Opinion: बच्चों की सुरक्षा अब भी प्राथमिकता नहीं है!
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Opinion: बच्चों की सुरक्षा अब भी प्राथमिकता नहीं है!

बच्चों का अपहरण बढ़ रहा है, यौनिक हिंसा और उत्पीड़न बाद रहा है, इसके बाद पुलिस और न्याय व्यवस्था का बर्ताव उनके साथ दोहरा अपराध करता है. 

Opinion: बच्चों की सुरक्षा अब भी प्राथमिकता नहीं है!

नई दिल्ली: भारत में वर्ष 2001 (संख्या–10814) से 2016 (106958) के बीच बच्चों के प्रति अपराधों की संख्या 889 प्रतिशत बढ़ गई. सोलह सालों में भारत में बच्चों से अपराध के 595089 मामले दर्ज हुए. इनमें से बच्चों के बलात्कार और यौन अपराध के कुल 153701 और बच्चों के अपहरण के 249383 मामले सबसे ज्यादा रहे. जैसे सरकार भारत की प्रतिव्यक्ति आय निकालती है, वैसे ही वर्ष 2018-19 के लिए बाल संरक्षण का बजट आवंटन बताता है कि एक बच्चे के लिए भारत सरकार 14 रुपये और मध्यप्रदेश सरकार 28 रुपये प्रतिवर्ष का बजट आवंटन करती है. बच्चों के संरक्षण का विषय मुहावरों में तो आ गया है, कार्य योजनायें भी बन रही है किन्तु समाज में बच्चे लगातार असुरक्षित होते जा रहे हैं. हम यह न समझने की जिद पकड़ बैठे हैं कि बच्चों के साथ हिंसा की जड़ें हमारे विकास की गलत परिभाषा और नागरिकता के बोध के क्षरण में घुसी हुई हैं.

सोलह वर्षों में बच्चों से बलात्कार और गंभीर यौन अपराधों की संख्या 2113 से बढ़कर 36022 हो गई. यह वृद्धि 1705 प्रतिशत रही; जबकि अपहरणों की संख्या वर्ष 2001 के 2845 से बढ़कर वर्ष 2016 में 1823 प्रतिशत बढ़कर 54723 हो गई. पहले तो अन्याय हो रहा है, पर अन्याय होने के बाद भी बच्चों को न्याय नहीं मिलता है. बच्चों के साथ होने वाले अपराधों के मामलों का न्यायिक व्यवस्था में न्यायपरक तरीके से निराकरण भी नहीं हो रहा है. एक तरफ जब भांति-भांति की सरकारें आर्थिक वृद्धि और सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ौतरी का झूठा दावा कर रही थीं, तब व्यवस्था (न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका) का “सकल विश्वसनीयता सूचकांक – ग्रास क्रेडिबिलिटी इंडेक्स” लगातार धराशायी हो रहा था. राज्य व्यवस्था के सकल विश्वसनीयता सूचकांक का मतलब है बच्चों के प्रति समाज में समानुभूति का निर्माण करने की कोशिशों का सफल होना, बच्चों का खुद सुरक्षित होना महसूस करना, शिक्षा व्यवस्था से उनका सहज होना, उनके प्रति अपराध होने पर न्यायिक व्यवस्था द्वारा त्वरित और सार्थक न्याय किया जाना सरीखे पहलुओं का शामिल होना. इसका सबसे पहला परिणाम होगा कि हम बच्चों के साथ कोई अपराध होने पर कानूनी प्रक्रिया के नाम पर दुबारा उन पर आघात नहीं करेंगे.

