हम भीड़तंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, खामोशी से नहीं, ढोल-नगाड़ों के साथ
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हम भीड़तंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, खामोशी से नहीं, ढोल-नगाड़ों के साथ

भारत में भीड़तंत्र अपने आप स्थापित नहीं हो रहा है, उसे स्थापित किया जा रहा है. जरा गौर से देखिए, भीड़ केवल महिला को निर्वस्त्र करके सड़क पर दौड़ाती ही नहीं है, बल्कि उसकी फोटो खींचती है, वीडियो बनाती है और सोशल मीडिया पर गर्व से अपनी पहचान के साथ निडर होकर साझा करती है.

हम भीड़तंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, खामोशी से नहीं, ढोल-नगाड़ों के साथ

नफरत की शिक्षा, नफरत के रिश्ते, व्यापार में नफरत, कलाओं में नफरत, कलम में नफरत और व्यवहार में नफरत, सियासत की नफरत. नफरत और हमारे व्यवहार एकाकार हो रहे हैं. इतनी आसानी से नफरत हमारे जीवन में कैसे स्थापित हो गई? वर्तमान समय की राष्ट्रप्रेम की परिभाषा के मुताबिक जैन समाज तो कभी मुल्कपरस्त हो ही नहीं सकता है, क्योंकि यह समुदाय तो नफरत की भावना को भी हिंसा का ही प्रतिरूप मानता है और सत्य के मार्ग पर चलने का वचन रखता है.

आज बिना हिंसा के राष्ट्रप्रेम होता ही नहीं है. हम एक ऐसे समय में हैं जब क्रूरताओं का सामान्यीकरण होने लगा है. छोटे-छोटे बच्चों से बलात्कार, स्त्रियों को निर्वस्त्र करके सरेराह दौड़ाने, भीड़ द्वारा किसी भी अनजान व्यक्ति को पीट-कूटकर जिंदा मार दिए जाने, हमारा पेट भरने वाले किसान की आत्महत्याओं तक की घटनाओं को सामान्य माना जाने लगा है.

अखबार अब रोज घटने वाली घटनाओं को अपनी प्राथमिकता की श्रेणी से बाहर निकाल देते हैं और उन अखबारों को पढ़ने वाला ऐसी खबरों को छोड़कर बाजार में अवतरित हुए नए मोबाइल-स्मार्टफोन या मोटर बाइक या सितारों की खबरों पर जम जाता है. इन सबके ऊपर हमारे मुख्यमंत्री-मंत्री और नेता अपने मौन और उदासीन प्रतिक्रिया से नफरत को समर्थन दे देते हैं.

भारत में भीड़तंत्र अपने आप स्थापित नहीं हो रहा है, उसे स्थापित किया जा रहा है. जरा गौर से देखिए, भीड़ केवल महिला को निर्वस्त्र करके सड़क पर दौड़ाती ही नहीं है, बल्कि उसका फोटो खींचती है, वीडियो बनाती है और सोशल मीडिया पर गर्व से अपनी पहचान के साथ निडर होकर साझा करती है.

संविधान की किताब को जलाने वाले फोटो-वीडियो साझा करने के बात बयान देते हैं कि हां, हमने संविधान जलाया! आशय स्पष्ट है कि बिना राजनीतिक संरक्षण के इतनी बर्बरता हो नहीं सकती है!

समाज और बाजार यह मानने लगे हैं कि सच नकारात्मक होता है, और हमें सकारात्मक होना है. सकारात्मक होने के लिए हर तरह के सच से बचकर जीना होगा. आधुनिक आर्थिक सम्पन्नता के लिए भी नकारात्मकता से बचने की ताकीद की जाती है. शिक्षा के जरिये हम बच्चों को मशीन चलाना ही सिखाना चाहते हैं, और यह भरसक कोशिश करते हैं कि वह कहीं बंधुत्व और समानुभूति की भावना ग्रहण न कर ले. हम यह कैसे भूल जाते हैं कि हिंसा और नफरत, जाति और सम्प्रदाय की बाड़ तोड़कर बहुत आगे निकल जाते हैं.

मैं यदि अपने बच्चों को मुसलमान बच्चे से घृणा करना सिखाता हूं, तो इसका मतलब है कि मैं उसे जैन, ब्राह्मण और बौद्ध बच्चे से घृणा करना भी सिखा रहा हूं. बस अंतर यह है कि बाकियों का क्रम थोड़े वक्त के बाद आएगा. यही बात अनियंत्रित और असंगठित भीड़ के द्वारा की जाने वाली हिंसा पर भी लागू होती है.

