सियाचिन के 'सुपरहीरो' जो अपनी तकलीफ पर उफ नहीं करते लेकिन...
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सियाचिन के 'सुपरहीरो' जो अपनी तकलीफ पर उफ नहीं करते लेकिन...

हम अक्सर छोटी-छोटी बातों से परेशान हो जाते हैं, हौसला खोने लगते हैं, मामूली सी दिक्कत पर सुलझाने की बजाय पीछा छुड़ाना चाहते हैं. हमें शॉर्टकट्स अच्छे और आसान लगते हैं लेकिन सियाचिन इससे ठीक उल्ट यानी कुछ भी आसान नहीं. सियाचिन शब्द के मतलब होता है- सिया मतलब वाइल्ड रोज़ और चिन मतलब जगह.

 सियाचिन के 'सुपरहीरो' जो अपनी तकलीफ पर उफ नहीं करते लेकिन...

अक्सर सफर पर मंज़िल भारी रहती है लेकिन वो रास्ता भी खास हो जाता है, जो आपको सियाचिन जैसे दुर्गम और सबसे मुश्किल रणक्षेत्र की तरफ ले जाता है. इस सफर के पड़ाव कुछ वहीं होते हैं जिनसे हमारे फौजी भी होकर गुज़रते हैं लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि इन पड़ावों को पार करने भर से कोई भी फौजी बन जाएगा. 25 दिसंबर 2019 वो तारीख है जो करीब  750 किमी के सफर में मेरे लिए फौज और उससे भी ज़्यादा खुद को जानने और समझने का नायाब मौका लेकर आई. मन खुश था कि दुनिया के सबसे ऊंचे रणक्षेत्र को देखने समझने का दुर्लभ अवसर मिला क्योंकि ये वही सियाचिन था जो एवलॉन्च को लेकर अक्सर सुर्खियों में आ जाता है और मेरी एंकरिंग का विषय रहा था. 

दिल्ली का 8 डिग्री का तापमान सर्दी का अहसास दे रहा था लेकिन ये 8 डिग्री स्वर्ग से कम नहीं लगती है जब लेह की माइनस 20 डिग्री वाली हवा में पहली सांस लेते हैं. हमारी टीम के एक्लिमिटाइज़ेशन के तीन पड़ाव थे. पहला दिन लेह में ही रुककर ऊंचाई के लिए खुद को तैयार करना, दूसरा दिन लेह से सियाचिन तक का सफर और तीसरा दिन बेस कैंप पर. पढ़ा था ऊंचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है, अब बारी अनुभव करने की थी. 

मेरा सब-ज़ीरो तापमान से पहली बार सामना नहीं था. यूरोप में सब-ज़ीरो डिग्री तापमान में रहने का दो साल का अनुभव था लेकिन सियाचिन के चैलेंज के सामने कोई भी अनुभव नाकाफी होता है. रास्ता खूबसूरत था और घुमावदार भी, बर्फ से ढंकी ऊंची चोटियां कुदरत की चुनौती की तरफ इशारा करती थी तो रास्ता इन चुनौतियों पर जीत दर्ज करने की मानवीय ज़िद का. दुनिया के सबसे ऊंचे मोटरेबल मार्गों में से एक पर हम थे. साउथ पुल्लू पारकर हम खारदूंग ला पहुंचे. ये हमारे सफर का अहम पड़ाव था. खारदूंग ला यानी चोटी की ऊंचाई के लिहाज़ से 18300 फीट. चुनौती तीन थी-सब-ज़ीरो तापमान, ऊंचाई और कम ऑक्सीजन, कैफे में कई बार गई हूं लेकिन ऑक्सीजन कैफे नया था और आपमें से कई के लिए ये नया ही होगा.

ऑक्सीजन कैफे का बोर्ड में हिदायतें साफ-साफ लिखी थी- 15 मिनट से ज़्यादा ना रूके, अगर सांस फूले या किसी तरह की तकलीफ हो, चक्कर आए तो फौरन वहां से प्रस्थान कर जाएं. 17 हज़ार फीट से ज़्यादा की ऊंचाई से सामना हुआ तो हर सांस की कीमत समझ आई. अगली सांस आएगी भी ये डर आया. हर सांस के लिए जवानों की जद्दोजहद समझ आई. ये सवाल भी मन में आया कि क्या सैनिकों के पास भी यहां से चले जाने का विकल्प है?

