किया है कि वह अपने कुल कृषि उत्पादन मूल्य के 6 प्रतिशत के समतुल्य ही सब्सिडी दे रहा है; जबकि अमेरिका ने एक प्रति-अधिसूचना दाखिल करके यह साबित करने की कोशिश की है कि भारत गेहूं और चावल के न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए कुल उत्पादन के तीन चौथाई के बराबर की राजकीय सहायता प्रदान कर रहा ही. अमेरिका ने यह साबित करने की कोशिश की है कि भारत बाज़ार के लिए एक स्वतंत्र, पारदर्शी और उचित माहौल नहीं बना रहा है.
यह उल्लेखनीय है कि भारत के द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी डब्ल्यूटीओ के उस वर्गीकरण में शामिल है, जिसे ग्रीन बाक्स सब्सिडी कहा जाता है. इस सब्सिडी का मकसद छोटे, वंचित किसानों, गरीब तबकों की राजकीय मदद करना और विपदाओं के लिए राष्ट्र में खाद्यान्न भण्डार सुरक्षित रखना होता है. इसके उलट अमेरिका यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि भारत के द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी बाज़ार को नुकसान पंहुचाने वाली (अम्बर बाक्स) सब्सिडी है. यदि यह मान लिया गया कि भारत की सब्सिडी अम्बर बाक्स सब्सिडी है, तो भारत को यह सब्सिडी कुल कृषि उत्पाद मूल्य के 10 प्रतिशत के भीतर रखना होगी.
एक तरफ तो अमेरिका खुद अपने यहां भारी सब्सिडी कार्यक्रम चला रहा है, किन्तु भारत की नीतियों को तोड़ने की कोशिश कर रहा है. उसका मानना है कि भारत एक बहुत बड़ा बाज़ार है और यदि यह बाज़ार अमेरिका के उत्पादकों और कृषि कंपनियों के नियंत्रण में आ गया, तो उन्हें बहुत भारी मुनाफ़ा होगा. यही कारण है कि वह लगातार भारत के खिलाफ़ लामबंदी की कोशिश कर रहा है. वर्ष 2015 में जब भारत ने नैरोबी में विश्व व्यापार संगठन की मंत्री वार्ता में यह कहा कि वह खाद्य सुरक्षा के लिए लोक भण्डारण के विषय पर स्थाई समाधान चाहता है, परन्तु खाद्य सुरक्षा के लिए राजकीय रियायत की राशि कुल कृषि उत्पाद के 10 प्रतिशत की सीमा में रखे जाने के पक्ष में नहीं है और पहले विकसित देशों को अपनी सब्सिडी में कमी करना चाहिए.
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भारत के रुख से अमेरिका इतना तिलमिलाया कि वहीं एक ट्विटर अभियान (#इंडियाब्लाक्सटाक) शुरू कर दिया, वह यह बताने की कोशिश कर रहा था कि भारत समझौता वार्ता को बाधित कर रहा है. भारत का इस मामले में महत्व इसलिए भी है क्योंकि वह खाद्य सुरक्षा और कृषि के मामले में विकासशील देशों का नेतृत्व कर रहा है. भारत की विश्वसनीयता, देश के भीतर और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, तभी बरकरार रह पाएगी, जब वह इस विषय पर बाज़ार और विकसित देशों के बजाये समाज और किसान के पक्ष में खड़ा रहेगा.
डब्ल्यूटीओ में वर्ष 1995 में कृषि समझौता (एग्रीमेंट आन एग्रीकल्चर) होने के बाद से लगातार यह कोशिशें होती रही है कि विभिन्न देशों की कृषि और खाद्य सुरक्षा नीतियों को विश्व व्यापार संगठन के नियमों से बांधा जाए. इन नियमों का मूल आधार है - सब्सिडी को खत्म से कम करना, खाद्य व्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण को सीमित करना और बाज़ार के दखल को उन्मुक्त बनाना. इस प्रक्रिया में डब्ल्यूटीओ के वर्ष 2001 में शुरू हुए दोहा विकास चक्र में इसके लिए व्यापक नियम बनाने और उन नियमों पर सबकी सहमति बनाने की की पहल शुरू हुई. इस पर अब तक 9 मंत्री स्तरीय समझौता वार्ताएं हो चुकी हैं.
