हम सब अपने-अपने हिस्‍से का संघर्ष करते हुए कई बार इतने कठोर होते जाते हैं कि हमारी कोमल भावनाओं के छिद्र, द्वार बंद हो जाते हैं. यह द्वार कुछ-कुछ ऐसे ही होते हैं, जैसे रोम छिद्र, जिन्‍हें बंद होने पर खोलने के उपाए किए जाते हैं. ऐसे ही जतन मन की कोमल भावना के द्वार खोलने के लिए जरूरी हैं. जरूरी है कि मन की गहराई में दूसरों के लिए प्रेम,स्‍नेह और उदारता रहे. अपनों के लिए भी और अपरिचितों के लिए भी.


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अपरिचितों के लिए! जी, हां, अपरिचितों के लिए भी. क्‍योंकि अगर आप अपने आसपास नजर दौड़ाएंगे तो देखेंगे कि महानगर के साथ अब छोटे-छोटे शहरों में लोग अचानक से हिंसक होते दिख जाएंगे. आपकी गाड़ी को जरा सी खरोच लगी नहीं कि आपकी आत्‍मा पर ‘गहरा’ घाव हो जाता है. रोडरेज की घटनाएं जिस तेजी से देश में बढ़ रही हैं, वह कहां ले जाएंगी. इसी तरह का गुस्‍सा बच्‍चों की छोटी-मोटी गलतियों, सहकर्मियों और दोस्‍त, परिवार के बीच तनाव की रेखा बढ़ाने का भी काम कर रहा है. कभी जेल में सजा काट रहे कैदियों से मिलने का मौका मिले, तो शायद मेरी यह बात आपको अधिक सरलता से समझने में मदद मिलेगी.


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कैदी बस इतना ही कहते हैं, ‘काश! गुस्‍से को वह दो, चार, दस मिनट किसी तरह काट जाते. काश! किसी ने हाथ पकड़ लिया होता. मेरा मन गुस्‍से से पागल न हुआ होता.’


सुपरिचित पत्रकार, जेल सुधार विशेषज्ञ और कैदियों के जीवन पर आधारित विशेष पुस्‍तक श्रृंखला ‘तिनका-तिनका तिहाड़’, ‘तिनका-तिनका डासना’ और ‘तिनका-तिनका आगरा’ की लेखिका  डॉ. वर्तिका नंदा ने भारत में कैदियों के जीवन को सुधारने, उन्‍हें अंतत: नागरिक, सामाजिक बनाए रखने की दिशा में उल्‍लेखनीय काम किया है.


उनके साथ संवाद में कैदियों की ऐसी कोमल भावना, संवेदना समझने को मिलती है, जिसके बारे में हम ‘बाहर’ के लोग शायद ही कभी संजीदा होते.


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लेकिन जरा ठहरकर बस उनके इस अफसोस को अनुभव करिए कि काश! उनके दिल, दिमाग पर वह चंद लम्‍हों की कठोरता हावी न हुई होती!


इसे इस तरह भी समझिए कि हमारे मन की कोमलता, नमी अगर बनी रहे तो वह गुस्‍से को चेतना पर अधिक देर ठहरने नहीं देगी. गुस्‍से का ‘ज्‍वार’ (Tide) आएगा तो जरूर लेकिन अगर मन में नमी, कोमलता रहेगी तो वह सतह पर अधिक देर नहीं ठहर पाएगा.


इसीलिए कोमलता के छिद्र द्वार का खुला रहना इतना जरूरी है. कोमलता की खोज में बहुत इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं, वह तो ऐसी सरल चीज है जो खामोशी से आपके भीतर रहती है, बस उसे सुनने और समझने की जरूरत है.


एक छोटी सी मिसाल, मुझे मेरी कॉलोनी से मिली…


‘डियर जिंदगी’ के एक सुधी पाठक ने लिखा, ‘मैं थका-हारा घर पहुंचा तो ख्‍याल आया कि लाख समझाने पर भी पत्‍नी ने पति, परिवार के सुखी जीवन के लिए व्रत रखा हुआ है. अच्‍छा नहीं लगा, क्‍योंकि इस पर काफी बहस हमारे बीच हो चुकी थी. लेकिन तभी ख्‍याल आया कि रसोई में मेरे, बच्‍चों के लिए लजीज भोजन तैयार है. भूख लगी थी, तो गुस्‍सा गायब और बच्‍चों के साथ भोजन कर लिया गया.’


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वह आगे लिखते हैं, ‘भोजन के बाद ख्‍याल आया कि बर्तन तो खूब सारे हो गए हैं! किच‍न भी गंदा है. और यह भी कि कल घरेलू सहायिका देर आएगी और उसका भी तो व्रत होगा! उस पर कितने घरों का दिनभर के बर्तनों का अतिरिक्‍त बोझ होगा. उस घरेलू सहायिका से कौन सहानुभूति रखेगा.’


तो इन सब उदार, कोमल भावना विस्‍तार के बीच उन्होंने घर के सारे बर्तन साफ किए. किचन साफ किया.


और अपना अनुभव देर रात मुझे भेज दिया. जिसे मैंने सुबह पंक्षियों के कलरव, चाय की सुगंध के बीच आपके साथ साझा कर रहा हूं.


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यह जीवन के छोटे-छोटे,  लेकिन बड़े बदलाव हैं. मनुष्‍य होने के लिए बड़ा करने के चक्रव्‍यूह से बाहर निकलें, हर कदम पर जीवन आपको कोमल, उदार और मनुष्‍यता के अवसर देने को तत्‍पर है.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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