इनके ही लहू से सियासत सुर्ख दिखती है
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इनके ही लहू से सियासत सुर्ख दिखती है

देश में दो ऐसे कानून हैं पहला तो यही एट्रोसिटी एक्ट और दूसरा दहेज प्रताड़ना का कानून, जिसके दुरुपयोग ने सामाजिक समरसता और घर-परिवार के तानेबाने को सबसे अधिक तबाह किया है. 

इनके ही लहू से सियासत सुर्ख दिखती है

"सड़कों पर बिछी लाशें, बहता खून, जलती बसें और दुकानों की आंच से इस मौसमी तपिश में भी उन कलफदारों के कलेजे में ठंडक पहुंच रही होगी जो इस बात पर यकीन करते हैं कि सड़कों पर बहने वाले लहू से ही सियासत और सुर्ख होती है"

भारत बंद के दरम्यान देशभर से खून से लबरेज खबरें देख रहे हैं. ये बंद किसलिए? बताने की जरूरत नहीं, यह बंद सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ है, उन जजों के खिलाफ है जिन्‍होंने अनुसूचितजाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनयम 1989 के मामले में रूलिंग दी कि गिरफ्तारी से पहले अच्छे से जांच-पड़ताल हो. सक्षम अधिकारी से अनुमति ली जाए. मुकदमा दर्ज होते ही आंख मूदकर किसी को जेल न भेजा जाए. मामले की गंभीरता और सबूत का विवेचन करते हुए यदि लगे तो अग्रिम जमानत भी दे दी जाए. अभी व्यवस्था यह थी कि मुकदमा दर्ज होते ही गिरफ्तारी, अग्रिम जमानत तो नहीं ही, हाईकोर्ट से पहले जमानत की उम्मीद भी नहीं. व्यवस्था तो यह भी थी कि जो मुकदमा न दर्ज करे उस पुलिस अधिकारी के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज किया जाए.

देश में दो ऐसे कानून हैं पहला तो यही एट्रोसिटी एक्ट और दूसरा दहेज प्रताड़ना का कानून, जिसके दुरुपयोग ने सामाजिक समरसता और घर-परिवार के तानेबाने को सबसे अधिक तबाह किया है. 

आंकड़े बताते हैं तथा राज्य व केंद्र के विधि आयोगों में इस पर अर्से से मंथन चल रहा है. कैसी भी सरकार हो कोई भी कानून निसंदेह नागरिक के हित में बनता है, लेकिन जब उसमें चेक और बैलेंस नहीं होता तो वह स्वार्थी तत्वों का अस्त्र बन जाता है. ये दोनों ही कानून राहत देने से ज्यादा राजनीतिक बैर निकालने और रिश्ते की आड़ में ब्लैकमेल करने के साधन बन चुके हैं यह सभी जानते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि अजा/जजा वर्ग के साथ जुल्म का पुराना इतिहास है. सामंती दबदबे वाले इलाकों में अभी भी इसकी झलक देखने को मिलती है. राजीव गांधी ने इनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए संसद में यह कानून बनाया था. इसके बाद जब वीपी सिंह सरकार आई और उसने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की. फिर आरक्षण को लेकर जो स्थिति निर्मित हुई और समाज का बंटवारा हुआ तब से यह कानून राहत देने से ज्यादा एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल होने लगे. वो दमित, दलित, दुखी, पीड़ित तो कहीं पीछे छूट गए इस वर्ग से निकले एक प्रभुवर्ग ने इसे लपक लिया.

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यहां हम अपने मध्यप्रदेश की ही बात करते हैं, किसी भी मामले में फंसने के बाद इस वर्ग के प्रतिनिधि, कर्मचारी, अफसर विधायक और यहां तक कि मंत्री भी बचाव में एक ही दलील देते हैं कि चूंकि वे दलित हैं, इसलिए उन्हें सताया जा रहा है. भले ही वे घूस लेते या व्यभिचार करते रंगे हाथ पकड़े गए हों. कई मामले तो ऐसे भी हैं कि जांच अधिकारियों के खिलाफ भी मुकदमें दर्ज कराए गए. पूरे देशभर में हजारों ही नहीं लाखों की संख्या में ऐसे मामले हैं जो निजी वैमनस्य निकालने के लिए दर्ज किए व करवाए गए, जांच बाद जब मुकदमें अदालत में पहुंचे तो 80-85 फीसदी खारिज कर दिए गए यानी कि झूठे निकले. सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पीछे इसी तरह के ठोस, तार्किक दृष्टांत जरूर होंगे, जिसके आधार पर यह रूलिंग आई.

