सीहोर का गांव दे रहा सीख- 'पानी बनाया तो नहीं, लेकिन बचाया जा सकता है'
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सीहोर का गांव दे रहा सीख- 'पानी बनाया तो नहीं, लेकिन बचाया जा सकता है'

सुबह स्कूल जाने वाले बच्चों का काफी वक्त स्कूल के पास ही लगे हैंडपंप के पास खड़े होने में बीत जाता है. मुश्किल से चलने वाला ये हैंडपंप कई बार चलाने पर एक लोटा पानी निकालता है.

सीहोर का गांव दे रहा सीख- 'पानी बनाया तो नहीं, लेकिन बचाया जा सकता है'

रोड बनाना नहीं पानी बचाना ज़रूरी 
सुबह पांच बजे का वक्त है, अभी सूरज ने दर्शन नहीं दिए हैं . आसमान में टिमटिमाते तारे इस बात की गवाही दे रहे हैं कि पौ फटने में अभी वक्त है. गांव के मंदिर में लगे हुए लाउडस्पीकर में भगवान के भजन बजना शुरू हो गए है. ये दरअसल गांव वालों के लिए एक तरह का अलार्म भी है. गांव में लोग अपने अपने घरों से निकल गए हैं. लेकिन खास बात ये हैं कि ये लोग शौच के लिए नहीं जा रहे हैं. गांव को काफी पहले ही खुले में शौच मुक्त गांव घोषित किया जा चुका है. ये लोग इसलिए निकले हैं क्योंकि शौच जाने से लेकर नहाने और खाना पकाने तक जिस चीज की सबसे ज्यादा अहमियत होती है. उस चीज की इस गांव में बेहद कमी है. वो चीज़ है पानी.

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब 50 किलोमीटर दूर सीहोर जिले में बसा गांव रायपुर नायखेड़ा में पानी की परेशानी कोई आज की बात नहीं है . ये गांव पिछले पचास सालों से पानी की समस्या से जूझ रहा है.  इसी जिले से निकलने वाली कोलार नदी जिसका 70 फीसद पानी भोपाल के लोगों की प्यास बुझाता है. सीहोर के पठारी इलाका होने की वजह से ये नदी के अपर बेसिन पर मौजूद है. इस कारण से करीब 1300 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली इस नदी से प्राकृतिक तौर पर सीहोर जिले को कोई विशेष लाभ नहीं मिल पाया. शुरू से ही भूमिगत जल पर निर्भर इन गांवो के हालत पानी के मामले में बद से बदतर होते जा रहे हैं.

सुबह पांच बचे से गांव में रहने वाले सभी परिवारों से कोई ना कोई अपने अपने साधनों से पानी की जुगत के लिए निकल जाता है. कोई पैदल, कोई साइकिल से, कोई बाइक पर तो कोई बैलगाडी में पानी ढोता हुआ नजर आ जाता है. 

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पूरी तरह से कृषि पर निर्भर इस जिले के गांव की मुख्य फसल गेंहू, चना और सोयाबीन है. गांव में रहने वाली चिंता का नाम सुनकर एक बार को तो अजीब लगता है कि किसी का ऐसा नाम हो सकता है . गांव में बहु बन कर आई चिंता का नाम लेकिन गांव में पानी के प्रबंधन के लिए सुबह से जुट जाने के बाद रात तक लगे रहने के कारण सार्थक सा लगता है. चिंता सुबह 4 बजे उठ जाती हैं. उसके बाद गांव के हेंडपंप से पानी भरने के लिए निकल जाती है. गांव में खुदे हेंडपंप और कुंए में झिर फूटने पर एक घंटे में इतना पानी भर जाता है कि कुछ परिवारों को पीने और रसोई के काम के लायक जुगाड़ जम जाती है. उसके बाद अगले कुछ परिवारों को अपना इंतज़ाम जुटाने के लिए कुछ घंटो का इंतज़ार करना पड़ता है. ये इंतज़ार 2 घंटे से 6 घंटे तक हो सकता है. गर्मी बढ़ने के साथ जैसे ही भूमिगत जल और नीचे चला जाता है तो ये इंतजार और लंबा हो जाता है. तब कई बार कुँए में एक बार का पानी भरने में 24 घंटे भी लग जाते हैं .