अब हमें मान लेना चाहिए कि भारत में सकल अन्याय उत्पाद (ग्रास इनजस्टिस प्रोडक्ट) में सबसे तेज गति से वृद्धि हुई है. बच्चों का अपहरण बढ़ रहा है, यौनिक हिंसा और उत्पीड़न बाद रहा है, इसके बाद पुलिस और न्याय व्यवस्था का बर्ताव उनके साथ दोहरा अपराध करता है. संभव है कि मेरे इस वाक्य को विधायिका और न्यायपालिका की अवमानना के रूप में परोभाषित किया जाए, किन्तु कहना जरूरी है; सच यह है कि जिस तरह से बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों की विवेचना और परीक्षण होता है, उससे बच्चे की हत्या होने के बाद, दूसरी बार फिर उसकी हत्या होती है, एक बार बलात्कार होने के बाद उससे फिर बलात्कार होता है और उसका अपहरण भी बार-बार होता है; दूसरी बार यह कृत्य हमारी व्यवस्था मिल कर करती है. जरा विचारिये कि वर्ष 2001 से 2016 के बीच बच्चों से अपराध के 21233 मामले परीक्षण के लंबित मामले बढ़कर 227739 हो गए यानी 11 गुना वृद्धि. जिन मामलों में परीक्षण पूरा हुआ, उनमें 60 से 70 प्रतिशत मामलों में आरोपी दोष मुक्त हो गए; यानी बलात्कार तो हुआ, यह पता नहीं चला कि किसने किया! अपहरण तो हुआ, पर किसने किया तय न हो पाया! आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि अदालत आरोपी को दोषमुक्त करती है, तब पुलिस को अपराधी को पकड़ने के लिए पाबन्द क्यों नहीं करती? यह कैसी न्यायिक व्यवस्था है, जो अपराधियों को और अपराध करने का अधिकार देती है. वास्तव में बच्चों को असुरक्षा के चरम पर लेकर जाने में सबसे अहम् भूमिका सरकार और बाल विरोधी राजनीति की है.

भारत सरकार का वर्ष 2018-19 का कुल बजट लगभग 24.42 लाख करोड़ रुपये का तय हुआ है. इसमें से बाल संरक्षण (जिसमें उनके खिलाफ़ होने वाले अपराधों, हिंसा और शोषण को रोकने, व्यवस्था और समाज को संवेदनशील बनाने और अन्याय होने की स्थिति में किशोर न्याय अधिनियम के तहत न्याय दिलाने की व्यवस्था की जाना होती है) के लिए लगभग 1183.4 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है. जब यह दिखाई दे रहा है कि बच्चों के प्रति अपराध बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं, तब सरकार इन्हें रोकने के लिए मानकों के मुताबिक बजट का आवंटन क्यों नहीं कर रही है? यह सवाल भारत सरकार की मंशा पर है!

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वस्तुतः सीमित आर्थिक संसाधनों के आवंटन के सन्दर्भ में यह भी उल्लेख कर दिया जाना जरूरी है कि अभी आवंटित बजट का ज्यादा बड़ा हिस्सा क़ानून तोड़ने वाले बच्चों (चिल्ड्रन इन कानफ्लिक्ट विथ लॉ) के लिए जा रहा है. जबकि जरूरतमंद बच्चों (चिल्ड्रन इन नीड ऑफ केयर एंड प्रोटेक्शन) के लिए व्यवस्था और स्वभावगत बदलाव के लिए कोशिशें लगभग शून्य हैं. हम मूल कारणों को हल किये बिना, कठोर और बर्बर सज़ाएं तय करके बच्चों के साथ होने वाली बर्बरता को मिटाने की असंभव कोशिश कर रहे हैं.

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समेकित बाल विकास सेवाओं (आईसीपीएस) पर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा बनाया गया परिचय दस्तावेज बताता है कि भारत में लगभग 40 प्रतिशत बच्चे (वर्तमान जनसंख्या के मानसे लगभग 21 करोड़) वंचितपन के शिकार हैं और कठिन परिस्थितियों में हैं. उल्लेखनीय है कि भारत में वर्ष 2009 में आईसीपीएस को क्रियान्वयन में लाया गया. इसके पहले वर्ष 2006-07 में भारत सरकार के कुल बजट 5.64 लाख करोड़ रुपये में से 194 करोड़ रुपये (यानी 0.034%) बजट बाल संरक्षण के लिए आवंटित किया गया था. वर्ष 2018-19 में भारत सरकार का कुल बजट 24.42 लाख करोड़ रुपये का है, जिसमें से 1183.4 करोड़ (यानी 0.048%) ही बच्चों के संरक्षण के लिए आवंटित किया गया. इससे जाहिर होता है कि बच्चों की बढ़ती असुरक्षा के बीच भारत सरकार की नीतिगत और नैतिक प्रतिबद्धता में बच्चे निचले क्रम पर हैं.

समेकित बाल विकास सेवाएं एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है, जिसके लिए वर्ष 2018-19 में केवल 725 करोड़ रुपये का ही बजट आवंटित किया गया है. यदि हम राष्ट्रीय झूलाघर योजना को भी विकास के साथ-साथ बाल बाल संरक्षण के नज़रिए से देखें तो यह जरूरी कार्यक्रम है.  