कमाल की बात और कि इस समूचे मसले की तफसील में जाएं तो पाएंगे कि इस कानून का अस्त्र के रूप में सबसे ज्यादा इस्तेमाल अगड़ों व अजा/जजा के सक्षमों ने ही किया होगा, बात चाहे विंध्य की हो या चंबल की, जहां ये वर्ग सदियों से सबसे ज्यादा पीड़ित रहा है.

मैं जिस इलाके से ताल्लुक़ रखता हूं, वहां के एक बड़े सवर्ण नेता को एससी/एसटी एक्सपर्ट के तौर पर जाना जाता रहा है. वे कई बार एमएलए भी रहे हैं. वे जब किसी अफसर-कर्मचारी या राजनीतिक प्रतिद्वंदी पर कुपित होते तो अपने लगुआ मजदूरों से उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा देते थे. चूंकि विधायक रह चुके नेता थे, इसलिए उनकी इतनी हनक तो थी ही कि ऊपर से दबाव देकर मुकदमा कायम करवा दें. एक दिन तो मैं खुद चकित रह गया जब एक थाना प्रभारी रोते हुए मेरे अखबार के दफ्तर आया कि उसके खिलाफ एक दलित महिला से रेप का मामला बनवाया जा रहा है. जिले के एसपी ने अपने ही दरोगा की मदद करने से हाथ खड़े कर लिए थे. उस सवर्ण थानेदार की उसी महीने शादी होनेवाली थी वह बदनामी की कल्पना मात्र से कांप रहा था. अपराधियों की हेकड़ी को ठिकाने लगाने वाले उस थानेदार की छवि इतनी भी निरीह की जा सकती है. इलाके के उस नेता ने खुलेआम परिणाम भोगने की धमकी दी थी. एक सवर्ण के खिलाफ एक सवर्ण द्वारा आजमाए गए एससी/एसटी एक्ट के अस्त्र के इस्तेमाल का यह ऐसा निकृष्टतम नमूना था, जिसके जरिए राजनीति ने न जाने देश भर के कितने, दबंग, कर्तव्यनिष्ठ, मेधावी अफसरों को बधिया बनाया होगा.

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राजनीति ने इस वर्ग को यह दीक्षा दे दी कि इसके आधार पर क्या-क्या किया जा सकता है आज वही राजनीति इस वर्ग को वोट के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल कर रही है. दलित राजनीति आज की तारीख में ऐसा धधकता हुआ तंदूर है कि हर राजनीतिक दल उसमें खुद की रोटी सेंकना और प्रतिद्वंद्वी को उसमें झोंकना चाहता है. हालात इतने खतरनाक बन गए हैं कि जिस आरक्षण व्यवस्था के समय-समय पर समीक्षा की बात बाबा साहेब आंबेडकर कह गए थे, आज उसी आरक्षण को लेकर जुबान से निकला एक लफ्ज देश में आग लगाने का सबब बन जाता है.