ऐसे में चिंता अपने परिवार के साथ गांव के पास ही बने अपने खेत पर चली जाती है. खेत में फसल कट चुकी होती है तो वहां मौजूद कुओँ के पानी का इस्तेमाल सिंचाई में नहीं होता है ऐसे में उसे घरेलू इस्तेमाल में ले लिया जाता है. खेत पर बने कच्चे घर में बुनियादी सुविधाओं का इंतजाम करके रखा गया है. लेकिन जब पानी की कमी हो जाती है और गांव के ज्यादातर लोग खेतो में बने घरों में रहने चले जाते हैं और जो लोग नहीं जा पाते हैं वो  रोज़ाना खेतों में खुदे कुओं से पानी लाते हैं.

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ऐसे में स्वच्छ भारत अभियान की सफलता पर ज़रूर प्रश्नचिन्ह लग जाता है. गांव के लोग पानी की कमी के चलते वापस खुले मैदान, खेत और बाहर शौच करने के पुराना ढर्रे पर लौट जाते हैं. और ये प्रक्रिया साल के उन छह महीनों में रहती है जब पानी की भीषण कमी हो जाती है. आठ दिन पुराना पानी पीने को मजबूर गांव के लोगों को शौच के लिए पानी खर्च करने का बोलना ऐसे में बेमानी हो जाता है. 

स्कूल में पढ़ाई कम और पानी का इंतज़ार ज्यादा
रायपुर नायखेड़ा में एक मिडिल स्कूल है. गांव के अधिकांश बच्चे इसी में पढ़ते हैं. आठवीं के बाद बच्चों को पढ़ने के लिए शहर में जाना होता है. सुबह स्कूल जाने वाले बच्चों का काफी वक्त स्कूल के पास ही लगे हैंडपंप के पास खड़े होने में बीत जाता है. मुश्किल से चलने वाला ये हैंडपंप कई बार चलाने पर एक लोटा पानी निकालता है. उस पर लंबी लगी लाइन ऐसे में स्कूल जाने वाले बच्चे अपनी अपनी बॉटल लिए काफी वक्त पानी निकालने में लगा देते हैं तिस पर अगर गांव की कोई बूढी महिला को पानी की जरूरत पड़ गई तो उसके लिए भी हैंडपंप चलाने की ज़िम्मेदारी इन बच्चों की ही होती है.  कुछ बच्चे अपनी प्यास को रोके रखते हैं और दिन दिन भर बगैर पानी पिए निकाल देते हैं क्योंकि उन्हें अपना कोर्स पूरा करना है. कुछ बच्चों के लिए ये खेल होता है. 

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क्या थी हालत और क्या हो गई
करीब 1542 जनसंख्या वाले सीहोर जिले के रायपुर नायखेड़ा गांव में 942 वोटर हैं. गांव की मुख्य फसल गेंहू और चना है. पहले गांव में मोटे अनाज की खेती का चलन था, ज्वार, बाजरा जैसे कम पानी में होने वाली खेती हुआ करती थी. लेकिन फिर बाज़ार में गेंहू की मांग और गेंहू की खपत के चलते 20 साल पहले से मोटे अनाज का उत्पादन पूरी तरह से खत्म हो गया, अब ले दे कर चना ही है जिसे उगाया जाता है. गांव के लोग जानते हैं कि गेंहू में पानी ज्यादा लगता है. लेकिन अब वो गेंहू पर इस कदर निर्भर हो गए हैं कि वो मोटा अनाज खाने तक की कल्पना नहीं कर पाते हैं. 

