गर्म धूप निकली सभी सुगबुगाए, हटा दो रजाई ,चलो धूप खाए। एक कविता का ये हिस्सा जाड़े के मौसम के लिए मुफीद बैठता है। सूरज से निकल रही गुनगुनी धूप जाड़े के दिनों में सुकून देती है जबकि गर्मी में सितम ढाने और जलाने का काम करती है। और इस मौके पर ‘गर्मी ने बेदम किया, मुख से निकले आग, वन-उपवन जलने लगे ऐसी बरसी आग। मौसम करवट ले रहा, निकल रही है जान, जल-जंगल जलने लगे, पिघल रहा इंसान’ ये पंक्तिया गर्मी की दशा और दिशा से बखूबी साक्षात्कार कराती है। इस बार देश के कई हिस्सों में जो गर्मी मई और जून के महीने में पड़ा करती थी वह अप्रैल के महीने में ही आसमान से आग बरसा रही थी। ओडिशा के 18 जिले सूरज की दहकती गर्मी से धधक रहे हैं। गर्मी और तपिश का हाल कुछ ऐसा कि जिसने जिंदगी की दिनचर्या को तहस-नहस करके रख दिया हो।
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संजीव कुमार दुबे
'गर्म धूप निकली सभी सुगबुगाए, हटा दो रजाई, चलो धूप खाएं'। एक कविता का ये हिस्सा जाड़े के मौसम के लिए मुफीद बैठता है। सूरज से निकल रही गुनगुनी धूप जाड़े के दिनों में सुकून देती है जबकि गर्मी में सितम ढाने और जलाने का काम करती है। और इस मौके पर ‘गर्मी ने बेदम किया, मुख से निकले आग, वन-उपवन जलने लगे ऐसी बरसी आग। मौसम करवट ले रहा, निकल रही है जान, जल-जंगल जलने लगे, पिघल रहा इंसान’ ये पंक्तिया गर्मी की दशा और दिशा से बखूबी साक्षात्कार कराती है। इस बार देश के कई हिस्सों में जो गर्मी मई और जून के महीने में पड़ा करती थी वह अप्रैल के महीने में ही आसमान से आग बरसा रही थी। ओडिशा के 18 जिले सूरज की दहकती गर्मी से धधक रहे हैं। गर्मी और तपिश का हाल कुछ ऐसा कि जिसने जिंदगी की दिनचर्या को तहस-नहस करके रख दिया हो।
ओडिशा में एक जगह है टिटिलागढ़ जहां अप्रैल के महीने में मेरा एक समारोह के सिलसिले में जाना हुआ। ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से लगभग 400 किलोमीटर दूर बोलांगीर जिले का एक छोटा सा कस्बा है टिटिलागढ़ जिसकी आबादी है लगभग 60 हजार। रोड के रास्ते ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से आप यहां नयागढ़ होकर पहुंच सकते है जिसकी दूरी 392 किलोमीटर है। लेकिन जब आप अंगुल होकर आते है तो यह दूरी बढ़कर 440 किलोमीटर हो जाती है। ट्रेन संबलपुर होकर भुवनेश्वर जाती है जिसकी दूरी 495 किलोमीटर है। टिटिलागढ़ जंक्शन पर तीन प्लेटफार्म है जिसकी शुरुआत 1930 से हुई। इस जंक्शन से रोजाना सैंकड़ों रेलगाड़ी और मालगाड़ी गुजरती हैं।
किसी भी मौसम में इस शहर का नाम सुर्खियों में ना आता हो लेकिन गर्मियों के मौसम में यह टीवी न्यूज चैनलों की हेडलाइन और देश के हर अखबारों की सुर्खियां बन जाता है। यह ओडिशा ही नहीं बल्कि देश के सबसे गर्म शहर के रूप में शुमार होता है जहां की गर्मी सहन कर पाना सबके बस की बात नहीं। यहां की चिलचिलाती धूप 44 डिग्री के तापमान को पार कर गर्मी से बेदम कर देती है।
