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नई दिल्ली: कई बार झूठ इतनी जोर से बोला जाता है और इतनी बार बोला जाता है कि वही सच लगने लगता है और असल सच कहीं दब जाता है. कुछ सालों के बाद लोग उस झूठ को ही सच मान लेते हैं. पिछले 10 दिनों में दो ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनका कहीं पर विश्लेषण नहीं हुआ.
हिजाब विवाद पर कर्नाटक हाई कोर्ट के तीन Judges को हिजाब के ख़िलाफ़ फैसला सुनाने के लिए जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं. अब उन्हें Y श्रेणी की सुरक्षा में रखा गया है. इसी तरह The Kashmir Files फिल्म के निर्देशक, विवेक अग्निहोत्री को कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार का सच दिखाने के लिए जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं. उन्हें भी Y श्रेणी की सुरक्षा में रखा गया है. ये धमकियां वो लोग दे रहे हैं, जो वर्षों से असहनशीलता का मुद्दा उठाते रहे हैं.
यानी हमारे देश में सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर कई दुकानें तो खुली हुई हैं. लेकिन सच ये है कि आज The Kashmir Files बनाने वाले फिल्म निर्देशक, विवेक अग्निहोत्री को भी इस देश में सुरक्षा लेनी पड़ रही है. वहीं हिजाब के मामले पर फैसला देने वाले कर्नाटक हाई कोर्ट के तीन Judges को भी सुरक्षा लेनी पड़ रही है. सोचिए इस देश का क्या हाल हो गया है कि यहां जो लोग सहनशीलता और अभिव्यक्ति की आज़ादी की बातें करते हैं, उनसे ही इस देश के Judges और फिल्म मेकर्स की जान को खतरा हो गया है.
कर्नाटक हाई कोर्ट के जिन तीन Judges ने पिछले हफ्ते हिजाब मामले पर फैसला सुनाते हुए ये कहा था कि इस्लाम धर्म में हिजाब अनिवार्य नहीं है. इसलिए स्कूलों में मुस्लिम छात्राएं, हिजाब पहन कर पढ़ाई नहीं कर सकतीं. अब उन तीनों Judges को जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं. इस मामले में कर्नाटक पुलिस को एक वीडियो भेजा गया है, जिसमें दो व्यक्ति ये कह रहे हैं कि उन्हें पता है कि जिन Judges ने हिजाब मामले पर मुसलमानों के खिलाफ़ फैसला दिया है, वो जज Morning Walk पर कहां जाते हैं.
पुलिस के मुताबिक इस वीडियो में ये लोग कर्नाटक हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रितुराज अवस्थी को भी जान से मारने की बात कह रहे हैं. शिकायत में कहा गया है कि पिछले साल जिस तरह झारखंड हाई कोर्ट के एक जज की उस समय हत्या कर दी गई थी, जब वो Morning Walk पर गए थे. ठीक उसी तरह कर्नाटक में भी हो सकता है. सोचिए, इस देश में जो लोग दिन-रात लोकतंत्र को खतरे में बताते हैं, संविधान को ख़तरे में बताते हैं, Tolerance यानी सहनशीलता की बड़ी बड़ी बातें करते हैं. वही लोग आज हिजाब मामले पर कोर्ट के फैसले को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. इन लोगों ने अब Judges को ही डराना शुरू कर दिया है.
कर्नाटक पुलिस ने इस मामले में दो लोगों को गिरफ्तार करने की जानकारी दी है. राज्य सरकार ने भी चीफ जस्टिस समेत तीनों Judges को Y श्रेणी की सुरक्षा देने का फैसला किया है. हालांकि, बात सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं है.
The Kashmir Files की टीम को भी जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं. इस फिल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने बताया है कि उन्हें लगातार धमकियों भरे Messages भेजे जा रहे हैं और सोशल मीडिया पर भी उनके खिलाफ नफरत का माहौल बनाया जा रहा है, जिसकी वजह से भारत सरकार ने उन्हें Y श्रेणी की सुरक्षा देने का फैसला किया है. यानी इस देश में जो लोग खुद को अभिव्यक्ति की आज़ादी का सबसे बड़ा Brand Ambassador बताते हैं और सहनशीलता की बातें करते हैं, आज वही लोग इतने असहनशील हो गए हैं कि उनसे देश के Judges और फिल्म मेकर्स को ख़तरा हो गया है.