हम अक्सर छोटी-छोटी बातों से परेशान हो जाते हैं, हौसला खोने लगते हैं, मामूली सी दिक्कत पर सुलझाने की बजाय पीछा छुड़ाना चाहते हैं. हमें शॉर्टकट्स अच्छे और आसान लगते हैं लेकिन सियाचिन इससे ठीक उल्ट यानी कुछ भी आसान नहीं. सियाचिन शब्द के मतलब होता है- सिया मतलब वाइल्ड रोज़ और चिन मतलब जगह. वाइल्ड रोज़ तो हमें नहीं दिखे, कुछ दिखा तो चुनौतियां! दिनचर्या से लेकर मौसम, एवलॉन्च से लेकर क्रिवास यानी बर्फ की खाई और इस सबसे ऊपर एक तरफ पाकिस्तान और दूसरी तरफ चीन लेकिन जवान डटे रहते हैं किसके लिए? 

हम पर 'मैं' भारी है और उन पर 'हम' यानी हिंदुस्तान. सब-ज़ीरो तापमान मतलब सब कुछ जम जाता है. शायद आपने पिछले साल सियाचिन में तैनात जवानों का वो वीडियो देखा हो जिसमें वो पत्थर हो चुके जूस, अंडे और सब्ज़ी दिखाते हैं. एक सेंकड के लिए कल्पना कीजिए आप सियाचिन में है तो आपके दिन की शुरुआत कुछ ऐसी होगी. माइनस 40 डिग्री तापमान जो मानइस 70 तक जा सकता है, आप सबुह उठे तो बाल्टी में पानी नहीं बर्फ, आपके वॉशरूम में पानी की बूंद भी गिरी होगी तो बर्फ बनकर आपका स्वागत करेगी.

आपकी सबसे पहली ज़रूरत गर्म पानी होगा, जमा हुआ हैंडवॉश, जमा हुआ पेस्ट, एकमात्र सहारा पोर्टेबल हीटर और बुखारी, लकी रहे तो ब्लोअर.. यहां तक कि डीज़ल-केरोसिन तक जम जाते हैं. वाहनों को पहले से ऑन करके घंटों छोड़ना पड़ता है, जमे तेल को पिघलाना पड़ता है. सब कुछ जनरेटर पर निर्भर करता है, बर्फ पर वाहन फिसले नहीं, इसलिए ज़ंजीरों का इस्तेमाल और BRO सड़कों पर आवाजाही सुनिश्चित करने के लिए पल-पल मुस्तैद, ऐसे भी पड़ाव आए जब हमारी गाड़ी फंस गई और आर्मी ने हमारी मदद की. 

इन चैलेजिंग कंडिशंस में Acute Mountain sickness (AMS), फ्रॉस्ट बाइट, मैटाबॉलिज्म का कमज़ोर पड़ जाना, बीपी बढ़ना और वज़न गिरने का खतरा लगातार बना रहता है. खास तरह के कपड़े तो हैं लेकिन आराम के साथ उनका बोझ भी है, महज़ कपड़ों और जूतों की बात करें तो करीब 10 किलो का वज़न और जवानों को करीब 15 किलो वजन उठाना भी होता है. फिल्मों में जिन सुपरहीरोज़ की बात की जाती है, अगर उन्हें साक्षात देखना है तो सियाचिन आइए, इनके जोश, जूनुन और जज्बे को देखकर आपकी ज़्यादातर परेशानी बौनी हो जाएंगी और नए सिरे से आगे बढ़ने का हौसला मिलेगा. 

सियाचिन के फॉरवर्ड पोस्ट से लौटे कुछ सैनिकों से बात हुई तो जानने की जिज्ञासा थी कि उन्हें इस पोस्टिंग से क्या सीखने को मिला, उनके शरीर पर इन मुश्किल चुनौतियों से क्या असर पड़ा, परिवार के लोगों से कैसे बात होती थी वगैरह-वगैरह, जवाब से सिर्फ एक ही बात समझ आई कि फौजी देखता बहुत कुछ है, झेलता बहुत कुछ है, समझता उससे भी ज़्यादा है, लेकिन बोलता कुछ भी नहीं.

अपनी तकलीफ पर वो उफ नहीं करता क्योंकि जीता वो सिर्फ देश की आन-बान-शान के लिए है, वो डटा रहेगा ताकि हम राष्ट्रगान पर खड़े होने को लेकर वाद-विवाद करते रहें, वो डटा रहेगा ताकि लोगों के पास आज़ादी-आज़ादी के नारे लगाने की आज़ादी रहे, वो डटा रहेगा कि देश का मस्तक को ऊंचा रखने के लिए, भले ही देश के भीतर लोग तोड़फोड़ किए जाएं, वो डटा रहेगा, उसके लिए भी जो उसके पराक्रम के सबूत मांगते हैं. वो डटा रहेगा उसके लिए भी जो उसकी शहादत का मज़ाक बनाते हैं. बस यही है 'सियाचिन वॉरियर्स'!

(लेखिका ज़ी न्यूज़ में एसोसिएट एडिटर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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