जब मैं यहां पहुंचा तो ऐसा लगा जैसे कि यह शहर आग की भट्टी की तरह धधक रहा हो। सुबह 10 बजे ही सड़कों और बाजारों में सन्नाटा पसरता नजर आया। ज्यादातर दुकानें बंद और रास्तों पर वीरान सा मंजर दिखा। लोग दहकती गर्मी की वजह से अपनों कमरों में कैद से हो गए थे। बढ़ते पारे और आसमान से बरसते अंगारों ने लोगों की दिनचर्या को नेस्तनाबूद कर रखा था। 24 अप्रैल को यहां का पारा लगभग 49 डिग्री (48.5 डिग्री) सेल्सियस रिकार्ड किया गया। लोगों से बात की तो पता चला कि मई के आखिर और जून के पहले हफ्ते में पड़ने वाली गर्मी का सिलसिला अभी से ही शुरू हो गया है। दिन चढ़ता है तो पारे में उबाल आता है लिहाजा शहर की रफ्तार थम जाती है और लगता है कि जिंदगी गर्मी की तपिश में सिमट सी गई हो। यहां के लोग बताते है कि 13 साल पहले यहां जो गर्मी पड़ी उसमें पारा 50 डिग्री सेल्सियस के पार चला गया था। अब लोगों में इस बात को लेकर खौफ है कि पारा कहीं फिर 50 डिग्री के पार ना चला जाए।
दरअसल टिटिलागढ़ का नाम पहले ततला गढ़ हुआ करता था जो कि अपभ्रंश रूप है। ततला ओड़िया भाषा का एक शब्द है जिसका मतलब होता है काफी गर्म, तपता हुआ, उबलता हुआ। इतने पुराने नाम से यह जाहिर होता है कि यह स्थान लंबे अरसे से अपनी मौजूदगी देश के सबसे गर्म तापमान वाले शहर के रूप में दर्ज कराता रहा है। इस साल अप्रैल महीने के आखिरी हफ्ते में यह स्थान देश के सभी न्यूज चैनलों की हेडलाइन बन गया। अखबारों की सुर्खियां और पहले पन्ने पर भी टिटिलागढ़ की तस्वीरें धड़ाधाड़ छप रही थी। तकरीबन एक हफ्ते तक ओडिशा का यह शहर सुर्खियों छाया रहा। वजह सिर्फ एक ही थी कि टिटिलागढ़ का तापमान 48.5 डिग्री सेल्सियस पहुंचकर देश के सबसे ज्यादा तापमान वाले शहर के रूप में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा था। टीवी पत्रकारों का हुजुम यहां इकट्ठा होने लगा था। हेडलाइन में लगातार आ रहे इस न्यूज के वह किसी भी एंगल को मिस नहीं करना चाहते थे। लगा जैसे गर्मी ने भी खुद को सुर्खियों में बनाए रखने की ठान ली थी। लिहाजा सुबह, दोपहर और शाम तीनों वक्त के तापमान की आंखमिचौली ने मौसम विभाग तक को कनफ्यूज कर दिया था।
इस बीच कुछ लोगों ने यह आरोप भी लगाना शुरू किया कि राज्य सरकार जानबूझकर कम तापमान दिखा रही है क्योंकि उसके पास आग बरसाती इस गर्मी से निपटने के संसाधन नहीं है। कुछ यह भी कहते दिखे कि 50 डिग्री तापमान है लेकिन विभाग उसे जारी नहीं कर रहा है क्योंकि ऐसी स्थिति में सरकार को राहत और मुआवजा को लेकर ठोस पहल करनी होगी। लेकिन इन तमाम दावों और आरोपों के बीच मौसम ने भी करवटें ली। तपतपाती जमीन को बारिश की फुहारों ने भी कुछ घंटों तक भिगोया। आंधी-तूफान के बीच ठंडी हवाएं भी चली। आसमान से अब अंगारे नहीं बरसात की बूंदे बरस रही थी। ऐसा लगा जैसे यह युद्ध गर्मी और बरसात के बीच में हो रहा हो। कुछ घंटों के लिए बारिश लोगों के लिए राहत का सबब बन रही थी तो कुछ ही घंटों बाद गर्मी की अग्नि उसकी कोशिशों पर पानी उडेलने का काम कर रही थी।