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माना यह गया था कि वर्ष 2013 में बाली (इंडोनेशिया) की सातवीं मंत्री वार्ता में खाद्य सुरक्षा के लिए लोक भण्डारण (पब्लिक स्टाकहोल्डिंग फार फ़ूड सिक्युरिटी) के बिंदु पर स्थाई समाधान निकाल लिया जाएगा. हुआ यूं है कि डब्ल्यूटीओ में कृषि समझौते के आधार पर यह प्रस्ताव दिया गया था कि जिन देशों का कृषि-खाद्य सुरक्षा के लिए समग्र घरेलू सहायता (एग्रीगेट मेज़रमेंट आफ सपोर्ट) तय नहीं है, वे विकासशील देश अम्बर बाक्स सब्सिडी (ऐसी राजकीय रियायत, जिससे बाज़ार को नुकसान पंहुचता हो) को अपने कुल कृषि उत्पाद के समग्र मूल्य के 10 प्रतिशत के स्तर से ज्यादा नहीं ले जायेंगे. वहीं विकसित देश सब्सिडी का यह स्तर 5 प्रतिशत तक सीमित रखेंगे.
इसके अलावा कृषि समझौते में सोची समझी रणनीति के साथ सभी यूरोपीय, ज्यादातर विकसित देशों और अमेरिका के लिए वर्ष एक समग्र राजकीय सहायता मानक (एग्रीगेट मेज़रमेंट आफ सपोर्ट) या समग्र घरेलू सहायता का मानक तय कर दिया गया था. इन मानकों में इन 32 देशों (अमेरिका, यूरोप, जापान सहित अन्य) को ऊंचे स्तर तक कृषि और खाद्य सुरक्षा के लिए राजकीय रियायत देने की अनुमति दे दी गई थी. इसका असर यह हुआ कि भारत, जो एक किसान को 228 डालर के बराबर की कुल सब्सिडी दे रहा है, उसे यह सब्सिडी भी कम करने का दबाव झेलना पड़ रहा है, जबकि एक किसान को 68000 डालर के बराबर की सब्सिडी देने वाले अमेरिका को पूरी स्वतंत्रता मिली हुई है और वह अपने यहां के कृषि उत्पाद को इतनी सहायता दे रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अमेरिका के किसानों का उत्पादन बहुत कम कीमतों पर बेंचा जा रहा है क्योंकि उन्हें सरकार खूब रियायत देती है. इसके दूसरी तरफ भारत के किसानों को रियायत बहुत कम मिल रही है, इससे कृषि उत्पादन की लागत (इनपुट कास्ट) बहुत ज्यादा पड़ रही है.
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ऐसे में डब्ल्यूटीओ के समझौतों के मुताबिक भारत को अपना बाज़ार दुनिया के अन्य देशों के लिए खोलना पड़ रहे हैं और आयात शुल्क कम करने पड़ रहे हैं, जिससे अमेरिका का सस्ता उत्पादन भारत में डंप किया जा रहा है. कपास इसका सबसे सीधा उदाहरण है; कपास की उत्पादन भारत के मुकाबले अमेरिका किसान के लिए बहुत कम हैं और भारत दुनिया के अन्य देशों के उत्पादकों कोकपास भारत में लाने और बेंचने की अनुमति देता है, इसलिए भारत के कपास उत्पादक यहीं, भारत में ही अपना उत्पादन नहीं बेंच पा रहे हैं.
डब्ल्यूटीओ में यह तय किया गया है कि कोई भी देश कोई भी उत्पाद अन्य देशों में तय और निर्धारित कीमत से कम पर नहीं भेजेगा और नहीं बेंचेगा. ऐसा कदम इसलिए उठाया गया था क्योंकि कई देश अपने यहां उत्पादकों को ऊंची रियायत देकर उत्पादन लागत को बहुत कम करवा लेते है और फिर अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमतों के साथ खेलते हैं. इसका बहुत गहरा असर उन देशों पर पड़ता है, जिनके पास कम पूंजी और कम निवेश होता है. सब्सिडी के जरिये अमेरिका और यूरोपीय देश कीमतों में इतना उतार-चढ़ाव करवाते हैं, जिससे छोटे उत्पादकों/व्यापारियों और उत्पादकों को जबरदस्त नुकसान होता है. डब्ल्यूटीओ में लागत से कम कीमत पर वस्तु के निर्यात को रोकने के लिए समझौता (एंटी डम्पिंग अग्रीमेंट) किया गया है. इसके बाद भी वर्ष 2015 में इंस्टीट्यूट फॉर एग्रीकल्चर एन्ड ट्रेड पालिसी के अध्ययन से पता चला कि अमेरिका ज्यादातर कृषि उत्पाद लागत से भी कम कीमत पर भेज रहा है. इस अध्ययन के मुताबिक वह मक्का उत्पादन लागत से 12 प्रतिशत, सोयाबीन उत्पादन लागत से 10 प्रतिशत, कपास उत्पादन लागत से 23 प्रतिशत और गेहूं उत्पादन लागत से 32 प्रतिशत कम कीमत पर निर्यात कर रहा है. जिससे दुनिया के कई देशों के किसान गहरे संकट में आ गए हैं.
