चंडी दरबार जहां से नहीं जाता कोई खाली हाथ, सुरंग के जरिये राजा आता था पूजन के लिए
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चंडी दरबार जहां से नहीं जाता कोई खाली हाथ, सुरंग के जरिये राजा आता था पूजन के लिए

 मां चंडी के नाम से विख्यात यह स्थान अनेक चमत्कार किवदंतिया सहेजे है. मां का यह रूप कष्टों के निवारण का प्रतिरूप माना जाता है. 

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इरशाद हिन्दुस्तानी/बैतूल:  भारतीय दर्शन में  शक्ति को दिव्य और अत्यंत उदात्त माना गया है. माता के चंडी रूप को दुष्टों और कष्टों के संहारक के रूप में भी देखा जाता है. ऐसे में बैतूल के पास चंडी माता का दरबार एक ऐसी ही श्रद्धा का केंद्र है जहां रोज हजारों श्रद्धालु अपने कष्टों के निवारण के लिए जुटते है और अपनी मनोकामनाएं पूरी कर लौटते है. 14 सौ साल पुराने इस मंदिर में कई चमत्कार आज भी देखने को मिलते है, तो आइए जानते हैं क्या है चंडी के इस दरबार की मान्यता. 

बैतूल के चिचोली नगर से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर सुरम्य प्राकृतिक स्थान में बने चंडी मंदिर में देवी की प्राचीन मूर्तियों को देखकर आत्मा को मिलने वाले संतोष की कल्पना नहीं की जा सकती. मां चंडी के नाम से विख्यात यह स्थान अनेक चमत्कार किवदंतिया सहेजे है. मां का यह रूप कष्टों के निवारण का प्रतिरूप माना जाता है. करीब 1400 साल पहले यहां खुद ही प्रकट हुई प्रतिमाएं आस्था का अघात केंद्र है. यहां सच्चे मन से जो भी मनोकामनाएं लेकर पहुचता है वह पूरी होती है. बताया जाता है कि इस इलाके में कभी गोंड राजा ईल का राज हुआ करता था. दूधियागढ़ के राजा के रूप में प्रसिद्ध इस राजा की यह देवी चंडी उनकी आराध्य कुल देवी कहलाती थी. राजा न्यायप्रिय और प्रजा पालक थे. राजा ईल के महल के अवशेष आज भी यहां कायम है! जिसे दुधिया गढ़  के नाम से जाना जाता है. 

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कहते हैं, कि दूधिया गढ़ महल से देवी के मंदिर तक राजा पूजा करने के लिए एक सुरंग के माध्यम से जाते थे. मंदिर के पास ही राजा ने दो कमरों का निर्माण भी कराया था, जिन्हे देवल कहा जाता है।यहां हूबहू बने इन कमरों में से एक मे आवाज गूंजती है तो दूसरे में सामान्य आवाज आती है. यह चमत्कार यहां आज भी आने वाले भक्तों को अचरज में डालता है. चंडी के इस दरबार मे दूर दूर से लोग अपनी मनौतियां लेकर पहुचते है. वैसे तो यहां रोज भक्तों का जमावड़ा लगता है लेकिन रविवार और बुधवार यहां श्रद्धालुओ का तांता लगा रहता है. इनमें अपनी मनोकामना पूरी होने के बाद आने वाले भक्तों की तादाद खास होती है. ऐसे भक्त यहां आकर अपनी मनोकामना पूरी होने के बाद बकरे और मुर्गे की बलि चढ़ाते है, जिसे स्थानीय भाषा मे खिलौनों की बलि देना कहा जाता है. 

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कहा जाता है कि वर्षों पहले पास के गांव सिंगार चावड़ी गांव के लोगों ने जब यह स्थान देखा और इसके बारे मे जाना तो उन्होने मिलकर निर्णय लिया कि देवी को यहां से ले जाकर उनके गांव में स्थापित कर दिया जाए, ताकि देवी की अच्छी तरह से सेवा हो सके. नियत समय पर गांव के दो दर्जन के करीब लोग बैलगाड़ी लेकर देवी की मूर्ति उठाकर ले जाने के लिए यहां पहुंचे. उन्होने जैसे ही देवी चंडी की मूर्ति को उठाकर  बैल गाड़ी में रखा. अचानक सब लोगों पर  आफत का ऐसा पहाड़ टूटा कि सब घबरा गए. साथ लाये गए बैल मर गए और बैलगाड़ियों के पहिये अपने आप टूट गए. इसे देखकर बुजुर्गों को समझते देर नहीं लगी कि यह देवी का प्रकोप है ,जो मूर्ति को अपने स्थान से हटाए जाने पर नाराज हैं, तत्काल मुक्ति को वापस पूर्व स्थान पर रख दिया गया. ऐसे कई चमत्कार इस दरबार के बारे में कहे सुने जाते रहे है. जाहिर है आस्था का यह दरबार आज भी भक्तों को अपनी ओर खींचे चला आ रहा है.

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