मैंने लोगों से यह जानना चाहा कि आखिर क्या वजह है कि यह शहर गर्मियों में इस कदर उबलता है? मन में यह सवाल बार-बार उमड़-घुमड़ रहा था कि यहां पेड़ पौधे भी है, पानी भी है, हरियाली भी है, तो फिर इतनी गर्मी क्यों? पता चला कि इसकी वजह टिटिलागढ़ के दक्षिणी हिस्से में स्थित कुमड़ा पहाड़ है। यह जानकारी मिली कि तपते टिटिलागढ़ की सबसे खास वजह है कुमड़ा पहाड़। कुमड़ा पहाड़ियां ग्रेनाइट की चट्टानों से बनी है। जब सूर्य की किरणें इन पत्थरों पर पड़ती है तो रिफ्लेक्ट होकर वह और ऊर्जावान हो जाती है। फिर रिफ्लेक्शन के बाद यही किरणे शहर में आग उगलती है जिससे शहर गर्मी की तपिश में उबलने लगता है। राकी मीडियम के तहत ग्रेनाइट की चट्टानों पर बसा ये इलाका सूर्य की किरणों के संपर्क में आकर तपने लगता है। स्थानीय लोगों का कहना है कि राज्य सरकार अगर कुमड़ा के चारों तरफ पेड़ पौधे लगाए तो गर्मी से कुछ हद तक निजात पाया जा सकता है। इसकी शुरुआत हुई भी जो नाकाफी रही।
दरअसल यहां हर साल होनेवाली गर्मी की वजह सिर्फ कुमड़ा पहाड़ का होना ही नहीं है। बल्कि इस इलाके का चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा होना भी है। यहां एक जानेमाने रिसर्चर और प्रोफेसर से बात की तो पता चला कि टिटिलागढ़ की धरती के ऊपर ही नहीं बल्कि इसके नीचे भी पहाड़ है। ऐसी स्थिति में सूरज की किरणें जिस प्रकार अवशोषित होनी चाहिए उस प्रकार हो नहीं पाती। लिहाजा गर्मी का प्रचंड स्वरूप हमें हर साल देखने को मिलता है। सूरज की किरणें धरती पर आने में लगभग आठ मिनट का वक्त लेती है। जब यह किरणें प्रखर होती है तो उनका बड़ा हिस्सा धरती अवशोषित (ऑब्जर्व) करती है यानी सोख लेती या फिर उन्हें ग्रहण कर लेती है। फिर बाकी बचे हुए किरणों से उस भू-भाग या जमीन पर हमें गर्मी का अनुभव होता है। दुर्भाग्य से यह स्थिति टिटिलागढ़ में इसकी प्राकृतिक बनावट की वजह से मुमकिन नहीं है। यहीं वजह है कि यहां वैसे पेड़-पौधे का प्लांटेशन नहीं किया जा सकता जिसकी जड़े जमीन के अंदर काफी दूर तक गहराई में पहुंचती हो। क्योंकि ऐसी स्थिति में जमीन के नीचे मौजूद विविध चट्टानें जड़ों को आगे बढ़ने से रोक देती है जो अमुक वृक्ष, पेड़, पौधे के काल का कारण बन जाता है। लिहाजा यह समझ में आ गया कि गर्मी यहां के लोगों को निरंतर झेलना होगा , उससे छुटकारा कोई चमत्कार ही दिला सकता है।
शहर की आबोहवा के बारे में तो मैंने आपको बता दिया। गर्मी के हाल से भी आप बखूबी रूबरू हो गए। लेकिन इस गर्मी के कुछ फायदे भी है। यहां ठंड मामूली पड़ती है। सर्दी के महीने में लोगों को यहां ठिठुरती ठंड का सामना नहीं करना पड़ता। मौसम का मिजाज चाहे जो भी हो लेकिन एक लाख से भी कम आबादी वाले इस शहर के मिजाज में मस्ती उल्लास और अल्हड़पन देखने को मिलता है। मिजाज में सुस्ती खासकर गर्मी के महीने में देखने को मिलती है जब ज्यादातर लोग जिन्हें काम पर नहीं जाना होता है , वे पाखाल भात खाकर सोना पसंद करते है। घर के बाहर भले ही गर्मी का सितम हो या फिर लू के थपेड़े चलते हो लेकिन पाखाल खाकर गहरी नींद के आगोश में समाने का मजा यहां के लोग खूब लेते हैं।
पाखाल भात यहां का सर्वप्रिय व्यजंन के रूप में जाना जाता है। पाखाल भात में चावल को कुछ घंटे तक पानी में रखा जाता है और उसके बाद उसे खाया जाता है। इस दौरान इसमें कुछ चीजें दही आदि कुछ चीजों भी मिलाई जाती है जिससे शरीर की पाचन क्रिया तेज होती है और शरीर के अंदरुनी हिस्से को ठंडक पहुंचती है। ओड़िया कल्चर में इसका खास महत्व है इसलिए ओडिशा में पाखाल दिवस भी मनाया जाता है। पाखाल दिवस प्राचीन ओड़िया संस्कृति की पहचान है। स्थानीय लोगों के मुताबिक यह शरीर के लिए लाभदायक होता है जो ठंडे तासीर की वजह से शरीर को ठंडा भी रखता है।