रायपुर नायखेड़ा जंगलों के बीच बसा हुआ गांव है. यहां चारों तरफ करीप 500 एकड़ के क्षेत्रफल में सागौन और युकेलिप्टस के जंगल मौजूद है. जंगलो से घिरा होना भी मोटे अनाज से मुंह मोड़ने की एक वजह बना है. दरअसल जंगल होने की वजह से यहां जंगली सुअर और हिरण बहुतायत में है. जो मोटे अनाज की फसलों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं.

गांव में रहने वाले धीरज बताते हैं कि किस तरह खेतों में मूंगफली लगाने पर जंगली सुअर अपने थूथन से खोद कर सारी मूंगफली खा जाते हैं. जंगली सुअर से बचाव के लिए एक मशीन आती है लेकिन वो काफी मंहगी है इसलिए छोटी जोत का किसान उसे लगा नहीं सकता है. बाड़ा लगाना भी कारगर नहीं होता है क्योंकि सुअर नाली खोदते हुए खेतों में घुस जाते हैं. और चूंकि सुअर गेंहू नहीं खाते हैं इसलिए उसकी फसल बच जाती है. इसलिए गांव में गेंहू उगाने का चलन ज्यादा है.

गांव में रहने वाला जीवन बताते हैं कि पांच साल पहले तक गांव में 70 फीट तक पानी था लेकिन बीते पांच सालों में भूमिगत जल का स्तर घट कर 200-250 फीट तक पहुंच गया है. यही नहीं गांव के कुओं में पहले 20 फीट पर पानी आ जाता था लेकिन वो भी अब घट कर 70 फीट तक चला गया है. गांव के इर्द गिर्द करीब 42 तालाब हैं लेकिन वो भी देखरेख की कमी के चलते सूख गए हैं.

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यही नहीं कुछ लोगो ने तो सूख गए तालाबों में खेती तक करना शुरू कर दी है, चूंकि तालाब की ज़मीन होने के चलते मिट्टी में नमी रहती है जिससे इसमें उपज आ जाती है . एक बरसाती नदी है जिसका पानी बह कर आगे निकल जाता है या व्यर्थ चला जाता है.

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ग्राम पंचायत सचिव महेश राठौर बताते हैं कि पहले मार्च –अप्रैल तक पानी रहता था तो ट्यूबवेल पानी दे देते थे. लेकिन अब तो जनवरी में ही पानी खत्म हो गयी है. महेश राठौर का कहना है कि जब तक तालाब में पानी रहता है तो भूमिगत जल का स्तर बना रहता है जैसे ही तालाब सूख जाते हैं पानी का स्तर घट जाता है. जल प्रबंधन कार्यक्रम के तहत तालाब बनवाए गए हैं.
वहीं सरपंच गजराज सिंह मेवाड़ा का कहना है कि गांव से गुजरने वाली बरसाती नदी पर स्टॉप डेम बना कर भूमिगत जल स्तर को सुधारा जा सकता है और खेती की समस्य़ा का निदान हो सकता है लेकिन फंड की कमी के चलते वो काम होने में परेशानी है क्योंकि ग्राम पंचायत के पास डैम को बनाने का बजट नहीं होता है. 

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संरपंच गजराज सिंह मेवाडा बताते हैं कि पिछली बार बरसात के मौसमे में गाव के लोगों ने मिलकर बोरीबंधान (भरे हुए बोरों से बना हुआ स्टॉप डैम) लगाकर कुछ हद तक पानी का रोक कर इस्तेमाल किया था लेकिन वो ज्यादा वक्त के लिए सफल नहीं होता है. 