तुलना में कमी की गई और आवंटन 200 करोड़ रुपये से घटा कर 128.39 करोड़ रुपये कर दिया गया. बहरहाल पिछले तीन सालों से आर्थिक नीतियों में बाल संरक्षण के मसले पर यही तर्क दिया जा रहा है कि अब केंद्र सरकार राज्यों को ज्यादा बजट आवंटित कर रही है, इसलिए केंद्र सरकार के महिला और बाल विकास विभाग में आवंटन को बढ़ाने की जरूरत नहीं लगती.

ऐसे में जब हम राज्य सरकार के स्तर पर आते हैं, तब चित्र और साफ़ हो जाता है. राज्य भी बाल संरक्षण को प्राथमिकता नहीं दे रहे हैं. हम मध्यप्रदेश का उदाहरण लेते हैं. केंद्र सरकार ने तो 52 करोड़ बच्चों के लिए बाल संरक्षण के एक बच्चे के लिए 14 रुपये प्रति वर्ष का बजट दे दिया.

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मध्यप्रदेश सरकार ने 3.2 करोड़ बच्चों के लिए कुल 90.61 करोड़ रुपये का बजट दिया है, यानी एक बच्चे के लिए 28 रुपये प्रतिवर्ष. इसमें से 67.76 करोड़ रुपये समेकित बाल संरक्षण सेवाओं के लिए दिए गए. यह सही है कि बजट आवंटन इस तरह की गणना के आधार पर नहीं होता है, किन्तु जब समस्या विकराल हो और बुनियादी इलाज़ भी न मिले, तब इस तरह की गणना से राज्य की प्राथमिकताएं उजागर की जा सकती हैं. वर्ष 2018-19 के बजट अध्ययन से पता चलता है कि राज्य के कुल बजट (2.05 लाख करोड़ रुपये) में से केवल 0.044 प्रतिशत बजट ही बच्चों के संरक्षण के लिए आवंटित हुआ है; जबकि लोगों को मुफ्त तीर्थ यात्राएं करवाने के लिए तीर्थ यात्रा योजना के लिए 200 करोड़ रुपये के बजट का आवंटन हुआ. सभ्य समाज में जब यह बिलकुल साफ़ दिखाई दे रहा है कि बच्चे संकट में हैं, तब क्या तीर्थ यात्राएं सरकार की प्राथमिकता में होना चाहिए? हमारी सरकार की संवैधानिक प्राथमिकताएं क्या हैं?

बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है कि मध्यप्रदेश सरकार ने समेकित बाल विकास सेवाओं (आईसीपीएस) के लिए केवल 67.76 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया है. बात इससे और आगे जाती है कि इस कुल आवंटन में से व्यय का स्वरुप क्या होगा?

इसमें से 40 प्रतिशत (यानी 27.09 करोड़ रुपये) का खर्चा तो वेतन और भत्तों में करना तय किया गया है. लगभग 83 लाख रुपये (1.2 प्रतिशत) यात्रा और यात्रा भत्ते, टेलीफोन और डाक पर 70 लाख रुपये (1.02 प्रतिशत), बिजली पर 77 लाख रुपये (1.14 प्रतिशत), किराए के लिए 1.55 करोड़ रुपये (2.28 प्रतिशत) व्यय किये जायेंगे. योजना के बाल संरक्षण के लिए व्यावसायिक/विशेषज्ञ सेवाएं लेने के लिए 6.25 करोड़ रुपये (9.23 प्रतिशत) और बच्चों की सुरक्षा के लिए संचालित केन्द्रों/गृहों पर 9.9 करोड़ रुपये (14.62 प्रतिशत) का व्यय होगा. क्या वास्तव में आईसीपीएस के लिए दिए गए बजट का लक्ष्यों के अनुरूप व्यय हो रहा है?

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जब मध्यप्रदेश में वर्ष 2016 के आंकड़ों के आधार पर हर रोज 38 अपराध दर्ज हो रहे हों, बच्चों से बलात्कार और यौन उत्पीडन के 13 मामले और अपहरण के 17 मामले दर्ज हो रहे हों, तब बजट आवंटन को ही सरकार की मंशा मापने का आधार बनाना होगा. समेकित बाल संरक्षण सेवाएं योजना और किशोर न्याय अधिनियम बहुत महत्वपूर्ण पहल हैं, किन्तु इसका भरसक दलीय राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है. मध्यप्रदेश की जिला स्तरीय बाल कल्याण समितियों (जिन्हें बाल संरक्षण के लिए व्यापक अधिकार मिले हुए हैं) में लगभग 80 फ़ीसदी नियुक्तियां राजनीतिक हितों को साधने के लिए की गई हैं. बहुत कोशिशों के बाद भी ज्यादातर जिलों में विशेष किशोर पुलिस इकाई स्थापित नहीं की गई है. बच्चे घर, स्कूल, खेल के मैदान; कहीं सुरक्षित नहीं रह गए हैं, ऐसे में बाल संरक्षण की जरूरत पर राज्य और केंद्र सरकारों का मौन बेहद पीड़ादायक है.