दो सदियों की आर्थिक-राजनीतिक-व्यवस्थागत गुलामी के बाद जब हम आजाद हुए तो, अपना राष्ट्र बनाने के लिए हमने एक संविधान बनाया. जिसका आधार बने चार सिद्धांत- बंधुता, समानता, न्याय और स्वातंत्र्य. संविधान किसी ने भी बनाया हो, किसी ने भी लिखा हो, किसी भी राजनीतिक दल की भूमिका उसमें ज्यादा रही हो, किन्तु राजनीतिक असहमति का मतलब यह नहीं हो सकता है कि हम उन बुनियादी मूल्यों को ही खारिज कर दें, जो केवल संविधान की किताब में लिखे मूल्य नहीं हैं, बल्कि ये किसी भी समाज के सभ्य होने के मानक के रूप में सिद्ध हैं.

संविधान कहता है कि हम देश के लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय के लिए व्यवस्था बनाएंगे और लागू करेंगे. इस सिद्धांत से वर्तमान दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधाराओं को आपत्ति क्यों है? दूसरा सिद्धांत कहता है कि देश के लोगों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, श्रद्धा और प्रार्थना की स्वतंत्रता की आजादी होगी; क्या एक बेहतर समाज में ही यह मूल्य स्थापित नहीं होगा? क्यों अल्पसंख्यकों के इस बुनियादी हक को खत्म करने की नीति लागू की जा रही है?

अगर हम यह समझते हैं कि निशाना केवल मुसलमान हैं, तो हम बहुत गलत समझ रहे हैं! सच तो यह है कि इस उपमहाद्वीप के आदिवासियों को भी उनके धर्म और जीवन पद्धति, जिसमें वे अपने प्रकृति आधारित प्रतीकों की आराधना करते रहे हैं, को अपनाने से वंचित किया गया है.

संविधान समता के सिद्धांत को लागू करने का वादा करता है; इसके अनुसार समाज में ऊंच-नीच का वर्गीकरण नहीं होगा, राजा-साम्राज्य सरीखे तंत्र नहीं होंगे और सभी को समान अवसर मिलेंगे. साथ ही यह भी व्याख्या की गई कि सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक तौर पर जिन समूहों (अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े) के साथ हमारी व्यवस्थाएं और समाज मिलकर बर्बर ऐतिहासिक अन्याय करते रहे हैं, उनके लिए विशेष अवसर उपलब्ध कराना राज्य की जिम्मेदारी भी है.

न्याय, स्वातंत्र्य और समता के सिद्धांत को लागू करके हम देश में जातियों-धार्मिक सीमाओं और आर्थिक गैर-बराबरी से ऊपर उठकर बंधुता आधारित समाज बना सकेंगे; पर आजादी के 72 साल बाद इन सिद्धांतों-मूल्यों और सपनों को जलाकर राख कर देने की कोशिशें हो रही हैं. हर स्तर पर विद्वेष और कटुता के जहर का छिड़काव हो रहा है. हिंसा, अन्याय, बर्बरता का सामान्यीकरण किए जाने की नीतियां लागू हैं.

यदि हम आजादी का मूल समझ पाए होते तो एक चुने हुए जनप्रतिनिधि के मुखारबिंद से यह बात नहीं सुनते कि मैं गृहमंत्री होता तो सभी बुद्धिजीवियों और उदारवादियों को गोली मारने के आदेश दे देता. देश में हिंदू अदालत के गठन की प्रक्रिया शुरू नहीं होती और उस अदालत की तथाकथित स्वयंभू न्यायाधीश यह नहीं कह पातीं, 'यदि मैं गोडसे से पहले जन्मी होती तो मैं गांधी को गोली मारती.'

यदि आजादी से सभ्यता का विकास होता तो भारत का एक केन्द्रीय मंत्री खुलेआम हत्या के आरोपियों के जमानत मिलने पर उन्हें फूलों की मालाएं पहनाने नहीं जाता और कुछ लोग संविधान की किताब को जलाकर देश के वंचित तबकों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और बच्चों के यह संदेश नहीं दे पाते कि भारत ‘अधिनायक व्यवस्था” की तरफ बढ़ चुका है.