तालाबों की खुदाई या छोटी परियोजनाओं के लागू होने में आने वाली परेशानियों के बारे में महेश राठौर कहते हैं कि सरकार किसी भी काम को मनरेगा के तहत करवाने को कहती है और मनरेगा में 174 रु दिहाड़ी मिलती है. मजदूर इतने कम पैसों में काम करना नहीं चाहता है. मजदूर मनरेगा में काम करने के बजाए पास ही मौजूद राजधानी भोपाल या सीहोर शहर में 500 रु रोज में काम करने चला जाता है. 

गांव खुद से जुटा हुआ है पानी जुटाने में 
रायपुर नायखेड़ा गांव के लोगों को कहीं ना कहीं ये बात समझ में आ गई है कि पानी बनाया नहीं जा सकता है लेकिन बचाया जा सकता है. इसलिए अब गांव के लोग पानी बचाने की नई नई तरकीबों पर ध्यान भी देने लगे हैं और उनका पालन भी करने लगे हैं. जहां एक तरफ गांव के तालाबों की गाद हटाकर उन्हे फिर से जीवित करने का काम गांव के लोगों ने अपने हाथों में लेने का फैसला किया है वहीं गांव के पास बहने वाली बरसाती नदी पर बोरी बंधान जैसी जुगाड के साथ पानी रोक कर भूमिगत जल स्तर को सुधारना का काम भी मिल जुल कर किया है. इसके अलावा गांव के हर घर के सामने  सोखता गड्ढ़ों का निर्माण गांव की जागरुकता का सबूत देता है.

क्या होते हैं सोखता गड्ढें
सोखता गड्ढे दरअसल हर घऱ के सामने या पीछे जहां से घर में इस्तेमाल हुआ पानी की निकासी होती है वहां पर बनाया गया तीन फीट गहरा और तीन फीट चौड़ा गड्ढा होता है. इस गड्ढे में एक प्लास्टिक का डब्बे में छेद करके उसे रख दिया जाता है जिससे घर के अंदर से आने वाला कचरा डब्बे में रह जाता है और पानी ज़मीन के अंदर चला जाता है. इस तरह गांव में यहां वहां गंदा पानी भी नहीं बहता है जिससे पानी से जमा होने वाली बीमारियों से बचाव हो जाता है. वहीं पानी के ज़मीन के अंदर चले जाने से ज़मीन में पानी का स्तर भी कायम रहता है. 

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हालांकि घरों में इस्तेमाल होने वाला पानी जिसमें डिटरजेंट और दूसरे केमिकल तत्व होते हैं क्या वो पानी भूमिगत जल की गुणवत्ता पर असर डाल सकता है ये सवाल ज़रूर खड़ा होता है वैसे ग्राम पंचायत की फाइल में मौजूद पानी की जांच के कागज इस बात की गवाही देते हैं कि  गांव में भूमिगत पानी का जलस्तर बेहतर हालत में है. 

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बोरवेल नहीं है काम के
पानी बचाने में जुटे रायपुर नायखेड़ा का साथ प्रकृति भी दे रही है. दरअसल प्रकृति मानव फितरत को समझने लगी है, वो जानती है कि सामने अगर व्यवस्था होती है तो इंसान कभी भी प्रयास नहीं करता है वो सरल रास्ता अख्तियार करना पसंद करता है. संसाधनों को लेकर इंसानी सोच हमेशा से यही रही है कि आज तो इस्तेमाल कर लें कल की कल देखी जाएगी. भूमिगत जलस्तर के नीचे जाने में बोरवेल का धड़ल्ले से  होने वाला इस्तेमाल एक बहुत अहम वजह रही है. ज़मीन में छेद करके मशीन से पानी को खींच कर हमने इस कदर बेज़ा इस्तेमाल किया कि ज़मीन के नीचे मौजूद पानी के भंडारों को भी खाली कर दिया. यहां तक कि खोदते खोदते हम इतना नीचे चले गए कि  हम पाताल में मौजूद पानी के अंदर मौजूद रासायनिक तत्वों को तक खींचने लगे जिससे पानी तो खत्म हुआ ही साथ ही जो पानी आया वो ज़हरीला आने लगा. चूंकि भारत में ज़मीन के नीचे मौजूद पानी पर कोई सरकारी नियंत्रण नहीं है इसलिए उसका सबसे ज्यादा बुरी तरह इस्तेमाल  हुआ है.

