अद्भुत क्रांतिकारी की वीरगाथा: शिवाजी का रास्ता अपनाकर अंंग्रेजों को भारत से खदेड़ने में जुटे थे वासुदेव बलवंत फड़के
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अद्भुत क्रांतिकारी की वीरगाथा: शिवाजी का रास्ता अपनाकर अंंग्रेजों को भारत से खदेड़ने में जुटे थे वासुदेव बलवंत फड़के

आज 4 नवम्बर को आदि क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के की जयंती है, उनकी शौर्यगाथाओं के अध्याय को जानना जरूरी है.

साल 1984 में भारतीय डाक सेवा ने उनके सम्मान में एक पोस्टल स्टैम्प जारी की थी.

कुलदीप नागेश्वर पवार. जी न्यूज डेस्क 

इतिहास के पन्नों में भारतीय स्वतंत्रता की क्रांति और क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं का एक लंबा अध्याय यूं ही छोड़ दिया गया है, जिसके चलते हम सिर्फ कुछ ही नामों से ही रु-ब-रु हुए हैं और कई सारे बलिदानियों के नाम आज उस सम्मान से वंचित रह गए हैं जिसके वे हकदार है. ऐसे ही गुमनाम से क्रांतिवीरों में से एक थे वासुदेव बलवंत फड़के, जिनका कि आज जन्मदिवस है. वे एक ऐसे महान क्रांतिकारी और मां भारती के सच्चे सपूत थे, जिसने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह कर अंग्रेजी सेना को लोहे के चने चबवा दिए थे. साल 1857 की क्रांति की विफलता के बाद भारतीयों में एक बार फिर संघर्ष की चिंगारी भड़काने में फड़के ने अहम भूमिका निभाई थी.

अंग्रेजों की नौकरी और क्रांतिकारियों की संगत 
वासुदेव बलवंत फड़के का जन्म 4 नवंबर, 1845 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के शिरढोणे गांव में हुआ था. वनों और पहाड़ों में घूमने के शौकीन बालक वासु (वासुदेव बलवन्त फड़के) बचपन से ही बड़े बहादुर थे. कल्याण और पुणे में उनकी शिक्षा पूरी हुई. वासु के पिता चाहते थे कि वह एक व्यापारी की दुकान पर दस रुपए मासिक वेतन की नौकरी कर लें, लेकिन वासु ने यह बात नहीं मानी और मुम्बई आ गए. मुम्बई आने के बाद उन्होंने 15 साल पुणे के मिलिट्री एकाउंट्स डिपार्टमेंट में नौकरी की. इस सबके दौरान फड़के लगातार अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के सम्पर्क में रहे. इस बीच उन पर महादेव गोविन्द रानाडे का खास प्रभाव हो गया. क्रांतिकारियों की संगत से फड़के के मन में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का वो बीज अंकुरित हो गया था, जो पहले ही ब्रिटिश राज के खिलाफ बग़ावत के लिए पड़ा था. 

मां की मौत, हृदय पर वज्रपात 
ऐसे में एक और घटना हुई और इस घटना ने फड़के के पूरे जीवन को ही बदल दिया. वो साल था 1871, एक शाम उनकी माँ की तबियत खराब होने का तार उनको मिला. इसमें लिखा था कि वासु तुम शीघ्र घर आ जाओ, नहीं तो माँ के दर्शन भी शायद न हो सकेंगे. इस तार को पढ़कर फड़के भावनात्मक तौर पर विचलित हो गए और अपने अंग्रेज़ अधिकारी के पास छुट्टी की दरखास्त देने के लिए गए, लेकिन अंग्रेज़ तो भारतीयों को अपमानित करने, उनका शोषण करने के मौके ढूँढ़ते थे. उस अंग्रेज़ अधिकारी ने उन्हें छुट्टी नहीं दी, फिर भी वासुदेव दूसरे दिन अपने गांव चले आए. जब वहांं पहुंचे तब तक बहुत देर हो चुकी थी. माँ तो अपने प्यारे वासु को देखे बिना ही इस दुनिया को छोड़ गईं. यह घटना फड़के के हृदय पर वज्रपात से कम नहीं थी. अंग्रेजों की गुलामी की एक बड़ी कीमत चुका चुके फड़के ने तभी वह अंग्रेजी नौकरी छोड़ दी और देश में स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर ब्रिटिश राज के खिलाफ जंग की तैयारी शुरू कर दी. उन्हें देशी राज्यों से कोई सहायता नहीं मिली तो फड़के ने शिवाजी का मार्ग अपनाकर आदिवासियों की सेना संगठित करने की कोशिश शुरू की.

