लोकतांत्रिक चुनाव में व्यापार का पहलू
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लोकतांत्रिक चुनाव में व्यापार का पहलू

जब ये दिख रहा है कि चुनावी नतीजों से शेयर बाजार में ज्वारभाटा आ जाता है तो चुनाव सर्वेक्षण नतीजे भी तो अनिश्चय में निश्चय का आकलन होते हैं. 

लोकतांत्रिक चुनाव में व्यापार का पहलू

अब तक यह नहीं समझा जा सका है कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों यानी ओपिनियन पोल, मतदान के फौरन बाद सर्वेक्षण यानी एग्ज़िट पोल और यहां तक कि वोटों की गिनती के दौरान पल-पल नतीजों के रुझान बताने के कितने मकसद होते हैं. आमतौर पर एक अनुमान लगाया जाता है कि लोगों के कौतूहल का फायदा उठाने का खेल होता होगा, लेकिन जिस तरह से वैज्ञानिक तरीके से अंदाजा लगाने का दावा करने वाली एजेंसियों के अनुमानों में धरती-आसमान का फर्क दिखता है, बिल्कुल रात-दिन जैसा फर्क दिखता है, उससे शक क्यों न हो कि कौतूहल के अलावा कोई और तो मकसद नहीं होता. हद तो तब हो गई कि इस बार गुजरात चुनाव में वोटों की गिनती के दौरान एक ही समय में अलग-अलग टीवी चैनलों और दूसरे संचार माध्यमों में अलग-अलग रुझान दिखाए जा रहे थे. शुरुआती दो घंटों में तो एक बार सनसनी मच गई. इस दौरान सबसे ज्यादा तूफान शेयर बाजार में मचा. शेयर बाजार जहां लोग घंटे दर घंटे अपना पैसा लगाने और निकालने का व्यापार करते हैं. चुनाव के दौरान व्यापार की ये तो एक बात है ऐसी कई और बातें हो सकती हैं जो पीछे से होती हों.

शेयर बाज़ार और चुनाव सर्वेक्षण
जब ये दिख रहा है कि चुनावी नतीजों से शेयर बाजार में ज्वारभाटा आ जाता है तो चुनाव सर्वेक्षण नतीजे भी तो अनिश्चय में निश्चय का आकलन होते हैं. तो क्यों नहीं हो सकता कि चुनावी सर्वेक्षणों का भी असर शेयर बाजार या भूमिगत सट्टे के धंधे पर पड़ता हो. यह माना ही जाता है कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के रुझान ही तय करते हैं कि किसी पार्टी पर सट्टे का भाव क्या हो. हालांकि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों का शेयर की खरीद-फरोख्त पर भले ही ज्यादा असर न पड़ता हो, लेकिन अपने सर्वेक्षणों के बाद मतदान के दिन जिस तरह से एग्ज़िट पोल बड़ी तत्परता से किए जाते हैं उससे शेयर बाजार हिल जाता है, लेकिन इस बार गुजरात चुनाव में वोटों की गिनती के दौरान ही नतीजों में जो उलट-पुलट दिखाई गई उससे शेयर बाजार धड़ाम हो गया, जिन्होंने भाजपा की ताबड़तोड़ जीत के आधार पर शेयरों में निवेश किया था उनके हजारों करोड़ रुपये एक घंटे में डूब गए. आगे और ज्यादा न डूब जाएं सो उन्होंने फटाफट शेयर बेचे होंगे, लेकिन तब तक वे लुट चुके थे. बाद में जब दिखाया जाने लगा कि भाजपा की हालत इतनी भी खराब नहीं है तो शेयर बाजार फिर संभला. और तब जिन्होंने घबराहट में बिके सस्ते शेयर खरीदे थे उन्हें भारी मुनाफा हो गया. उधर सट्टा चूकीं अवैध काम है सो इसके बारे में खुलकर लिखा नहीं जाता फिर भी चुनाव के विश्लेषण के बहाने राजनीतिक दलों का भाव बता लिया जाता है. इसका तो अंदाजा लगाना ही मुश्किल है कि इस खेल में कितने लुटते होंगे.