एक दिन पकाए हुए चावल को ठंडा कर पानी में रखा जाता है। फिर उसके बाद अगले दिन चावल को पानी से अलग किया जाता है जिसे पाखाल भात कहा जाता है। पाखाल भात को स्वादिष्ट बनाने के लिए बड़ी चूड़ा, मच्छा गाजा, साग, बैगन, टमाटर, पूड़ा, आलू, अंबा चटनी को भी थाली में सजाकर पेश करने की परंपरा है। यहां चली आ रही संस्कृति और समाज के बीच यह मान्यता है कि गर्मी के बढ़ते प्रभाव के साथ पेट की सुरक्षा के लिए पाखाल भात बेहतरीन व्यंजन है। इसके खाने से पेट ठंडा रहता है। यहां के लोगों के मुताबिक इसके सेवन से पेट संबंधी बीमारियां नहीं होती हैं। पकवान भले ही मस्ती और सुस्ती का आधार बनते हो लेकिन इस चट्टानी नगरी की जिंदगी इससे इतर भी है।
ऐसा नहीं है कि गर्मी यहां के मिजाज में सिर्फ सुस्ती ही घोलती हो। तपती दोपहर में भी मुंह पर गमछा बांधे पुरुष और स्कॉर्फ बांधे लड़कियां और महिलाएं देखे जा सकते है। जिन्हें काम से या काम पर जाना होता है उन्हें सक्रिय तौर पर देखा जा सकता है। लेकिन दोपहर के वक्त सड़कों या बाजारों में गिने-चुने लोग ही दिखते है। शहर को बारीकि से जानने के क्रम में मेरा सामना संतोष मिश्रा नाम के शख्स से होता है जिन्हें लोग यहां बुलू दा के नाम से जानते हैं। उनकी रोबीली और घनी मूंछे देखकर तो एकबारगी मैं डर गया। दरअसल यह डर बचपन से ही मेरे जेहन में बैठा है जो जाने का नाम नहीं लेता। लेकिन बुलू दा की मूंछे भले ही घुमावदार हो लेकिन उनकी जिंदगी बेहद सरल दिखी। जहां की दिनचर्या गर्मी के महीने में इतनी कठिन और मुश्किलों से भरी हो वहां के लोगों में इतनी सरलता कैसे समाहित होती है यह मेरी समझ से परे रहा। चेहरे पर गर्मी की तपिश दिखती हो, माथे से पसीने की बूंदे गिरती हो लेकिन ललाट पर सरलता और सौम्यता का टपकता नूर चट्टान को चुनौती देता नजर आता है है। मैं सवाल पूछते-पूछते थक गया लेकिन बुलू दा हर जवाब देते-देते ताजगी और नई ऊर्जा से ओतप्रोत होते दिख रहे थे।
बुलू दा से जब मैंने पूछा कि वो इतने मिलनसार और सबके लिए मददगार आखिर कैसे है? वो कुछ पलों के लिए चुप्पी साध लेते है और फिर यहां के स्थानीय निवासी स्वर्गीय एम एस दीक्षित को याद करते हैं। बुलू दा ने उन्हें लेकर काफी यादें संजोकर रखी है और उनके मुताबिक 'दीक्षित जी से मैंने सिखा कि जीवन सिर्फ खुद के जीने का नाम नहीं है बल्कि दूसरों के लिए भी कुछ कर गुजरने का नाम है।' अपने जीवन में उन्हें पिता का दर्जा देनेवाले बुलू दा ने कहा कि सरलता उनके संस्कारों का देन हो सकती है लेकिन जीवन की सहजता और निर्भीक जीवन जीने का अंदाज उन्होंने दीक्षित जी से ही सीखा। मुश्किलों में कुंदन की तरह तपकर और संवरकर जीने का बेलौस और बिंदास अंदाज लगता है यहां के लोग जीना सीख गए है। संस्कृत की सुभाषित 'संतोषम परमम सुखम' की उक्ति यहां चरितार्थ होती दिख रही थी। महानगरों की चौखट पर कई खुशियां दस्तक देकर चली जाती है और लोगों को इस बात की भनक तक नहीं लगती। मेट्रो सिटीज में आपाधापी और भागदौड़ से भरे जीवन में खुशियों के पलों पर कई बार नजर जाती ही नहीं लिहाजा उनका अनुभव भी नहीं होता। छोटे शहरों में शायद आप चंद खुशियों के पलों को भी बड़ी शिद्दत से महसूस करते हैं। बुलू दा की बातों से मैंने यही अंदाजा लगाया कि यहां खुशिया समेटने का नाम नहीं बल्कि उन्हें बिखेरने का अंदाज ही लोगों को 'कुछ अलग हटकर' 'सबसे जुदा' कैटेगरी में ला खड़ा करता है।
