आदिवासी समाज के बिना पर्यावरण संरक्षण एक आत्मघाती सोच है...
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आदिवासी समाज के बिना पर्यावरण संरक्षण एक आत्मघाती सोच है...

नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट “कम्पोसिट वाटर मेनेजमेंट इंडेक्स-2018” के बारे में आप जानते ही होंगे, जो कहती है कि देश के 60 करोड़ लोग पानी के “उच्च से अति उच्च” स्तर के जलसंकट का सामना कर रहे हैं.

आदिवासी समाज के बिना पर्यावरण संरक्षण एक आत्मघाती सोच है...

क्या समाज का बहिष्कार करके पर्यावरण और जैव विविधता का संरक्षण किया जा सकता है? यह असंभव है. हमें यह सवाल पूछना ही होगा कि भारत में वर्ष 1927 में भारतीय वन कानून बनाए जाने के पीछे मंशा क्या थी? फिर 1972 में वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम क्यों बना? और वर्ष 1986 में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम बनाने के पीछे क्या मकसद था? इन सवालों के जवाब में कुछ और सवाल आते हैं. भारत में जंगलों का विनाश किसने और क्यों किया? यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति के लिए लकड़ी की जरूरत थी. उत्पादों के परिवहन के लिए पानी के जहाजों की जरूरत थी. इन जरूरतों को पूरा करने के लिए लकड़ी चाहिए थी. इनके लिए उपनिवेशवादी सरकार के हितों को साधने वाली व्यवस्थाएं बनाईं गईं और जंगल काटे गए. यह सही है कि एक समय पर आदिवासियों को इन सरकारों और उपनिवेशवादियों ने मजदूरों की तरह इस्तेमाल किया. 

भारत में चीतों का खात्मा किसने किया? किसने बाघों को लुप्त होने की कगार पर पंहुचाया? राजा-महाराजों, दीवानों और जमींदारों का शौक रहा है शिकार! उन्हीं के महलों की दीवारों पर बाघ, चीतों, बारहसिंघों की खोपड़ियां लटका करती हैं. आदिवासी या जंगल में रहने वाला समुदाय विलासिता का शौक पूरा करने के लिए बाघ नहीं मारता. जंगल में रहने वाला बुनियादी रूप से यही मानता है कि हम तो खजाने के बीच ही रहते हैं, उसे कैसे अपनी पोटली में बांधें?

इससे शुरू करके आज जबकि भारत के 26 राज्य यह जानकारी दर्ज कर रहे हैं कि उनके यहांरेगिस्तानीकरण तेज गति से बढ़ रहा है, देश का 30 प्रतिशत हिस्सा रेगिस्तानीकरण के दायरे में आ चुका है, जब धूल के तूफान अप्रत्याशित गति से बढ़ रहे हैं, तब स्थलीय पर्यावरण के बारे में हमें चिंतित होने का ढोंग छोड़कर, सचमुच चिंतित होना चाहिए. 

आर्थिक विकास के लिए जिस तरह से नदियों, जंगलों और पहाड़ों की हत्या की जा रही है, वह नीतियां वास्तव में हमें साझा मौत की तरफ ले जा रही हैं. डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1980 से 2003 के बीच मार्च-मई धूल के नौ तूफान आए और 640 लोगों की मृत्यु हुई, लेकिन वर्ष 2003 से 2017 के बीच 22 तूफान आए, जिनमें 700 लोगों की मृत्यु हुई. वर्ष 2018 में अकेले 423 लोगों की मौत दर्ज हुई. 

नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट “कम्पोसिट वाटर मेनेजमेंट इंडेक्स-2018” के बारे में आप जानते ही होंगे, जो कहती है कि देश के 60 करोड़ लोग पानी के “उच्च से अति उच्च” स्तर के जलसंकट का सामना कर रहे हैं, 2 लाख लोग हर साल पीने के साफ पानी के अभाव के कारण मर जाते हैं. भारत के 54 प्रतिशत भूजल स्रोत/कुएं सूख रहे हैं. वर्ष 2020 तक भारत के 21 बड़े शहरों का भूजल खत्म हो जाने की आशंका है. इससे 10 करोड़ लोगों के सामने भीषण संकट खड़ा होगा. 