जिसका नतीजा सीहोर ज़िले में साफ नज़र आता है. हालांकि वर्तमान में सीहोर जिले मे निजि स्तर पर ट्यूबवेल लगाने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया है. अगर कहीं पानी की बहुत ज़रूरत है तो ग्राम पंचायत स्तर पर अर्जी देनी होती है कि गांव में पानी की बेहद कमी के चलते ट्यूबवेल लगाने की अनुमति दी जाए . ये ट्यूबवेल सार्वजनिक होता है और सिर्फ पीने के पानी के लिए लगाया जा सकता है वहीं सिंचाई के लिए और निजि ट्यूबवेल पर पूरी तरह प्रतिबंध है. जैसा कि हमने शुरू में जिक्र किया था कि प्रकृति भी इसमें गांव का साथ दे रही है दरअसल रायपुर नायखेड़ा गांव में ट्यूबवेल खोदने पर पानी नहीं निकलता है यहां तक कि 400-500 फीट खोदन पर भी पानी नहीं निकलता है. वहीं कुएं में 70 फीट पर पानी मिल जाता है हालांकि कुएं में एक बार पानी खत्म हो जाने पर दूसरी बार आने में समय लगता है क्योंकि वो प्राकृतिक तरीके से ही भरता है लेकिन हवा छोड़ते ट्यूबवेल के बजाये गांव में लोग कुएं खोदना ज्यादा बेहतर समझते हैं . इसलिए गांव में ट्यूबवेल की जगह आज भी कुओं की संख्या ज्यादा नज़र आती है. इसकी वजह पूछने पर गांव के सरपंच बताते हैं कि ट्यूबवेल मोटे स्रोत को ढूंढता है जबकि कुएं छोटी झिर को भी पकड़ लेते हैं जिससे बूंद बूद पानी रिसता रहता है. इस तरह धीरे धीरे ही लेकिन गाव में मौजूद कुएं लोगों की पानी की ज़रूरतों को पूरा कर रहे हैं. वहीं बरसात में या जब गांव के इर्द गिर्द के तालाब में पानी मौजूद रहता है तो यही कुएं लबालब भी जाते हैं. 

खेती में क्या नयापन और विकल्प
गांव के लोग गेंहू, सोयाबीन और चने के अलावा अगर और किसी पैदावार पर सबसे ज्यादा ध्यान दे रहे हैं तो वो है सब्जी . भोपाल से लगा हुए होने की वजह से गांव में पैदा होने वाली सब्जी की काफी मांग रहती है. गांव के लोग बरसात आने से पहले ही थोड़े पानी की जुगाड करके खेतों में सब्जी बो देते हैं. फिर बरसात होते ही उन्हें ठीक ठाक सब्जियों की पैदावार मिल जाती है. यहीं नहीं लोगों ने अपने घर से निकलने वाले पानी का इस्तेमाल करके घरों के आंगन तक में सब्जियां बो रखी है जिन्हें वो खुद के खाने में ले आते है.. गांव के सरपंच बताते हैं कि उनके गांव के लोग बेहद मेहनती है, यहां तक कि बीजों को अंकुरित करने के लिए लोगों खेतों में गिलास तक से पानी डालते हैं. 