कोई देश बनाना रिपब्लिक (विफल-अराजक) कैसे बनता है? पहले उसकी संस्थाओं की विश्वसनीयता छीनी जाती है और चौराहे पर उसे बेइज्जत किया जाता है. देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं, लोकसभा, विधानसभा, विविध संवैधानिक आयोगों के खिलाफ दशक भर से अभियान चल रहा है. इन संस्थाओं में बैठे कई तो इसे अंदर से खोखला कर रहे हैं. विदेशी पूंजी पर चलने वाले कतिपय एनजीओ और मीडिया का एक हिस्सा बाहर से. आज कविता के मंचों से जब संसद, विधानसभाओं को चोर-डकैत- लुटेरा का अड्डा कहा जाता है तब सबसे ज्यादा तालियां पिटती हैं. जिस "नेता" शब्द का धारण सुभाषचंद्र बोस ने किया था उसका इतना पतन हो गया कि हर तीसरी फिल्म का विलेन नेता होता है या मुख्य विलेन का चमचा. याद रखिए सिनेमा ही समकालीन समाज का आईना होता है. राजनीति इतनी अविश्वसनीय और विधर्मी हो गई है कि वोट, सत्ता, कुर्सी के लिए नरसंहार रचना पड़े तो वह भी सही और यह चल भी रहा है, ताजा प्रपंच भी राजनीति ने ही रचा है. 

लोकतंत्र की संस्थाएं और उनके प्रतिनिधियों को लेकर जो आममानस है वो अधोन्मुखी ही है. व्यवस्थापिका की विश्वसनीयता के ताबूत पर एक के बाद एक हजारों, लाखों करोड़ रुपयों के घोटालों में उन अफसरशाही की भागीदारी ने कीलें ठोकना शुरू कर दिया है. शिक्षा और परीक्षा की विश्वसनीयता को गर्त में पहुंचा दिया गया. निजी जानकारियों की डाटा डकैती जारी है, कुल-मिलाकर और भी कई बातें हैं, जिन्होंने व्यवस्थापिका के लिए कब्र खोदना शुरू कर दिया है.आशा की एक किरण के रूप में न्यायपालिका रही जो जस्टिस जेएस वर्मा के समय गरीबों, मजलूमों के हक में खड़ी होकर देश के करोड़ों लोगों की दुआएं पाती रही है. राजनीति ने उसका भी बेड़ागर्क करना शुरू कर दिया. वायरस वहां भी पहुंच गए. 

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खुले मंच से न्यायपालिका के जजों का एक-दूसरे पर राजनीति से प्रेरित प्रहार प्रति-प्रहार और अब मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की मुहिम. एससी/एसटी एक्ट को लेकर जिन जजों ने रूलिंग दी है उनपर ये आरोप मढ़ा जा रहा है कि चूंकि ये सवर्ण हैं इसलिए इनका फैसला पक्षपातपूर्ण है. इस रूलिंग्स के खिलाफ फुल बेंच में भी जाया जा सकता है और सरकार तथा राजनीतिक दल जा भी रहे हैं.

तो यह खून-खराबे, तोड़-फोड़ हिंसा का दौर क्यों? वह इसलिए कि न्यायपालिका की रही सही विश्वसनीयता को भी ठिकाने लगा दिया जाए. नक्सली भी लोकतांत्रिक व्यवस्था को नहीं मानते और इस तरह के प्रदर्शनों का निहितार्थ भी वही है.

चौथा खंभा जिसे मीडिया कहते हैं वह आजादी के बाद से ही किसी न किसी की गोदी में बैठने का आदी रहा है. पहले पंडित नेहरू के और अब मोदी के. फिर इस चौथे खंभे की औकात है ही क्या? यह तो केले के तने की तरह आभासी खंभा है. जंगल का इकोसिस्टम बिगड़ता है तो वह बंजर बन जाता है. राष्ट्र का तंत्र ध्वस्त होता है तो अफ्रीकी देशों की तरह बनाना रिपब्लिक.

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मेरी ये बातें आपको उसी तरह अतिरेक लग रही होंगी जैसे कि श्रीश्री रविशंकर की वो चेतावनी कि स्थितियों को समय पर नहीं संभाला गया तो भारत भी एक दिन सीरिया में बदल जाएगा, लेकिन राजनीति का रंग रक्त से दमकदार या फिर सियासत की सुर्खी के लिए सड़क में लहू बहाने-बहवाने की तिजारत करने वाले राजनीतिक दल तब समझेंगे जब वैसी देर हो जाएगी जैसे मुगलों और अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने में हुई थी और हम सात सौ वर्ष तक गुलामी झेलते हुए अपनी भूलगलती पर पछताते रहे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

 

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