अंग्रेज़ों के गाल पर जोरदार हिंदुस्तानी तमाचा
साल 1879 में अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह की घोषणा के साथ ही फड़के ने अब पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूमकर नवयुवकों से विचार-विमर्श किया और उन्हें संगठित करने का प्रयास शुरु किया. वासुदेव बलवंत फड़के के बनाए ‘रामोशी’ नाम के क्रान्तिकारी संगठन में  महाराष्ट्र की कोळी, भील तथा धांगड जातियों के युवाओं ने शामिल होना शुरू किया. स्वतंत्रता संग्राम के लिए धन एकत्र करने के लिए ये संगठन धनी अंग्रेज साहुकारों को लूटा करते थे. महाराष्ट्र के सात ज़िलों में फड़के की सेना का ज़बरदस्त प्रभाव फैल चुका था, जिससे अंग्रेज़ अफ़सर सहम गए थे. इस पर विमर्श करने के लिए एक सरकारी भवन में उन्होंने बैठक बुलाई. तारीख थी 13 मई, 1879, ठीक रात 12 बजे वासुदेव बलवन्त फड़के अपने साथियों सहित वहांं आ पहुंचे और अंग्रेज़ अफ़सरों को मारकर उस भवन को आग लगा दी. उसके बाद अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ने पर पचास हज़ार रुपए का इनाम घोषित किया. अब तक फड़के का संगठन आर्थिक रुप से भी सुदृढ़ हो चुका था, हुआ ये कि दूसरे ही दिन मुम्बई में फड़के के हस्ताक्षर लिखे इश्तहार लगे मिले, जिसमें लिखा था - " जो अंग्रेज़ अफ़सर ‘रिचर्ड’ का सिर काटकर लाएगा, उसे 75 हज़ार रुपए का इनाम दिया जाएगा." अंग्रेज़ अफ़सर के गाल पर यह एक जोरदार हिंदुस्तानी तमाचा था.

गद्दार की मुखबिरी ने पकड़वाया
वासुदेव बलवंत फड़के की सेना और अंग्रेजी सेना में कई बार मुठभेड़ हुई. कितनी ही बार अंग्रेजी सेना को इन्होंने पीछे हटने पर मजबूर किया. कुछ वक्त के बाद फड़के की सेना का गोला-बारूद धीरे-धीरे खत्म होने लगा. ऐसे में उन्होंने कुछ समय शांत रहने में ही समझदारी मानी और वे पुणे के पास के आदिवासी इलाकों में छिप गए. फड़के को तब विशेष प्रसिद्धि मिली जब उन्होने पुणे नगर को कुछ दिनों के लिए अपने नियंत्रण में ले लिया था. दिन था 20 जुलाई, 1879 का, जब फड़के बीमारी की हालत में एक मंदिर में आराम कर रहे थे. किसी गद्दार साथी ने मुखबिरी करते हुए उनके यहाँ होने की खबर ब्रिटिश अफसरों तक पहुँचा दी और उसी समय उनको गिरफ्तार कर लिया गया. उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और फाँसी की सजा सुनाई गई.

कालापानी की कुख्यात जेल में त्यागे प्राण
फड़के के खिलाफ कोर्ट में एक भी गवाह नहीं मिल पाया था, लेकिन फड़के को एक आदत थी. 15 साल क्लर्की करने के बाद उनको अपना हर हिसाब डायरी में लिखने की आदत बन गई थी. वैसे भी वो लूट के पैसे का पूरा हिसाब रखना चाहते थे ताकि उनकी फौज में विद्रोह ना हो. वो डायरी किसी तरह अंग्रेज अधिकारी डेनियल के हत्थे चढ़ गई और डेनियल के साथ-साथ अंग्रेजी जज भी फड़के के कारनामे पढ़ कर दंग रह गए. जिसे वो महज एक डाकू समझ रहे थे, वो तो अंग्रेजों को भारत से ही खदेड़ने की महायोजना में जुटा हुआ था. बाद में इस मामले में एक विख्यात वकील महादेव आप्टे ने उनकी पैरवी की, जिसके बाद उनकी मौत की सजा को कालापानी की सजा में बदल दिया गया और उन्हें अंडमान की जेल में भेजा गया. 17 फरवरी, 1883 को सजा काटते हुए कालापानी की कुख्यात जेल के अंदर ही देश का यह वीर सपूत अपने प्राणों का उत्सर्ग कर गया. साल 1984 में भारतीय डाक सेवा ने उनके सम्मान में एक पोस्टल स्टैम्प भी जारी किया था. दक्षिण मुंबई में उनकी एक मूर्ति की स्थापना भी की गयी.

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