हिंदू धर्म में श्राद्ध का विशेष महत्व होता है. जानिए श्राद्ध से जुड़ी सभी बातें.
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नई दिल्ली: 2020 में सब कुछ बदल गया है. हमारे जीने के तौर-तरीकों से लेकर पूजा-पाठ से जुड़े संयोगों और मुहूर्तों तक में बदलाव आया है. अमूमन चार महीने रहने वाला चतुर्मास इस साल पूरे पांच महीने का हो गया है. वहीं, लीप वर्ष के कारण अधिक मास दो महीने का हो गया है. जहां आमतौर पर श्राद्ध (shradh) समाप्ति के अगले दिन नवरात्र आरंभ हो जाते थे, वहीं इस बार नवरात्र लगभग एक महीने के अंतराल के बाद होंगे. ऐसा संयोग 160 साल बाद पड़ा है. ज्योतिर्विद मदन गुप्ता सपाटू से जानिए श्राद्ध से जुड़ी सभी बातें.
श्राद्ध पक्ष क्या है?
पूर्वजों की आत्मा की शांति और उनके तर्पण के निमित्त श्राद्ध किया जाता है. यहां श्राद्ध का अर्थ श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों के प्रति सम्मान प्रकट करने से है. श्राद्ध पक्ष में अपने पूर्वजों को एक विशेष समय में 15 दिनों की अवधि तक सम्मान दिया जाता है. इस अवधि को पितृ पक्ष अर्थात श्राद्ध पक्ष कहते हैं. हिंदू धर्म में श्राद्ध का विशेष महत्व होता है. वैदिक ज्योतिष के अनुसार, जब सूर्य का प्रवेश कन्या राशि में होता है तो उसी दौरान पितृ पक्ष मनाया जाता है. पितरों की आत्मा की शांति के लिए पितृ पक्ष में तर्पण और पिंडदान को सर्वोत्तम माना गया है.
श्राद्ध कब हैं?
पूजा-पाठ में रुचि रखने वाले सभी श्रद्धालु जानना चाहते हैं कि आखिर श्राद्ध कब हैं. इस साल श्राद्ध 2 सितंबर से शुरू होंगे और 17 सितंबर को समाप्त होंगे. इसके अगले दिन 18 सितंबर से अधिक मास शुरू हो जाएगा, जो 16 अक्टूबर तक चलेगा. नवरात्रि का पावन पर्व 17 अक्टूबर से शुरू होगा और 25 अक्टूबर को समाप्त होगा. वहीं, चतुर्मास देवउठनी के दिन 25 नवंबर को समाप्त होंगे.
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क्यों करें श्राद्ध?
आधुनिक युग में श्राद्ध का नाम आते ही अक्सर इसे अंधविश्वास की संज्ञा दे दी जाती है. प्रश्न किया जाता है कि क्या श्राद्ध की अवधि में ब्राह्मणों को खिलाया गया भोजन पितरों को मिल जाता है? मन में ऐसे प्रश्न उठना स्वाभाविक है. एकल परिवारों के इस युग में कई बच्चों को अपने दादा-दादी या नाना-नानी के नाम तक नहीं मालूम होते हैं. ऐसे में परदादा या परनाना के नाम पूछने का तो कोई मतलब ही नहीं है. अगर आप चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियों तक परिवार का नाम बना रहे तो श्राद्ध के महत्व को समझना बहुत जरूरी है. सदियों से चली आ रही भारत की इस व्यावहारिक एवं सुंदर परंपरा का निर्वहन अवश्य करें. श्राद्ध कर्म का एक समुचित उद्देश्य है, जिसे धार्मिक कृत्य से जोड़ दिया गया है. दरअसल, श्राद्ध आने वाली संतति को अपने पूर्वजों से परिचित करवाते हैं. इन 15 दिनों के दौरान उन दिवंगत आत्माओं का स्मरण किया जाता है, जिनके कारण पारिवारिक वृक्ष खड़ा है. इस दौरान उनकी कुर्बानियों व योगदान को याद किया जाता है. इस अवधि में अपने बच्चों को परिवार के दिवंगत पूर्वजों के आदर्श व कार्यकलापों के बारे में बताएं ताकि वे कुटुंब की स्वस्थ परंपराओं का निर्वहन कर सकें.