दिल्ली की हवा सांस लेने लायक नहीं रही है, केदारनाथ की यात्रा मानव जीवन के सामने खड़े हो चुके संकट का उदाहरण बन चुकी है. भारत में इस वक्त 11 राज्यों के बीच 7 बड़े जल-विवाद जारी हैं; मसलन कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल विवाद; ये संकट तब विकराल हुए, जब मुनाफाखोरी के लिए सरकारें खुले और अनियंत्रित बाजार के पक्ष में जा खड़ी हुईं. वास्तव में हमें अपनी सरकारों और उनकी नीतियों पर अविश्वास करना सीखना होगा.

संयुक्त राष्ट्र संघ में स्वीकार किए गए सतत विकास लक्ष्यों का दस्तावेज (क्रमांक ए/आरईएस/70/1) कहता है, “हम मानव समाज को गरीबी और अभाव के अन्याय से मुक्त करने तथा अपने ग्रह पृथ्वी के घावों को भरते हुए उसे मानव जीवन के लिए महफूज रखने के लिये कृतसंकल्पित हैं”. ये एकीकृत एवं व्यापक लक्ष्य टिकाऊ विकास के तीनों आयामों, जैसे आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरण परिवेश के बीच संतुलन स्थापित करते हैं. सतत विकास लक्ष्य (15) कहता है कि स्थलीय पारिस्थितिकीय प्रणालियों की रक्षा, बहाली तथा उनके विवेकपूर्ण उपयोग एवं वनों के सतत् प्रबंधन को बढ़ावा देना, मरुस्थलीकरण पर काबू पाना, भूमि क्षरण को रोकना और भूमि संरक्षण की ओर बढ़ना तथा जैव विविधता के बढ़ते ह्रास को विराम देना होगा.

वर्ष 2020 तक, वनों के सभी प्रकार के सतत् प्रबंधन को बढ़ावा देना, वनों की कटाई पर विराम देना, विकृत वनों की बहाली तथा वैश्विक स्तर पर वनरोपण एवं वनीकरण में उल्लेखनीय वृद्धि प्राप्त करना हमारा लक्ष्य है. हम एक वृहद पर्यावरणीय संकट के दौर में पंहुच चुके हैं. यह संकट कुदरती नहीं है, इसे हमारी विकास की आधुनिक परिभाषा ने गढ़ा है. इससे निपटने के लिए सबसे बड़ी जरूरत है कि हम देश और दुनिया की विकास की परिभाषाओं को खारिज करें और पर्यावरण-जैव-विविधता के संरक्षण के मानकों को पूरा करने वाली परिभाषा को लागू करें. इसकेबिना हर पहल बेईमानी वाली पहल होगी.

भारत में आदिवासियों और अन्य वन निवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा के मद्देनजर भारत की संसद ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम–2006 लागू किया है. यह कानून कहता है कि एक निश्चित तारीख (दिसंबर 2005) के पहले वन भूमि पर कब्ज़ा करके खेती करने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दी जाएगी. कानून कहता है, ‘औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्र भारत में राज्य वनों को समेकित करते समय उनकी पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी गई थी, जिसके परिणामस्वरूप वन में निवास करने वाली उन अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय हुआ है, जो वन पारिस्थितिकी प्रणाली को बचाने और बनाए रखने के लिए अभिन्न अंग हैं.” 

लेकिन इस कानून के क्रियान्वयन के 12 सालों का अनुभव बताता है कि कानून में की गई इस स्वीकारोक्ति की भावनाओं को राज्य व्यवस्था ने महसूस नहीं किया है. जो मकसद था, वह टुकड़े-टुकड़े हो रहा है. यह कानून सामुदायिक वन संसाधनों के उपयोग और संरक्षण का अधिकार ग्रामसभा को देता है; यानी समुदाय की सीधी भूमिका. इसके साथ ही यह प्रावधान भी है कि ग्रामसभा को अधिकार है कि वह वन्यजीवों, वनों और जैव विविधता के संरक्षण के लिए समिति गठित करे और जिम्मेदारी ले. 22 सितम्बर 2015 को जनजातीय कार्य मंत्रालय ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को यह पत्र लिखा कि सामुदायिक वन अधिकारों को मान्यता देने के लिए अभियान चलाने की जरूरत है. हालांकि व्यक्तिगत अधिकारों को मान्यता देने की प्रक्रिया कुछ हद तक सफल रही है, लेकिन सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों पर यह प्रक्रिया कमजोर है. ये अधिकार बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये संसाधन 20 करोड़ वन आधारित समुदायों के जीवन और आजीविकाओं को सुरक्षित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं.

