हम ऐसे वक्त में हैं, जब शिक्षा पद्धति में ऐसे पाठ शामिल हैं, जो बच्चों की तर्क करने की क्षमता को छीनते हैं, उन पाठों में भारत के स्थानीय परिवेश और पारिस्थितिकी को शामिल नहीं किया जाता है.
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वर्ष 2018 और वर्ष 2019 के बीच के 12 महीनों में भारत एक ऐसे मुहाने पर खड़ा जहां भारत की राजनीति की चारित्रिक परीक्षा होगी. देश का मतदाता यह तय करेगा कि वह मजहबी, जातिवादी उन्माद की सियासत चाहता है या अमन, बराबरी और सांस्कृतिक विविधता से संपन्न राजनीति. वास्तव में यह संविधान की उद्देशिका में दर्ज चार शब्दों और उनके मायनों - न्याय, बंधुता, समता और आज़ादी, के अस्तित्व को बचाने का वक्त होगा. हमें यह अब स्वीकार कर लेना होगा कि भारत की राजनीति और चुनावी लोकतंत्र में बच्चों को बहिष्कृत करके रखा गया है. जब उन्हें वयस्क और मतदाता बनने दिया जाता है, पर नागरिक बनाने के लिए कोशिशें नदारद हैं. एक दिन आता है, जब बच्चा अचानक से वयस्क नागरिक और मतदाता बना दिया जाता है. वास्तव में नागरिकता का विकास एक प्रक्रिया, पहल और व्यवस्थागत शिक्षण से ही हो सकता है, जो 17 साल 364 दिन तक बच्चों को नहीं दी जाती और वे अचानक से उन पर एक गंभीर जिम्मेदारी लाद दी जाती है.
हम ऐसे वक्त में हैं, जब शिक्षा पद्धति में ऐसे पाठ शामिल हैं, जो बच्चों की तर्क करने की क्षमता को छीनते हैं, उन पाठों में भारत के स्थानीय परिवेश और पारिस्थितिकी को शामिल नहीं किया जाता है, ताकि कहीं बच्चे ऐसी विकास परियोजनाओं का विरोध ना करने लगें, जिनसे पर्यावरण नष्ट होता हो. बच्चों को जाति और मज़हब के भेदभावों से बाहर लाने की तत्परता हमारी सरकारों में नहीं बची है.
आज ऐसे बच्चे लोकतंत्र में पहली बार सीधे भूमिका निभाएंगे, जो 21वीं सदी में पैदा हुए, जिनके सामने क्रूर विकास की तेज रफ़्तार है, संचार माध्यमों का बढ़ता प्रभुत्व है, बहुत गहरी आर्थिक असमानता है, जिन्होंने कुपोषण और बीमारियों के गहरे दंश को भोग है और जिन्हें असमान शिक्षा व्यवस्था का सामना करना पड़ा है. ऐसे सत्य रच दिए गए हैं, जो मानवीय मूल्यों को समाप्त करने के लिए आमादा हैं. आभासी भावुकता ने समानुभूति के मानवीय बोध को मारना शुरू कर दिया है.
जरा एक बार खुद को पिछले 18 सालों के अखबारों और मीडिया की सुर्ख़ियों की तरफ ले जाईये. आप क्या पाते हैं? एक पाठक के रूप में मेरी चुनौती है कि तीन चौथाई सुर्खियां और जानकारियां आतंकवाद, मज़हबी दंगों, जातिवादी शोषण, आवारा भीड़ की हिंसा, भूख-कुपोषण-किसान आत्महत्याएं और राज्य व्यवस्था में गहरी जड़ें जमाते भ्रष्टाचार पर ही केंद्रित रही हैं. 21वीं सदी में जब बच्चे भाषा की वर्णमाला और व्याकरण सीखकर वाचन का अभ्यास करने के लिए तैयार हुए, तो उनके हाथ में यही ख़बरें और यही घटनाएं आयीं. उन्होंने सामने राजनीति के पतन को उस वक्त देखा, जब वे समाज और सामाजिक व्यवहार को जानने-समझने की उम्र में थे. उन्होंने तो यही जाना है कि अश्लील भाषा, झूठ, हिंसा, वैमनस्यता, असहिष्णुता और भ्रष्ट आचरण ही लोकतांत्रिक व्यवस्था की चारित्रिक विशेषताएं और कौशल हैं. जब सामने घटित हो रहे सच को ये बच्चे, किशोरवय नागरिक देख रहे थे, तब परिवार ने भी उनकी समझ को सुधारने और बेहतर करने की कोशिश नहीं की; उनके पास समय ही नहीं था!