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जांच- पड़ताल की दरकार
जब कालाधन और बिना टैक्स दिए कारोबार पर निगरानी की इतनी चौकसी हो रही है तो एक जांच-पड़ताल इसकी भी क्यों नहीं होनी चाहिए कि चुनाव के नतीजों को लेकर ही कितनी रकम इधर से उधर हो रही है. यह सिर्फ पैसे का ही मामला नहीं है. लोकतंत्र के महत्‍वपूर्ण पर्व में मतदाता की अपनी समझ पर पीछे से असर डालने के अंदेशे पर हमारा गौर करना बनता है. हालांकि इसकी पड़ताल पुलिस की किसी जांच से नहीं हो सकती. उसके पहले विशेषज्ञों को शोध करना होगा कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों का अबोध भारतीय मतदाता पर पीछे से किस तरह असर पड़ता है. पड़ता है तो कितना पड़ता है. कहीं इतना असर तो नहीं पड़ता कि राजनीतिक दल अपने पक्ष में सर्वेक्षण करवाने के लिए खर्चा करते हों. इस घपले को पकड़ना तो बहुत ही कठिन है, लेकिन कम से कम यह वैज्ञानिक शोध तो संभव है ही कि मतदाता के स्वाभाविक निर्णय लेने की प्रक्रिया पर सर्वेक्षण के जरिए प्रचार का असर कितना पड़ता है.

सिर्फ रहस्य रोमांच का मामला नहीं
बिल्कुल हो सकता है कि बात रहस्य रोमांच के अलावा दूसरी हो. हर नाटक का सबसे बड़ा गुण रहस्य बनाए रखना होता है, लेकिन यह नहीं मान सकते कि चुनाव सर्वेक्षण कोई साहित्यिक रचना होते हैं. साहित्य में छूट होती है कि वह किसी सच्चाई का वर्णन करने के लिए झूठ भी बुन ले. इस कल्पना रूपी झूठ की तारीफ भी होती है. उन साहित्यकारों का हम सम्मान भी करते हैं, लेकिन लोकतांत्रिक चुनाव में ऐसी कल्पनाओं के कितने बुरे नतीजे हो सकते हैं यह हमें पक्के तौर पर नहीं पता. यह देखना विद्वान और विशेषज्ञ लोगों का काम है और हमारा काम इतना भर हो सकता है कि उन्हें जानकारी दें कि समाज में कुछ ऐसा होने लगने का अंदेशा है.

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तर्कपूर्ण सोच पर चोट का अंदेशा
लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में हमने वोटर को संप्रभु मान रखा है. यह पहले से मान रखा है कि अपने सुख-दुख की प्रतीति वह खुद ही कर सकता है. अपनी आकांक्षा का निर्धारक वह खुद ही है. लोकतांत्रिक मतदान से वह अपना जो भविष्य तय करता है वह तो है ही उसके साथ-साथ यह भी है कि मतदाता अपने सुख-दुख की अभिव्यक्ति भी वोट देकर करता है. ऐसे में अगर यह स्थिति बना दी जाए कि वह अपना सुख-दुख भूलकर यह ढ़ूंढने लगे कि चुनाव में कौन जीतने वाला है और उसी को वोट देकर निश्चिंत हो जाए कि बाद में उसे अपने फैसले के गलत निकलने का अफसोस नहीं होगा तो उसका अपना निर्णय तो ग़ायब ही हो गया. चुनाव में किसी के पक्ष में हवा बनाना कि ज्यादातर बेचारे मतदाता अकेले पड़ जाने के अंदेशे से डर जाएं और प्रचारक नुमा सर्वेक्षण एजेंसियों के मुताबिक वोट दे आएं, यह अंदेशा भी हो सकता है. अगर यह बात सही पाई जाती है तो विकास, खेती, व्यापार, सुरक्षा, आपसी सदभाव, रोज़गार जैसे मुददे तो फिजूल ही साबित हो जाएंगे. हबाबाजी तर्क पर चोट कर देती है. कई बार पीछे से आकर आखों पर पट्टी बांध जाती है.

(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)...

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