इस कानून के पहले पन्ने पर कुछ अहम् वाक्य दर्ज हैं– इसमें अधिकारधारकों द्वारा दीर्घकालीन उपयोग के लिए जिम्मेदारी और प्राधिकार, जैव विविधता का संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने, उनकी जीविका और खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करते समय वन संरक्षण व्यवस्था को मजबूत करना शामिल है; इस कानून के क्रियान्वयन के संबंध में उपलब्ध ताज़ा रिपोर्ट (वर्ष 2017) के मुताबिक भारत में 40.35 लाख व्यक्तिगत दावे जमा किए गए, इनमें से केवल 17.90 लाख दावों के तहत की अधिकार पत्र दिए गए हैं. सामुदायिक अधिकार के लिए 1.37 लाख दावों के विरुद्ध केवल 62.50 हज़ार मामलों में ही अधिकार पत्र दिए गए हैं. बिना कारण बताए बेहद अमानवीय तरीकों से 18 लाख से ज्यादा दावे खारिज कर दिए गए.

भारत में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा स्थापित किया गया वन विभाग वस्तुतः मानता है कि समुदाय, खासतौर पर आदिवासी समुदाय ही जंगलों, जैव-विविधता और वन्य जीवन को नुकसान पहुंचाता है. वह इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि वनवासी समुदाय हजारों सालों से जंगलों के बीच, जंगल के साथ ‘सह-अस्तित्व” के सिद्धांत पर रहता आया है. उस समुदाय को यह भलीभांति अहसास है कि प्राकृतिक संसाधनों के विनाश का मतलब है उनका खुद का विनाश. वह “संग्रहण” और परिग्रह में भी विश्वास नहीं रखता है; वह जंगल की निगरानी “अपने आराध्य” की तरह करता आया है. ऐसा समाज पर्यावरण का विनाश क्यों करेगा? हम सब जानते हैं कि दुनिया में जो भी सबसे अमीर दस हज़ार लोगों की सूची होगी, उसमें संभवतः एक भी आदिवासी परिवार शुमार न होगा! यदि वह जंगल का विनाश करता, तो किसी न किसी आदिवासी का नाम ही “फ़ोर्ब्स” की सूची में सबसे ऊपर होता.

इसके उलट अगस्त 2015 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने वनीकरण पर दिशा निर्देशों का मसौदा जारी किया, जिसमें प्रस्ताव था कि देश के “क्षतिग्रस्त वन” की श्रेणी के 6.90 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्रों को राज्य, वन विभाग और कार्पोरेशनों के बीच अनुबंधों के जरिये निजी कंपनियों को सौंप दिया जाए. इससे निजी कंपनियों को अपना दायरा बढ़ाने में मदद मिलेगी, उद्योगों को विभिन्न वन उत्पाद मिलेंगे. 85 से 90 प्रतिशत क्षेत्र में वे खुद पौधारोपण करेंगे, यानी समुदाय की पहुंच 10 से 15 प्रतिशत क्षेत्र तक ही सीमित रह जाती.

मध्यप्रदेश सरकार ने भी मध्यप्रदेश ग्राम वन नियम, 2015 अधिसूचित कर दिए हैं. ये वन अधिकार कानून की भावनाओं के खिलाफ़ हैं. इसके मुताबिक क्षतिग्रस्त वन को “ग्राम वन” के रूप में अधिसूचित किया जाएगा. इसका मतलब यह है कि जिन गांवों में संयुक्त वन प्रबंधन समितियां गठित हुई हैं, वहां ग्राम वन समितियों को सूक्ष्म वन उपज के कानूनी अधिकार दे दिए जाएंगे. यह कदम ग्राम सभा के अधिकारों को सीमित करता है. फिर जून 2015 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने बांस निवेशकों के साथ बैठक करते हुए यह घोषणा कर दी कि यहां के 36000 वर्ग किलोमीटर के क्षतिग्रस्त वन क्षेत्र को बांस पैदा करने के लिए निवेशकों (निजी क्षेत्र) को उपलब्ध करवाया जाएगा. यह प्रावधान भी किया गया है कि संयुक्त वन प्रबंधन समितियां औद्योगिक इकाइयों के साथ अनुबंध कर सकती हैं. यानी पूरे संसाधन निजी क्षेत्र को सौंप दिए जा सकते हैं, किन्तु समाज को नहीं सौंपे जा सकते.  