इन लोगों के लिए हमारे देश की अदालतें और फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग तब तक ईमानदार और निष्पक्ष थे, जब इनके पक्ष की बात होती थी. जब इनकी विचारधारा की फिल्में बनाई जाती थीं और उन्हें बड़े बैनर और बड़े सुपरस्टार्स के साथ रिलीज़ किया जाता था तो ये Creative Freedom के नाम पर ऐसी फिल्मों की तारीफ करते नहीं थकते थे. लेकिन आज जब एक ऐसी फिल्म आई है, जो कश्मीर पर इनके Fake Narrative को एक्सपोज करती है या अदालत ने हिजाब मामले में इनके खिलाफ फैसला दिया है तो इन्हें ये मंज़ूर नहीं है और ये पूरा गैंग असहनशील हो गया है.
वैसे हमारे देश में एक खास विचारधारा के लोगों की ये असहनशीलता नई नहीं है. वर्ष 1990 में जब कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से भगाया जा रहा था, उस समय रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू की भी हत्या कर दी गई थी. उनकी गलती सिर्फ इतनी थी कि उन्होंने आतंकवादी मकबूल भट्ट को फांसी की सजा सुनाई थी. लेकिन इसके बाद उन्हें मार दिया गया और उनकी पत्नी को भी अगवा कर लिया गया. उनकी पत्नी के बारे में आज तक किसी को कुछ पता नहीं चल पाया है. सोचिए, 32 वर्षों से एक दिवंगत जज की पत्नी के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है. लेकिन क्या अभिव्यक्ति की आजादी की बात करने वाले लिबरल्स और बुद्धिजीवियों ने इसे मुद्दा बनाया?
इसके विपरीत वर्ष 2006 में जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख़ अब्दुल्लाह ने एक इंटरव्यू में कहा था कि आतंकवादी अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज का भी वही हाल होगा, जो कश्मीर में मकबूल भट्ट को फांसी की सजा देने वाले नीलकंठ गंजू का हुआ था. अफजल गुरु ने वर्ष 2001 में देश की संसद पर हमले को अंजाम दिया था.
हमारे देश में कई दशकों तक इस सच को स्वीकार नहीं किया गया कि कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर ज़ुल्म हुए हैं. जबकि ये वो दौर था, जब कश्मीरी पंडितों को अपने पिता और रिश्तेदारों की अस्थियां विसर्जित करने के लिए भी आतंकवादियों से मंज़ूरी लेनी पड़ती थी. उस समय के एक अखबार में प्रकाशित हुई अपील इसका सबसे बड़ा सबूत है. तब आतंकवादियों ने टीका लाल टिक्कू नाम के एक कश्मीरी पंडित की खुलेआम हत्या कर दी थी और उनके पुत्र मोहन लाल टिक्कू इतने डरे हुए थे कि उन्होंने आंतकवादियों से ये इजाज़त मांगी थी कि वो हरिद्वार जाकर अपने पिता की अस्थियां विसर्जित करना चाहते हैं, इसलिए उन्हें कश्मीर से निकलने दिया जाए और फिर बाद में वापस भी आने दिया जाए.
कश्मीर के इस भयानक दौर को भारत के लोगों से कई दशकों तक छिपा कर रखा गया. आज इस फिल्म के माध्यम से ये सच सबके सामने आ चुका है. किसी भी देश और समाज को मापने के दो ही पैमाने होते हैं. एक होता है, चुनाव, जहां लोग वोट का इस्तेमाल करके अपना मूड देश को बताते हैं और दूसरा पैमाना होता है, सिनेमा या कला, जहां लोग ये बताते हैं कि उन्हें क्या अच्छा लगता है. इन दोनों ही पैमानों पर देश के लोगों ने ये बताया है कि अब भारत बदल रहा है और उसे कश्मीर और दूसरे मुद्दों पर वो Narrative मंजूर नहीं है, जिसे वर्षों से चलाने की कोशिश की जाती रही है. पांच राज्यों के चुनावी नतीजे और The Kashmir Files का हिट होना यही बताता है कि अब भारत के लोगों में जागृति आ रही है. हमारे देश के लोग सही मायनों में धर्मनिरपेक्षता की सही परिभाषा और उसके मायनों को समझ पा रहे हैं.
आज देशभर में इस फिल्म की बात हो रही है. दशकों के बाद ऐसा हुआ है, जब एक फिल्म, जिसमें बड़ी Starcast नहीं है, कोई बड़ा बजट नहीं है. इसे किसी बड़े फिल्म निर्माता और निर्देशक ने नहीं बनाया है. ना ही इस फिल्म के पीछे कोई बहुत बड़ा प्रोडक्शन हाउस है. ना ही इसकी कोई पब्लिसिटी और Marketing हुई है. लेकिन इस सबके बावजूद ये फिल्म एक बहुत बड़ी ब्लॉकबस्टर साबित हुई है.