पितृपक्ष पिंड दान कैसे करें
दिवंगत प्रियजनों की आत्माओं की तृप्ति और मुक्ति के लिए श्रद्धापूर्वक की गई क्रिया का नाम ही श्राद्ध है. श्राद्ध के लिए आश्विनमास का कृष्ण पक्ष तय किया गया है। ज्योतिषीय दृष्टि से इस अवधि में सूर्य कन्या राशि पर गोचर करता है। इसलिए इसे ‘कनागत’ भी कहते हैं. जिनकी मृत्यु तिथि मालूम नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस को किया जाता है. इसे सर्वपितृ अमावस या सर्वपितृ श्राद्ध भी कहते हैं. इस श्रद्धा पर्व के बहाने पूर्वजों को याद किया जाता है. जिनके पास समय अथवा धन का अभाव है, वे भी इन दिनों आकाश की ओर मुख करके दोनों हाथों द्वारा आह्वान करके पितृगणों को नमस्कार कर सकते हैं. श्राद्ध ऐसे दिवस हैं, जिनका उद्देश्य पारिवारिक संगठन बनाए रखना है. विवाह के अवसरों पर भी पितृ पूजा की जाती है.
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वास्तु का रखें ध्यान
दिवंगत परिजनों के विषय में वास्तुशास्त्र का अवश्य ध्यान रखना चाहिए. घर में पूर्वजों के चित्र सदा नैर्ऋत्य दिशा (दक्षिण-पश्चिम) में लगाएं. ऐसे चित्र देवी-देवताओं के चित्रों के साथ न सजाएं. पूर्वज आदरणीय हैं एवं श्रद्धा के प्रतीक हैं मगर वे इष्ट देव का स्थान नहीं ले सकते हैं. जीवित होते हुए न तो अपनी प्रतिमा बनवाएं और न ही अपने चित्रों की पूजा करवाएं.
धार्मिक मान्यताएं
हमारे समाज में हर सामाजिक व वैज्ञानिक अनुष्ठान को धर्म से जोड़ दिया गया था ताकि परंपराएं निभाई जाती रहें. श्राद्धकर्म उसी श्रृंखला का एक भाग है जिसके सामाजिक या पारिवारिक औचित्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी माना जाता है. मान्यतानुसार अगर किसी मनुष्य का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण न किया जाए तो उसे इस लोक से मुक्ति नहीं मिलती है. ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार, देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानि पूर्वजों को प्रसन्न करना चाहिए. हिन्दू ज्योतिष के अनुसार भी पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है. पितरों की शांति के लिए हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल में पितृ पक्ष श्राद्ध मनाए जाते हैं. मान्यता है कि इस दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं ताकि वे अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें. ब्रह्म पुराण के अनुसार, जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधि द्वारा ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दी जाए, वह श्राद्ध कहलाता है. श्राद्ध के माध्यम से पितरों की तृप्ति के लिए भोजन पहुंचाया जाता है. पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है.
श्राद्ध विधि
श्राद्ध में तिल, चावल, जौ आदि को अधिक महत्व दिया जाता है. साथ ही पुराणों में इस बात का भी जिक्र है कि श्राद्ध का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मणों को है. श्राद्ध में तिल और कुश का सर्वाधिक महत्व होता है. श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए. श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है.
श्राद्ध में कौओं का महत्त्व
कौए को पितरों का रूप माना जाता है. मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर कौए का रूप धारण कर नियत तिथि पर दोपहर के समय हमारे घर आते हैं. अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता है तो वे रुष्ट हो जाते हैं. इस कारण श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं को दिया जाता है.