यही वह दौर हैं, जब आर्थिक असमानता ने बहुत तेज गति से उन्नति की है. फ़ोर्ब्स के मुतबिक वर्ष 2001 में भारत में चार डालर अरबपति थे, जो वर्ष 2017 में बढ़कर 101 हो गए. वर्ल्ड इनेक्वेलिटी लेब द्वारा प्रकाशित शोधपत्र (इंडिया इनकम इनेक्वेलिटी – फ्राम ब्रिटिश राज टू बिलियनेयर राज?) के मुताबिक भारत में वर्ष 1980 से 2015 के बीच में हुई आर्थिक उन्नति के अध्ययन से विकास में भयंकर असमानता दिखाई देती है. इस अवधि में भारत के निचले 50 प्रतिशत वयस्कों की आय में 90 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, परन्तु सबसे ऊंचे स्तर के 0.001 प्रतिशत लोगों की आय में 2040 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
इतना ही नहीं, वर्ष 2015 में सबसे निचले स्तर के 50 प्रतिशत वयस्क लोगों (39.72 करोड़) की औसत आय 40671 रूपए थी, जबकि सबसे ऊंचे वर्ग के 0.001 प्रतिशत वयस्कों (7943) की औसत आय 18.86 करोड़ थी. आर्थिक समानता एक व्यापक अर्थशास्त्रीय विषय नहीं है, यह असमानता बच्चों को जीवन के बुनियादी अधिकारों से वंचित करती है और बेहतर जीवन पाने के अवसरों से वंचित करती है. असमानता के झूले में पलने वाले बच्चे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सहभाग करने के लिए तैयार नहीं हो पाते हैं.
मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. मार्च-अप्रैल 2019 में आम चुनाव होंगे. नवंबर 2018 से लेकर अप्रैल 2019 तक का समय इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि 21वीं सदी में जन्म लेने वाले बच्चे अब कानूनी रूप से वयस्क होकर पहली बार मतदान करेंगे.
भारत की जनगणना-2011 के मुताबिक वर्ष 2011 में 11 और 12 वर्ष की आयुवर्ग में कुल 5.26 करोड़ लोग थे. जो वर्ष 2018-2019 में 18 वर्ष के होकर वयस्क होंगे. ये वो पीढ़ी है जिसने 21वीं सदी के पहले वर्ष में जन्म लिया और पहली बार मतदान करेंगे. मध्यप्रदेश में यह संख्या 34.39 लाख, उत्तरप्रदेश में 1.01 करोड़, महाराष्ट्र में 52.88 लाख, राजस्थान में 33.20 लाख, छत्तीसगढ़ में 11.61 लाख होगी.
भारत में बच्चों की मृत्यु दर बहुत ज्यादा रही है. यह बड़ी चुनौती रही है, किन्तु भारत की सरकारों ने अपनी विकास की नीतियों में इसे महज़ औपचारिक रूप से शामिल किया. राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में लाखों बच्चों ने दम तोड़ा है.
जीवन की चुनौतियों से जूझकर जीवित बचे शेष बच्चे अब भारतीय लोकतन्त्र में औपचारिक रूप से साझेदार हो जायेंगे. औपचारिक रूप से इसलिए क्योंकि भारतीय लोकतंत्र में 18 साल की उम्र तक व्यवस्था में बच्चों की सहभागिता की कोई माकूल-संवैधानिक व्यवस्था ही नहीं है. यह भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी भी है. वर्तमान समाजार्थिक-राजनीतिक व्यवस्था में ऐसा कोई पाठ्यचर्या ही नहीं है, जो बच्चों को संविधान, नागरिकता, सह-अस्तित्व, समानुभूति और बुनियादी मानवीय मूल्यों से जोड़ कर परिपक्व बनाती हो. यह जिम्मेदारी धर्मभीरू समाज को सौंप दी गई है, जो अपने आप में लैंगिक-जातिगत-वर्गवादी और भेदभावकारी व्यवहारकर्ता है. ऐसे में बहुत जरूरी था कि “राज्य बच्चों के प्रति जिम्मेदार” होता, बच्चों को लोकतंत्र में सहभागी बनाने, केवल सही और गलत का निर्णय नहीं, बल्कि उचित और अनुचित की पहचान की क्षमता विकसित करने की नीति बनाता, पर ऐसा हुआ नहीं. 21 वीं सदी में रूढ़िवादी व्यवहार से आगे बढ़कर हम इंटरनेट-रोबोट और मशीन आधारित संवाद को नव-विकास का आधार मान लिया. हम यह समझ ही नहीं पाए कि राष्ट्र और समाज का निर्माण नागरिकों से होता है, मशीनों और लोभ से नहीं.
जब 21 वीं सदी का आगमन हो रहा था, तब गांव-शहर, बाज़ार-मंदिर-गिरजे, हर जगह पर एक उत्सवी मजमा था. हर कोई एक दूसरे से पूछ रहा था कि क्या 21वीं सदी आ रही है? हर कोई एक दूसरे को जवाब दे रहा था कि हां, 21 वीं सदी आ रही है. वैसे तो बस साल और उसकी संख्या बदल रही थी, किन्तु दुनिया का हर एक व्यक्ति मान रहा था, कि अब समाज भी बेहतर होगा. भुखमरी, बेरोज़गारी, गैर-बराबरी, शोषण, आतंक और दहशत में कमी आएगी. आस्थाएं तो बरकरार रहना ही चाहिए, लेकिन यह साल 21 वीं सदी के वयस्क होने का साल भी है. यह सदी 18 साल की हो चुकी है. अब माकूल समय है कि कुछ मानकों और मूल्यों के आधार पर हम अपने इस समय का मूल्यांकन करें. यह जांचें-परखें कि वास्तव में इन 18 सालों में क्या बदला है? इसका सबसे बेहतर आंकलन हम उन बच्चों को केंद्र में रखकर कर सकते हैं, जो इस साल वयस्क हुए हैं? उनकी वयस्कता की परीक्षा का साल भी तो है यह !
(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)