कुमड़ा पहाड़ शहर के दक्षिणि हिस्से में स्थित है। इस पहाड़ के उपर भगवान राम का मंदिर है। इस पहाड़ को लेकर ऐसी पौराणिक मान्यता है कि यहां भीम पांडवों के साथ अज्ञातवास के दौरान आए थे। किंवदती है कि यहां 'भीमपाद' (भीम के पैरों के निशान) भी है और भीम के पैरों के निशान इन पहाड़ियों पर आज भी देखे जा सकते है। कुमड़ा पहाड़ पर कई देवी मंदिर भी है और कुल मिलाकर इसके हर हिस्से में मंदिर है।
कुमड़ा पहाड़ के एक हिस्से में सबसे नीचे शंकर मंदिर है जिसे धवलेश्वर महादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर पहाड़ के एक हिस्से को काटकर बनाया गया है जो गोल आकार में है। मंदिर की जगह भले ही छोटी हो लेकिन यहां का आध्यात्मिक एंबिएंस अद्भुत है। जब यहां दर्शन के लिए जाते हैं तो आपको पिन ड्रॉप साइलेंस का फील मिलता है। कानों में घंटियों का गूंजना एक अद्भुत अहसास को जगाता है। एक विचित्र और अद्भुत बात जो यहां के लोग बताते है। लगभग हर महाशिवरात्रि के वक्त इस मंदिर में चंद दिन पहले नाग एक सांप आता है। वह इस शिवलिंग से लिपटा रहता है। पूरे दिन लोग बेलपत्र, दूध, जल भगवान शंकर की शिवलिंग पर अर्पित करते है लेकिन सांप उसी जगह पर रहता है।
महाशिवरात्रि का पर्व जैसे ही संपन्न होता है सांप कब और कहां चला जाता है यह आजतक एक रहस्य बना हुआ है। यह बेहद प्राचीन मंदिर है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां पांडव भी पूजा-पाठ किया करते थे। मंदिर से ठीक सटा हुआ एक व्याघ्र यानी बाघ गुफा है जिसके बारे में कहा जाता है कि एक जमाने में बाघ भी रहा करते थे। भगवान शंकर के इस मंदिर में महाशिवरात्रि के मौके पर शानदार चहल-पहल देखने को मिलती है। यहां इस मौके पर बड़ा मेला लगता है जिसे शिवरात्रि मेला कहते हैं और इसमें दूर-दराज के क्षेत्रों से भी लोग आते हैं। स्थानीय लोग इस मेले का इंतजार बेसब्री से करते है।
बेतहाशा गर्मी और मौसम की ताबड़तोड़ अठखेलियों के बीच हफ्ता कैसे गुजर गया, पता भी नहीं चला। अब वहां से विदाई लेने का दिन भी आ गया। हमें जब दिल्ली रेलवे स्टेशन या फिर एयरपोर्ट जाना होता है तो आमतौर पर यह दूरी आधे घंटे या घंटे से ज्यादा वक्त में तय होती है। यहां एक बात अच्छी लगी कि घर और रेलवे जंक्शन का फासला काफी कम है। बस इतना की आप चाय की चुस्कियां लेते-लेते ट्रेन पकड़ने के लिए जंक्शन तक पहुंच जाए और गाड़ी में बैठ जाए। किसी कैब को बुक कराने की जरूरत नहीं। सुबह से लेकर शाम तक ट्रेन के हॉर्न की आवाज कानों में गूंजती है। प्लेटफॉर्म पर पहुंचता हूं। ट्रेन के आने के सिग्नल के साथ ट्रेन की सीटी की आवाज भी आती है। चंद मिनटों के बाद ट्रेन की खिड़कियों से टिटिलागढ़ के कई रंग-बिरंगे बोर्ड, पहाड़ियां और हरियाली आंखों से ओझल होते है। हरियाली और पहाड़ों को निहारने के साथ ही किशोर कुमार का एक गाना (फिल्म दोस्त- 1974) काफी देर तक याद आता रहा- 'गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है चलना ही ज़िंदगी है, चलती ही जा रही है'।