कैसे करें श्राद्ध?
इसे ब्राहमण या किसी सुयोग्य कर्मकांडी द्वारा करवाया जा सकता है. आप चाहें तो स्वयं भी कर सकते हैं.
श्राद्ध विधि (shradh vidhi) के लिए ये सामग्री लें - सर्प-सर्पिनी का जोड़ा, चावल, काले तिल, सफेद वस्त्र, 11 सुपारी, दूध, जल तथा माला. फिर पूर्व या दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें. सफेद कपड़े पर सामग्री रखें. 108 बार माला से जाप करें या सुख-शांति,समद्धि प्रदान करने तथा संकट दूर करने की क्षमा याचना सहित पितरों से प्रार्थना करें। जल में तिल डालकर 7 बार अंजलि दें. शेष सामग्री को पोटली में बांधकर प्रवाहित कर दें. ब्राह्मणों, निर्धनों, गायों, कुत्तों और पक्षियों को श्रद्धापूर्वक हलवा, खीर व भोजन खिलाएं.
श्राद्ध में 5 मुख्य कर्म अवश्य करने चाहिए-
1. तर्पण- दूध, तिल, कुशा, पुष्प, सुगंधित जल पित्तरों को नित्य अर्पित करें.
2. पिंडदान- चावल या जौ के पिंडदान करके जरूरतमंदों को भोजन दें.
3. वस्त्रदानः निर्धनों को वस्त्र दें.
4. दक्षिणाः भोजन करवाने के बाद दक्षिणा दें और चरण स्पर्श भी जरूर करें.
5. पूर्वजों के नाम पर शिक्षा दान, रक्त दान, भोजन दान, वृक्षारोपण या चिकित्सा संबंधी दान जैसे सामाजिक कृत्य अवश्य करने चाहिए.
किस तिथि को करें श्राद्ध?
जिस तिथि को जिसका निधन हुआ हो, उसका श्राद्ध उसी दिन किया जाता है. यदि किसी की मृत्यु प्रतिपदा को हुई है तो उसे उसी तिथि पर श्रद्धा के साथ याद किया जाना चाहिए. देहावसान की तारीख मालूम न होने की अवस्था के लिए भी कुछ सरल नियम बनाए गए हैं. पिता का श्राद्ध अष्टमी और माता का नवमी पर किया जाना चाहिए. जिनकी मृत्यु दुर्घटना, आत्मघात के कारण या अचानक हुई हो, उनका चतुदर्शी का दिन नियत है. साधु-सन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी पर किया जाना चाहिए. जिनके बारे में कुछ भी मालूम नहीं है, उनका श्राद्ध अंतिम दिन अमावस पर किया जाता है. इसे सर्वपितृ श्राद्ध कहते हैं.
श्राद्ध सारिणी
2 सितंबर- पितृ पक्ष श्राद्ध आरंभ- पूर्णिमा- बुधवार
3 सितंबर- प्रतिपदा का श्राद्ध
4 सितंबर- द्वितीया का श्राद्ध
5 सितंबर- तृतीया का श्राद्ध
6 सितंबर- चतुर्थी का श्राद्ध
7 सितंबर- पंचमी का श्राद्ध
8 सितंबर-षष्ठी का श्राद्ध
9 सितंबर- सप्तमी का श्राद्ध
10 सितंबर- अष्टमी का श्राद्ध
11 सितंबर- नवमी का श्राद्ध
12 सितंबर- दशमी का श्राद्ध
13 सितंबर- एकादशी का श्राद्ध
14 सितंबर- द्वादशी का श्राद्ध
15 सितंबर- त्रयोदशी का श्राद्ध
16 सितंबर- चतुर्दशी का श्राद्ध
17 सितंबर- सर्वपितृ श्राद्ध