हम मान सकते हैं, ये लोग तो बीमार और विकृत मानसिकता के लोग हैं, ऐसे में वे इस तरह की बर्बर-विकृत अभिव्यक्ति कर सकते हैं. किन्तु अपने व्यापक समाज का क्या? वह चुप है, क्या इसका मतलब है कि इस विचारधारा को स्वीकार किया जा रहा है? भारतीय समाज के मूल स्वभाव में कुछ तो लोचा हुआ है, नहीं तो यह नहीं कहा जाता कि केरल में भीषण बाढ़ इसलिए आई है क्योंकि वहां के लोग गोवध करते हैं. इस सोच के आधार पर मानवीय समाज की बुनियादी करुणा को ध्वस्त करने की कोशिश शुरू कर दी गई; इस तरह देश में यह संदेश दिया गया कि विभीषिका से जूझ रहे केरल की मदद न की जाए!

आजादी के बाद हिन्दुस्तान के समाज को “डर और असमानता” से आजादी की दरकार थी. इससे मुल्क आजाद हो भी रहा था, पर इसे फिर गुलाम बनाने की सियासत शुरू हुई. वास्तव में इस आजाद मुल्क की नयी सियासत यही है कि लोग भय में रहें, ताकि उन पर आसानी से शासन किया जा सके.

भारत में व्यापक रूप से जमीन, संपत्ति और गाय की तुलना में इंसान की कीमत शून्य कर दी जाती है. यह तथ्य शायद आपको चौंकाएगा कि राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के मुताबिक इस मुल्क में वर्ष 2007 से 2016 के बीच भारत में “डायन यानी बुरी शक्ति” का नाम देकर 1649 महिलाओं की हत्या कर दी गई.

कुछ लोग समाज को यह “शिक्षा” देते हैं कि बुरी शक्तियां बुरी महिलाओं में प्रवेश करके परिजनों की हत्या कर देती हैं, फसल खराब कर देती हैं, पशुधन को नुकसान पहचानती हैं और बीमारी फैलाती हैं. इनसे पूरे गांव और इलाके को खतरा होता है. अतः इन्हें मार दिया जाना चाहिए. यह महज संयोग ही नहीं है कि ये औरतें ज्यादातर एकल महिलाए, बुजुर्ग, विधवा या परित्यक्ता महिलाएं होती हैं.

वास्तविक षड्यंत्र यह होता है कि इन महिलाओं के पास जो संपत्ति होती है, उसे हथियाने के लिए संगठित रूप से महिलाओं को “डायन साबित करने का षड्यंत्र” रचा जाता है, हत्या कर दी जाती है और इसे न्यायोचित भी साबित कर दिया जाता है. यानी हत्या कर देना अपराध की श्रेणी में नहीं, बल्कि “धार्मिक कृत्य और अनुष्ठान” की श्रेणी में आ जाता है. हमारी शिक्षा व्यवस्था में यह पाठ बच्चों को कभी नहीं पढ़ाया जाता है कि डायन प्रथा एक बुरी सामाजिक प्रथा है, यह एक किस्म की विकृति है और इसके पीछे सामाजिक-आर्थिक- मनोस्वास्थ्यगत पहलू होते हैं.

निरीह गाय भारत में लोगों के बीच डर और असमानता का नया मुहावरा गढ़ने का साधन बना दी गई है. यह माना जाता है कि वर्ष 2014-15 से अगस्त 2018 के बीच भारत में “बनाई गई भीड़’ के द्वारा हिंसा की 119 घटनाएं हुई हैं, जिनमें 75 लोगों की हत्या कर दी गई. इनमें से अधिसंख्य हत्याएं “गाय की तस्करी या गाय की हत्या” की आशंका को आधार बना कर की गईं.

विश्लेषण बताते हैं कि “गाय” के नाम पर हुई कुल मानव हत्याओं में से 97 प्रतिशत वर्ष 2014-15 के बाद हुई हैं. चौकानें वाली बात यह है कि भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा की घटनाओं में इंसान मारे जा रहे हैं, पर मानव हत्या का प्रकरण दर्ज करने के साथ ही, और कई मामलों में मानव हत्या का प्रकरण दर्ज करने से पहले गाय की तस्करी का प्रकरण दर्ज किया जाता है ताकि इसे समाज की भावनाओं का मामला बनाया जा सके और इसके आधार पर भीड़ हिंसा को “नैतिक कृत्य” साबित किया जा सके.

ये घटनाएं साबित कर रही हैं कि भारत आजकल कानून और कानूनी प्रक्रिया में कोई खास विश्वास नहीं रखता है. राजनीतिक संरक्षण पाकर कहीं भी, किसी की भी हत्या की जा सकती है.