इससे पहले सिनेमा की दुनिया में ऐसा 47 वर्ष पहले 1975 में हुआ था, जब एक फिल्म ने देश में धार्मिक माहौल बना दिया था. आज कश्मीर फाइल्स ने देश में राष्ट्रवादी माहौल पैदा कर दिया है. इस फिल्म का नाम था, जय संतोषी मां और ये 15 अगस्त 1975 को उसी दिन रिलीज़ हुई थी, जब फिल्म शोले बड़े पर्दे पर आई थी. यानी ये दोनों फिल्में एक साथ रिलीज़ हुई थीं. लेकिन दोनों में एक बहुत बड़ा अंतर था.
शोले एक बड़े बैनर की फिल्म थी, जिसे फिल्म निर्देशक रमेश सिप्पी ने डायरेक्ट किया था. इस फिल्म को बनाने पर तीन करोड़ रुपये खर्च हुए थे. इसमें धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार, हेमा मालिनी और जया बच्चन जैसे बड़े-बड़े सुपरस्टार थे. इस फिल्म की कहानी सलीम-जावेद ने लिखी थी और इसे म्यूजिक उस समय के मशहूर संगीतकार आर.डी बर्मन ने दिया था. यानी शोले एक बहुत बड़े बैनर की फिल्म थी.
जबकि शोले के मुकाबले जय संतोषी मां काफ़ी लो बजट फिल्म थी. इसे बनाने पर केवल पांच लाख रुपये खर्च हुए थे. इसमें कोई बड़ी स्टारकास्ट नहीं थी. ना ही इस फिल्म की कोई पब्लिसिटी हुई थी. इस फिल्म के डायरेक्टर विजय शर्मा को लग रहा था कि ये फिल्म एक हफ्ते भी सिनेमा हॉल्स में टिक नहीं पाएगी क्योंकि इस फिल्म के पहले शो में सिर्फ़ 40 दर्शक थे. पहले दिन इस फिल्म ने 96 रुपये का कारोबार किया था. इसके बाद दूसरे दिन 110 रुपये और तीसरे दिन ये फिल्म 200 रुपये का ही कारोबार कर पाई थी.
तीन बाद अचानक ऐसा हुआ कि फिल्म को देखने सिनेमा Halls पर भीड़ उमड़ पड़ी. लोग बैलगाड़ियों पर बैठकर गांवों से शहरों में इस फिल्म को देखने के लिए आने लगे. और कहा जाता है कि लोग सिनेमा हॉल में जाने से पहले अपने जूते चप्पल बाहर ही उतार देते थे. यानी जिस फिल्म के चलने की कोई उम्मीद नहीं थी, उसने लोगों पर ऐसा चमत्कार किया कि 5 लाख रुपये की लागत से बनी इस फिल्म ने 10 करोड़ रुपये कमा लिए. ये फिल्म उस साल, शोले के बाद सबसे ज्यादा कारोबार करने वाली फिल्म बन गई. इसके अलावा इस फिल्म का लोगों पर ऐसा प्रभाव हुआ कि देश में संतोषी मां के नए मन्दिर बनाए जाने लगे और लोगों ने अपनी बेटियों का नाम संतोषी रखना शुरू कर दिया.
जिस दौर में जो फिल्में आती हैं, वो उस दौर की सामाजिक स्थिति के बारे में बताती हैं. जब जय संतोषी मां फिल्म आई, तब रोटी, कपड़ा और मकान का दौर था. लोगों को रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए और इस नाम से वर्ष 1974 में एक फिल्म भी आई थी. ऊपर से भ्रष्टाचार भी उस समय एक बड़ा मुद्दा था, इसलिए Angry Yound Man का उदय हुआ और लोगों ने अमिताभ बच्चन को इस किरदार में काफ़ी पसन्द किया.
इसके अलावा उस समय देश की हालत काफ़ी ख़राब थी. 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के बाद देश में महंगाई बढ़ रही थी और लोगों के सामने रोज़गार का भी संकट था. महंगाई और बेरोज़गारी की वजह से ग़रीबी काफ़ी बढ़ गई थी. इससे लोगों में सरकार के खिलाफ काफी रोष था. इसी दौर में भारत में औद्योगिकरण की भी शुरुआत हुई, लेकिन इसकी रफ्तार काफ़ी धीमी थी. जिससे लोगों को इसका ज्यादा लाभ नहीं मिल रहा था.
दूसरी तरफ देश में राजनीतिक अस्थिरता काफी बढ़ गई थी. इस फिल्म की रिलीज से लगभग डेढ़ महीने पहले 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी थी. जिसके तहत लोगों पर अत्याचार किए जा रहे थे.