वर्ष 1996 का अमेरिका का कृषि विधेयक इस बात पर केंद्रित था कि अमेरिका के कृषि उत्पादक (जो वास्तव में बहुत बड़े किसान, बड़े भूभाग के मालिक और बड़ी कृषि व्यापार कंपनियां होती हैं) कृषि उत्पादन बढ़ाएं. अमेरिका केवल अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए उत्पादन को नहीं बढ़वाना चाहता था, बल्कि उसे समझ आ गया था कि खाद्य सुरक्षा की आर्थिक कूटनीति के जरिये वैश्विक नियंत्रण के लक्ष्य को हासिल करना आसान होगा. वह अपने कृषि उत्पादकों को यह सूत्र दे रहा था कि हमें विश्व के भूखे लोगों के लिए (फीड द हंगरी वर्ल्ड) भोजन पैदा करना है. चूंकि तब अमेरिका में कुछ खाद्य उत्पादों की कीमतें बढ़ रही थी, इसलिए 1996 के कृषि विधेयक को अमेरिका में राजनीतिक समर्थन भी मिल गया.
इसके बाद यह विकल्प रखा गया कि अमेरिकी उत्पादकों को सरकार लगभग 20 अरब डालर की सीधी सहायता देती रहेगी, ताकि उन्हें निश्चित आय होती रहे और उत्पादन की लागत कम हो. जब उत्पादन बढ़ेगा तो अमेरिका इस उत्पादन को निर्यात के लिए इस्तेमाल करेगा. यह निर्यात अन्य देशों के भीतर के बाजार की कीमतों में उथल पुथल लाएगा क्योंकि अमेरिकी उत्पादों की कीमत बाज़ार में बहुत कम रहेगी. इस तरह वे अन्य देशों के घरेलू उत्पादकों और उत्पादन व्यवस्था को ठप्प कर सकेगा. अगले चरण में ये देश अमेरिका पर निर्भर होंगे. तब ऊंची कीमतों के जरिये अमेरिका की कृषि उत्पाद/खाद्य कंपनियां भारी मुनाफा ही नहीं कमाएंगी, बल्कि भारत जैसे देशों की उत्पादन व्यवस्था और संसाधनों पर भी नियंत्रण कर सकेंगी.
अमेरिका द्वारा उत्पादन लागत से कम पर निर्यात (डम्पिंग) के कारण कई देशों को संकट का सामना करना पड़ा है. इस मामले में ब्राजील ने अमेरिका के खिलाफ़ वैश्विल पटल पर कड़ा संघर्ष किया है. वर्ष 2002 से 2010 तक ब्राजील ने विश्व व्यापार संगठन के विवाद निराकरण मंच में यह शिकायत की कि अमेरिका की कपास को राजकीय सहायता इतनी ज्यादा है कि उसके उत्पादक संकट में हैं, बाज़ार अस्थिर हो रहा है. इस मामले में 10 से ज्यादा सालों तक बहस चली और आखिर में यह निर्णय हुआ कि अमेरिका ब्राजील को 13 करोड़ डालर का मुआवजा देगा. इसके साथ की वह अपने घरेलू सहायता नीतियों में बदलाव लाएगा. ऐसे में अमेरिका ने तय किया कि वह तत्काल अपनी कपास सब्सिडी नीति को नहीं बदलेगा, इसके एवज में उसके वर्ष 2018 तक के लिए ब्राजील को 30 करोड़ डालर का भुगतान किया है. ब्राजील और अमेरिका के बीच के समझौते की अवधि सितम्बर 2018 में खत्म हो रही है और देखना यह है कि अमेरिका की नयी नीति क्या होती है?
यह तय है कि जिस तरह से ट्रंप सरकार अमेरिका के हितों को केंद्र में रख कर विश्व बाज़ार और वैश्विक समुदाय को अपने नियंत्रण में करने की नीतिको उग्र तरीके से लागू कर रही है, इससे विश्व मंच पर खुला टकराव होते रहने की पूरा आशंका है. जिस तरह से जलवायु परिवर्तन पर समझौते को ट्रंप ने नाकारा है और डब्ल्यूटीओ में विकासशील देशों के खिलाफ़ व्यवहार कर रहा है, उससे भारत सरीखे देशों को यह तय करना होगा कि अब वे क्या नीति अपनाएंगे? यह तय है कि बीच का रास्ता अब अच्छा विकल्प नहीं है.
(लेखक विकास संवाद के निदेशक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)