हम गाय के नाम पर की जा रही भीड़ की हिंसा के यथार्थ को समझ ही नहीं पा रहे हैं. एक अहिंसक पशु के नाम पर की गईं बर्बर हत्याओं की श्रृंखला का असर यह हो रहा है कि गाय पालने वाले समुदाय (मसलन मेवात का अल्पसंख्यक मेव समुदाय) अब गोपालन करने से डरने लगे हैं.

लोग मानने लगे हैं कि यदि गाय की स्वाभाविक मृत्यु भी हो गई, तो “गोभक्त” उनकी भी हत्या कर देंगे. परंपरा से गायों का व्यापार होता आया है, अब वह काम भय के साए में है. गाय पालने वाले यह नहीं समझ पा रहे हैं कि मृत हो चुकी गाय का संस्कार इस युग में कैसे किया जाए?

राष्ट्रवादी नीति निर्माताओं को यह इस तथ्य का भान भी नहीं है कि बिना गोपशु के खेती का संकट और ज्यादा गहरा हो जाएगा! ऐसा लगता है जानबूझ कर “गाय आतंक” रचा गया है ताकि खेती से बेदखल किए जाने के बाद अब लोगों को पशुपालन और दूध के व्यवसाय से भी बाहर किया जाए ताकि बड़ी कंपनियों का एकाधिकार स्थापित किया जा सके.

23 अगस्त 2018 के अहमदाबाद में 50 वर्षीय फकीर मोहम्मद को तीन लोगों ने इतना मारा कि उनके उनके पैर की हड्डी तीन जगह से टूट गई. उन लोगों को शक था कि फकीर मोहम्मद गैरकानूनी रूप से पशुओं का परिवहन कर रहे हैं.

धार्मिक कटुता और हिंसा फैलाना जरूरी इसलिए माना जाने लगा है क्योंकि राजनीतिक दल सत्ता में आकर समाज में भय और टकराव का वातावरण बनाए रखना चाहते हैं ताकि समाज की नजर उनकी नीतियों, भ्रष्टाचार और संसाधनों की संगठित लूट पर न जा सके. लोगों की आंखें या तो बंद रहें या फिर उनसे भय और डर के दृश्य दिखाई देते रहें. इसलिए भीड़ हिंसा हमेशा राजनीतिक और आर्थिक मकसदों को हासिल करने का जरिया होती है.

पहले डायन प्रथा के नाम पर महिलाओं की हत्या. फिर गाय और हिंदू समाज की भावनाओं के नाम पर मुस्लिमों की हत्या होती रही; लेकिन अब इसमें नया अध्याय भी जुड़ गया. जून 2018 में त्रिपुरा में भीड़ हिंसा के तीन मामले हुए, इनमें आधार बनी एक अफवाह कि कोई बच्चों का अपहरण कर रहा है.

त्रिपुरा पुलिस महानिदेशक ने कहा कि सोशल मीडिया के जरिये इन अफवाहों को फैलाया गया. ‘सत्य की खोज” करने वाले भारत में आधुनिक विकास ने “जाली खबरों और चित्रों (फेक इमेज और न्यूज)” को हमारे व्यवहार को नया चरित्र दिया है. जाली चित्रों और वीडियो को फैला दीजिए और बाकी हत्या की जिम्मेदारी भीड़ ले ही लेती है.

10 अगस्त 2018 को उत्तरप्रदेश के बीजापुर में कपिल त्यागी की भीड़ ने पीट-पीटकर इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि उन्हें कपिल के चोर होने का शक था. हालांकि परिवार ने बताया कि वह काम की तलाश में घर से निकला था.

19 जुलाई 2018 को मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिले के बड़गड़ गांव में एक मानसिक रूप से बीमार महिला की लाठियों और कुल्हाड़ी से हत्या कर दी गई, क्योंकि लोगों को शक था कि वह बच्चे उठाती है.

जून 2018 में ही गुजरात के अहमदाबाद शहर में 30 लोगों के एक समूह ने चालीस साल की एक महिला की इस संशय में हत्या कर दी कि शायद वह बच्चे का अपहरण कर रही थी. सूरत शहर में एक पारिवारिक कार्यक्रम में शामिल होने आई 45 साल की महिला कार्यक्रम से बाहर आकर तीन साल की अपनी बच्ची के लिए गुब्बारे खरीद रही थी, कुछ लोगों को लगा कि वह बच्चे का अपहरण कर रही है, बस उन्होंने उसकी हत्या कर दी.