यानी 1975 के हालात ऐसे थे कि लोगों को ये लगता था कि अब भगवान ही उनका मालिक है. जब जय संतोषी मां फिल्म आई तो लोगों को एक उम्मीद मिली कि अगर इस फिल्म की तरह उनके घर भी संतोषी मां आ जाएं तो उनका वर्तमान और भविष्य संवर सकता है.
यानी इस दौर की कुंठा, नाराज़गी और असंतोष का नतीजा था, जिसने जय संतोषी मां फिल्म को लोगों के बीच लोकप्रिय बनाया. यही आज हो रहा है. वर्ष 1990 के बाद से जिस तरह हमारे देश में कश्मीर पर Fake Narrative चलाया गया. अल्पसंख्यकों को ये कहते हुए Glamourise किया गया कि वो तो कभी गलत हो नहीं सकते जबकि बहुसंख्यकों को ये कहते हुए दबाया गया कि वो तो कभी पीड़ित हो नहीं सकते, उससे आम लोगों के मन में जो कुंठा पैदा हुई, उसे इस फिल्म ने बाहर निकालने का काम किया है. यानी जो गुस्सा है, अगर वो लक्ष्मण रेखा को पार कर जाए तो देश के लोग इसी तरह से संगठित और एकजुट होकर अपना मत और अपनी राय प्रकट करते हैं.
भारत को कोरोना वायरस की महामारी से लड़ते हुए दो वर्ष पूरे हो जाएंगे. दो साल पहले 22 मार्च 2020 को भारत ने कोरोना पर रोकथाम के लिए पहली बार जनता कर्फ्यू लगाया था. उस समय परिस्थितियां भारत को वक़्त की कसौटी पर परख रही थीं. सबको यही लग रहा था कि कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ इस युद्ध में भारत दुनिया के लिए सबसे कमज़ोर कड़ी साबित होगा. आपको याद होगा भारत की कितनी आलोचना हुई थी. हमारे देश के बुद्धिजीवी, विपक्षी दलों के नेता और एक खास विचारधारा के लोग ये कहते हुए भारत का मज़ाक़ उड़ा रहे थे कि ये जनता कर्फ्यू, भारत सरकार की सबसे बड़ी गलती साबित होगा. इससे कोरोना का संक्रमण भी नहीं रुकेगा.
यही नहीं तब लोगों द्वारा थालियां बजाने का भी मजाक बनाया गया और ये कहा गया कि थाली बजाने से कोरोना कैसे रुकेगा. लेकिन ये लोग तब ये नहीं समझ पाए कि जनता कर्फ्यू का मकसद भारत के लोगों को इस लड़ाई में एकजुट करके तैयार करना था और ऐसा ही हुआ.
आज कोविड पर रोकथाम से लेकर वैक्सीनेशन के मामले में भारत दुनिया के बड़े बड़े देशों से भी मजबूत स्थिति में है. भारत अब तक वैक्सीन की 181 करोड़ डोज लगा चुका है. इस मामले में वो सिर्फ चीन से पीछे है. चीन में वैक्सीन की 320 करोड़ डोज लग चुकी हैं और अमेरिका में 56 करोड़ डोज लगी हैं.
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हमारे देश के लिए ये सफलता इसलिए भी बड़ी है क्योंकि जब भारत में कोरोना वायरस के मामले बढ़ने शुरू हुए थे, तब अमेरिका के एक Health Care Institute ने ये अनुमान जताया था कि भारत में इससे 60 करोड़ लोग संक्रमित हो सकते हैं जबकि 50 लाख लोगों की जान सकती है. वहीं ताजा अपडेट ये है कि इस बीमारी से दो वर्षों में लगभग पांच लाख लोगों की जान गई है. जबकि अमेरिका में ये आंकड़ा 10 लाख से थोड़ा कम है. कश्मीरी पंडितों से लेकर, जनता कर्फ्यू तक इन लोगों ने देश में नकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश की, लेकिन आज देश के लोगों ने इनके मुंह पर तमाचा मार कर इनकी सच्चाई इन्हें बता दी है.
आज जब देश के लोग दिल खोल कर इस फिल्म को प्यार दे रहे हैं, तब हमारे देश के विपक्षी नेता इस फिल्म को साम्प्रदायिक बता रहे हैं और ये कह रहे हैं कि कश्मीर फाइल्स भारत को बांटने का काम कर रही है.
इस बदलाव का ही असर है कि अभिनेता आमिर खान ने भी इस फिल्म का तारीफ़ की है और कहा है कि देश के सभी लोगों को इस फिल्म को ज़रूर देखना चाहिए. यानी हमारे देश के जो लिबरल्स ये उम्मीद कर रहे थे कि उन्हें आमिर ख़ान का साथ इस बार भी मिल जाएगा, उन्हें निराश होना पड़ा है.