वन अधिकार कानून को कमज़ोर करने की लगातार कोशिशें जारी हैं. महाराष्ट्र सरकार ने महाराष्ट्र ग्राम वन नियम, 2014 जारी किये. ये नियम कहते हैं कि ग्रामसभा को नोटिस देकर एक बार दिए गए अधिकारों को कुछ स्थितियों में राज्य सरकार वापस ले सकती है, जबकि वन अधिकार कानून में यह प्रावधान नहीं है. इन नियमों के मुताबिक जंगलों पर आश्रित समुदाय लघु वन उपज इकठ्ठा कर सकता है, जबकि वन अधिकार कानून के मुताबिक समुदाय को लघु वन उपज पर स्वामित्व के अधिकार हैं. 

वन अधिकार कानून ग्रामस्तरीय ग्रामसभा को अधिकार देता है, किन्तु महाराष्ट्र नियम पंचायत स्तर की ग्रामसभा को लघु वनउपज के अधिकार देते हैं. इन सबसे आगे बढ़कर नियम कहते हैं कि ग्राम सभा सामुदायिक वनों के प्रबंधन, सुरक्षा, संरक्षण और संजोने की अपनी कानूनी शक्तियां संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को सौंप देगी. संयुक्त वन प्रबंधन समितियों का गठन वन विभाग द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी सत्ता बरकरार रखने और समुदाय की ताकत को सीमित करने मकसद से किया गया है.

छत्तीसगढ़ सरकार के जनजातीय कल्याण मंत्रालय ने 27 जुलाई 2015 को सभी कलेक्टरों को निर्देश दिए कि वे सुनिश्चित करें कि 15 अगस्त 2015 को आयोजित होने वाली ग्रामसभाओं से यह लिखित में लें कि उनके गांवों में सभी व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकार दावों की कार्यवाही पूरी हो चुकी है; ताकि वन अधिकार कानून का क्रियान्वयन बंद किया जा सके. इस पर जनजातीय कार्य मंत्रालय, भारत सरकार ने लिखा कि इस कानून को समयबद्ध और सक्रियतापूर्वक लागू करने पर जोर दिए जाने का मतलब यह नहीं है कि कानून के प्रावधानों और तय की गई प्रक्रिया को अनदेखा किया जाए.

ओड़ीशा में वन अधिकार कानून के राज्य स्तरीय निगरानी समिति ने 21 जुलाई 2015 को यह निर्णय ले लिया कि संयुक्त वन प्रबंधन समिति के अंतर्गत बनी वन सुरक्षा समिति को ही सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार दे दिए जाएंगे. इसके साथ ही जिला और उपखंड स्तरीय समिति में पुलिस अधीक्षक और उप संभागीय पुली अधिकारियों को भी सदस्य बना दिया गया. स्वाभाविक है कि राज्य सरकारें आदिवासी को प्रताड़ित करने और उसके जीवन के हकों को सीमित करने की हर संभव कोशिशें कर रही हैं. ये बदलाव भी वन अधिकार कानून के खिलाफ़ हैं.

वन अधिकार कानून आवासीय अधिकारों (हेबिटेट राइट्स, जिसका मतलब केवल आवास का अधिकार नहीं, बल्कि एक समग्र परिवेश का अधिकार है) की स्पष्ट व्याख्या करता है. 23 अप्रैल 2015 को जनजातीय कार्य मंत्रालय (भारत सरकार) ने सभी राज्य सरकारों से कहा कि वे अति संवेदनशील आदिवासी समुदायों के आवासीय अधिकारों (पारंपरिक आवास, आजीविकाएं, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, पवित्र, धार्मिक और अन्य कामों के लिए उपयोग में लाया जाने वाला क्षेत्र) को मान्यता देने की व्यापक कोशिशें करें. यह उल्लेख करना जरूरी है कि परंपरा से आदिवासी समुदाय अपने निश्चित दायरे में अपनी व्यवस्था का निर्माण करता रहा है. उसके उस परिवेश का संरक्षण राज्य की जिम्मेदारी है.

वास्तविकता तो यह है कि वन अधिकार कानून, वन निवासी समुदाय को कुछ सीमित अधिकार ही नहीं देता है, बल्कि राज्य व्यवस्था की अलोकतांत्रिक और उपनिवेशवादी पद्धति को बदलने की बहुत महत्वपूर्ण कवायद भी है; लेकिन भारत की संसद द्वारा बनाए गए कानून को कमज़ोर करने की भरसक कोशिशें राज्य के अंगों, खासतौर पर वन विभागों ने ही की है. इसका मतलब यह भी है कि सरकारें अब भी समुदाय को पर्यावरण, जैव-विविधता और वन्य जीवन से अलग करने की कोशिशें कर रही हैं.

(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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