जहां तक गेंहू उत्पादन का सवाल है ये जानते हुए कि उसमे पानी ज्यादा लगता है गांव के लोग उसे उगाना बंद नहीं करना चाहते हैं. गांव के लोगों का कहना है कि दरअसल गेंहू की खेती करने के पीछे ये वजह भी है कि उससे जहां उनके साल भर के खाने की जुगाड हो  जाती है वहीं फसल से निकलने वाला भूसा मवेशियों के काम आ जाता है. क्योंकि गांव अकले खेती पर निर्भर नहीं रहना चाहता है इसलिए उन्होंने विकल्प के तौर पर डेयरी उत्पादन पर जोर देना शुरू कर  दिया है. गांव में दूध उत्पादन का कारोबार काफी बेहतर हालत में है . इस तरह गांव के लोग खेती के अलावा विकल्प तलाश रहे हैं जिससे उनका जीवन यापन होता रहे . 

युवा जगा रहे हैं उम्मीद
गांव में रहने वाले धीरज जो पास ही सीहोर शहर में कॉलेज में पढ़ते हैं. गांव के हालात से पूरी तरह परीचित है. संयुक्त परिवार में रहने वाले धीरज में पास काफी ज्यादा खेती की ज़मीन है. कॉमर्स की पढाई कर रहे धीरज उन युवाओं में से हैं जो आपको हैरान कर देते हैं. उनकी उम्र के ज्यादातर युवा खेती किसानी, गांव-घर जैसी बातों को दकियानूसी मानते हैं और इससे बचने में लगे रहते हैं. जहां ज्यादातर युवा पढ़ लिख कर गांव से पलायन करने का मन बना लेते हैं ऐसे में धीरज खेती के उन तमाम तरीकों  पर काम करने में लगे हुए हैं जिससे गांव का विकास हो सके.

यही नहीं पानी प्रबंधन को लेकर वो जिस तरह स्थानीय एनजीओ के साथ मिलकर गांव के लोगों को जागरुक करने में लगे हुए हैं वो एक उम्मीद की किरण जगाती है. धीरज की ही तरह 12वीं में पढ़ने वाले कान्हा भी अपनी उम्र से ज्यादा अनुभवी नज़र आते हैं. भूमिगत जल को किस तरह बचाना है, किस तरह बढ़ाना है, ऑर्गेनिक खेती को कैसे बढ़ावा मिले, कम पानी का इस्तेमाल करके ज्यादा खेती कैसे की जाए, शौचालय होने के क्या लाभ है और शौचालय कितने तरह के होते हैं. ऐसे ना जाने कितने गूढ़ प्रशनों के जवाब इन युवाओं को जबानी याद है. सुबह पांच बजे मुंह अंधेरे में उठ कर ये युवा गांव के सुधार कार्यक्रमों में लग जाते हैं. गांव के हर घर में सोखता गड़्ढे हो और जहां हैं वो ठीक से काम कर रहे हों सुबह से उनका यही काम होता है, फिर उसके बाद वो कॉलेज या स्कूल में पढ़ने भी जाते हैं और वापस आकर फिर अपने कामों को देखते हैं. इतना कुछ करने के बाद भी इन युवाओं के चेहरे पर कोई शिकन या शिकायत नज़र नहीं आती है. धीरज कहते हैं कि गांव में सबकुछ है बस पानी मिल जाए तो हमारा गांव लेगा नहीं देगा.

पचासों सालों से पानी की कमी से जूझते इन गांवों में रहने वाले पढ़े लिखे युवा और उनका साथ देती पंचायते और बुजुर्ग इस बात का अहसास कराते हैं कि इंसान अगर चाह ले तो व्यवस्था कर सकता है. सुबह से गांव में घूमने वाले धीरज और उनके साथी कान्हा और दूसरे युवक कहते हैं कि हम गांव से कहीं नहीं जाने वाले हैं हम गांव को ऐसा बनाना चाहते हैं कि लोग हमारे गांव में आने के लिए मजबूर हो जाएं.
वहीं गांव के सरंपच का  कहना हैं कि सरकार रोड बनाने से ज्यादा पानी बचाने पर ध्यान दे तो ज्यादा सफल हो सकती है.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और WaterAid India 'WASH Matters 2018' के फैलो हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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