गुजरात में सोशल मीडिया पर यह सूचना बड़े स्तर पर प्रसारित की जा रही थी कि राज्य के शहरों में बच्चों को उठाने वाला गिरोह सक्रिय है.

भीड़ हिंसा की घटनाएं अप्रत्याशित, अनायास या अनियोजित घटना है. ये अधिनायकवादी सत्ता को ढांचागत रूप देने की प्रक्रिया को चलाने के लिए उपयोग में लाया जाने वाला बल यानी फ़ोर्स है.

वास्तव में ये हिंसाएं भावनात्मक नहीं, आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक हैं. जरा तार्किक ढंग से देखेंगे तो हम पाएंगे कि भीड़ एक अनियोजित समूह नहीं, यह एक नियोजित समूह होता है और समाज के सबसे वंचित, राजनीतिक-आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को निशाना बनाता है. भीड़ हिंसा में अधिसंख्य मामलों में महिलाओं, मुसलमानों और गरीब लोगों पर हमले किए हैं. इन लोगों पर भीड़ द्वारा किये जाने वाले अन्याय के मामलों में सरकार और पुलिस भी बेहद बेरुखी से काम करती है और हत्यारों के पक्ष में होती है.

हमारे देश के ही मेवात इलाके के बारे में यह कहा जाने लगा है कि वहां अब भीड़ हिंसा के काम की जिम्मेदारी पुलिस ने निभाना शुरू कर दी है और यही कारण है कि वहां इसी तरह की अफवाहों को आधार बनाकर मुठभेड़ों में धार्मिक अल्पसंख्यकों की हत्याएं की गई हैं.

भारत के समाज का कुछ तबके (जिसमें हिंदू, सम्पन्न और उच्चवर्गीय समूह मुख्य हैं) यह मानते हैं कि उनके अस्तित्व, गरिमा, व्यापार और धर्म को सुरक्षा प्रदान करने के लिए इस तरह की अन्यायोचित और बर्बर हिंसा उचित ही है. वे यह समझने को तैयार नहीं हैं कि भीड़ हिंसा राजसत्ता और पूंजीवादी व्यवस्था का एक हथियार है जो एक समूह पर ही निशाना नहीं साधता है. भीड़ एक-एक करके अन्य समूहों पर निशाना साधती है. गुजरात के ऊना में दलितों के साथ हुए बर्बर व्यवहार से लेकर मध्यप्रदेश के ग्वालियर अंचल तक हिंदू दलितों के साथ हुई बर्बर हिंसा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है.

आजादी के बाद भारत ने एक अच्छा संविधान तो बनाया, किन्तु आर्थिक विकास के हवन में हमने नागरिकता के अहसास की आहुति दे दी. वह लापरवाही आज असर दिखा रही है, जब साम्प्रदायिक भावना को फैलाने वालों को ज्यादातर दिल और दिमाग अपना स्वागत करते हुए मिल रहे हैं. सत्य और अहिंसा इस वक्त की सबसे कमजोर संभावनाएं हैं.

सरकार समर्थित और राजनीतिक विचार द्वारा पोषित संगठित भीड़ हिंसा का दायरा इतना व्यापक हो चुका है कि देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश और वक्तव्य भी निष्प्रभावी साबित हो रहे हैं. भीड़ हिंसा के माहौल को हमारा मीडिया अपने जहर से ज्यादा प्रभावी बनाता है. वह संवेदनाओं को नहीं जगाता है, वह करुणा को दबाने की भरसक कोशिश करता है. वह कट्टरता और हिंसक भावनाओं को भड़काता है ताकि हिंसा की राजनीति से उसके अपने हित सध सकें. इसका असर हमारी न्यायिक व्यवस्था पर भी पड़ता है और फिर लोकहित की तुलना में साम्प्रदायिक विद्वेष न्याय पर हावी हो जाते हैं.

हम कानून के राज को स्थापित करने का दावा करते रहे किन्तु स्थापित हो गया “भीड़राज”, क्योंकि राजसत्ता को यह व्यवस्था सुहाती है. भीड़राज में जवाबदेयता की जरूरत नहीं होती है. इसमें कहीं भी किसी का घर जलाया जा सकता है और किसी की भी हत्या की जा सकती है! भीड़ हिंसा आतंक भी फैलाती है और अनैतिक विकास नीतियों के असर को बहस में नहीं आने देती है. हमारी सरकारें यही तो चाहती हैं!

(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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