सरकार ने हमेशा की तरह एक सुन्दर सा दस्तावेज तैयार किया है - बच्चों के लिए कार्य योजना (2016); इसमें तीन उद्देश्यों का उल्लेख है –
एक: सभी बच्चों के लिए हर परिस्थिति में वंचितपन से हर स्थान पर सुरक्षित करने के लिए सुरक्षित, संरक्षित और देखरेख वाला पर्यावरण बनाना;
दो: जिला, राज्य और राज्य स्तर पर बच्चों के संरक्षण की व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए वैधानिक, प्रशासनिक और संस्थागत व्यवस्थाएं बनाना;
तीन: सभी तरह के बाल केंद्रित और मानवीय सहयोग के कार्यक्रमों में बाल संरक्षण के मुद्दे को मुख्यधारा में रखना; इसके लिए बहुत व्यापाक कार्ययोजना का उल्लेख भी किया गया है. किन्तु इन अच्छी बातों को जमीन पर उतारने के लिए अभी एक बड़ी जरूरत है – व्यवस्था को यह अहसास होना कि बच्चे बहुत महत्वपूर्ण हैं; अब यह सोचने की जरूरत है कि बच्चों के लिए समाज और सरकार ने किया निवेश किया है?

इस कार्य योजना में कहा गया है कि बच्चों के लिए बेहतर और सुरक्षित पर्यावरण बनाने के लिए जिला-वार मैपिंग की जायेगी, ताकि ऐसे क्षेत्रों पर ध्यान दिया जा सके, जहां बच्चे ज्यादा वंचित है. जिला, विकासखंड, गांव और शहरी वार्ड के स्तर पर बाल संरक्षण समितियां बनायी जायेंगी और उन्हें समेकित बाल संरक्षण योजना बनाने के लिए तैयार किया जाएगा. समाज में ऐसे संदेशों का प्रसार होगा और प्रशिक्षण किया जायेगी ताकि सभी लोग बच्चों के शोषण, उनके खिलाफ़ हिंसा, शोषण आदि पहलुओं पर समझ बना सकें और कार्यवाही में भूमिका निभा सकें. ये पहलू बहुत महत्वपूर्ण और जरूरी हैं, किन्तु जमीन पर क्रियान्वयन में दिखाई नहीं दे रहे हैं.

भारत में वर्ष 1986 से (किशोर न्याय अधिनियम) के अंतर्गत बच्चों से सम्बंधित मामले किशोर न्यायालयों में निराकृत किये जाने की व्यवस्था थी. वर्ष 2000 के किशोर न्याय अधिनियम में किशोर न्याय बोर्ड का रूप सामने आया; ये मुख्यतः ऐसे मामले निराकरण की दिशा में ले जाते हैं, जहाँ बच्चों ने कोई अपराध किया हो. खुद शोषण का शिकार होने वाले बच्चे बाल संरक्षण समिति के दायरे में आते हैं. भारत में जिस स्तर पर बच्चों असुरक्षित हैं, उसके मान से न्यायिक व्यवस्था को बच्चों के शोषण और अधिकारों पर संवेदनशील बनाने की महती जरूरत है.

दुखद यह है कि हमारा मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व हिंसा और शोषण के मामले में प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर चुका है. वह अभिनय में इतना माहिर हो चुका है कि अभिनय से ही समाज को बहला लेता है. बहरहाल अब संकेत भी मिलने लगे हैं कि समाज का एक बड़ा तबका हिंसा के राजनीतिक

सम्मोहन से बाहर आ रहा है और प्रतिक्रिया दिखाने लगा है. दिक्कत यह है कि बच्चे राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में नहीं है और समाज को सदियों से यही सिखाया गया है कि बच्चों के साथ जो कुछ भी होता है, वह नियति में लिखा होता है. वास्तव में बच्चे तो हमारी मूर्खता से अभिशप्त बनते हैं.

(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

 

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