भोपाल गैस त्रासदी: आंसू सूख गए, पर न्याय नहीं मिला
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भोपाल गैस त्रासदी: आंसू सूख गए, पर न्याय नहीं मिला

गैस कांड की बरसी अब केवल रस्म अदायगी भर हो गई है. हक और न्याय की आवाजें अब थकी हुई, निराशा से भरी नजर आती हैं.

भोपाल गैस त्रासदी: आंसू सूख गए, पर न्याय नहीं मिला

उस काली रात के 34 साल बाद भोपाल गैस त्रासदी एक अराजनैतिक विषय बन गया है. बिना किसी को दोषी ठहराए तमाम राजनीतिज्ञों ने जिन्हें इस मुल्क ने अपने न्याय, हक और समानता के संवैधानिक अधिकारों को पूरा करने की जिम्मेदारी सौंपी है, मान लिया है कि अब यह कोई विषय ही नहीं है, इस पर हम न बोलेंगे, इस पर हम कुछ न करने पर भी एक सवाल नहीं उठाएंगे और धीरे-धीरे इस विषय को एक पूरी पीढ़ी की स्मृति से बिना किसी नतीजे के विलोपित भी कर दिया जाएगा.

यदि सबक के रूप में देखें तो भोपाल गैस त्रासदी का कुल जमा हासिल चंद करोड़ रुपए का मुआवजा भर है. इसके मानवीय, पर्यावरणीय पहलू विमर्श से गायब हैं, इसलिए तमाम किस्म का औद्योगीकरण, शहरीकरण अब भी ठीक उसी ढर्रे पर चल रहा है, जैसा कि 1984 से पहले चलता रहा होगा.

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गैस कांड के वक्त मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह की सरकार थी. उसके बाद प्रदेश ने सुंदरलाल पटवा, दिग्विजय सिंह, उमा भारती, बाबूलाल गौर और किसान पुत्र शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री की कुर्सी से नवाजा, पर कोई भी व्यवस्था, कोई भी व्यक्ति भोपाल गैस त्रासदी से न्याय नहीं कर पाया. और अब तो हम देखते हैं कि 2018 के विधानसभा चुनाव में जिस त्रासदी के लिए दुनियाभर में थू-थू होती है, वह त्रासदी कोई मुद्दा ही नहीं रही. राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों से यह बिंदु लगभग गायब रहा. और अब इस बात की कोई गुंजाइश नहीं कि कोई राजनैतिक व्यवस्था इस सवाल को दुनिया के सामने रख भी पाएगी कि भोपाल के साथ एक ऐतिहासिक अन्याय हुआ है, हिरोशिमा और नागासाकी की ही तरह.

जो लोग भोपाल गैस त्रासदी के बारे में नहीं जानते, उनके लिए बता दें कि यह पिछली सदी की सबसे बुरी घटनाओं में से एक रही है. मध्यप्रदेश की राजधानी में शहर के बीचों-बीच एक कारखाना हुआ करता था, जिसका नाम था युनियन कार्बाइड. 2 और 3 दिसंबर, 1984 की रात जब शहर गहरी नींद में था, उस वक्त एक गैस मिक (मिथाइल आइसोसाइनेट) इस कारखाने से रिसी और देखते ही देखते सर्द हवा में फैलती गई.

सुबह जब भोपाल जागा तो उसके आंगन में सैकड़ों लाशें एक साथ थीं. गैस कांड के आरोपी वारेन एंडरसन को खुद रातोंरात भगाने के आरोप सत्ता पर ही लगाए जाते हैं, और बाद की सरकारें भी केवल एक बार उसे भारत ला पाईं. इस मामले में जिन आठ आरोपियों को दो-दो साल की सजा सुनाई गई थी, उनमें से एक अब भी फरार है. मशीन को चलाने की जिम्मेदारी जिस आपरेटर शकील अहमद कुरैशी की थी, उसे भी कोई सजा नहीं दी जा सकी. पर कुरैशी फरार है, और सीबीआई के पास उस गुनहगार की एक तस्वीर तक नहीं है. सीबीआई बिना उसकी तस्वीर के खोज रही है, कमाल है.

आपको बता दें कि इस मामले में सरकार ने 22121 मामलों को मृत्यु की श्रेणी में दर्ज किया गया था. जबकि 574386 मामलों में तकरीबन 1548.59 करोड़ रुपए की मुआवाज राशि बांटी गई, लेकिन क्या मुआवजा राशि भर बांटा जाना पर्याप्त था.

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रस्म अदायगी भर बन गई है बरसी 
गैस कांड की बरसी अब केवल रस्म अदायगी भर हो गई है. हक और न्याय की आवाजें अब थकी हुई, निराशा से भरी नजर आती हैं. आखिर कब तक कोई यूं ही लड़ता भी रहे. जिंदगी का गर कोई मुआवजा भी हो सकता तो यही सही, लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी विकलांगता को जब आप गैस कांड की बरसी पर लगी मोमबत्ती की रोशनी में देखते हैं तो व्यवस्था और व्यवस्था के पालनहारों से कोफ्त होने लगती है. गैस कांड के बाद भोपाल से इसके खिलाफ उठी आवाजों और तकरीबन इसी वक्त में शुरू हुआ नर्मदा बचाओ आंदोलन का कुल जमा यही कहा जा सकता है कि भले ही वह ऐसी त्रासदियों को रोक पाने, बांधों को और उंचाई तक बनाए जाने से न रोक पाए हों, लेकिन उन्होंने गंभीर सवाल तो खड़े किए ही हैं. अब यह देखना भी तो जिम्मेदारों की ही जिम्मेदारी है कि वह ऐसी घटनाओं से सबक लेते भी हैं या उसे यूं ही छोड़ दिया जाता है.

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भोपाल गैस पीड़ितों के लिए नहीं दौड़ता
भोपाल शहर में पिछले कुछ सालों से दिसंबर के ठीक इसी सप्ताह में एक मैराथन आयोजित की जाती है. इस मैराथन में स्थानीय निकाय भी मदद करता है. अच्छी कोशिश है, शहर और लोगों की सेहत को लेकर यह संजीदा प्रयास है, लेकिन नगर निगम, स्थानीय निकाय कभी भोपाल गैस पीड़ितों के लिए कोई रन भोपाल रन नहीं करते. वह उस 350 मीट्रिक कचरे को लेकर भी कुछ नहीं बोलते-करते हैं जो धीरे-धीरे अब भी फिजा में जहर घोल रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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