बचपन उपेक्षित है और युवा महत्वपूर्ण!
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बचपन उपेक्षित है और युवा महत्वपूर्ण!

शिक्षा, कौशल विकास और मनोवैज्ञानिक आत्मविश्वास के अवसर से बच्चे वंचित किये गए हैं. भारत में जो नव-मतदाता यानी वयस्क नागरिक मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में चुनाव की प्रक्रिया में जायेंगे, उन्हें भांति-भांति के तरीकों से शिक्षा और विकास के अवसरों से वंचित किया गया है.

बचपन उपेक्षित है और युवा महत्वपूर्ण!

जो अपने बचपन में छले गए हैं, वे आज युवा बन रहे हैं और युवाओं को यह समझाने की कोशिश हो रही है कि वे बहुत महत्वपूर्ण हैं. आप सबने भारत का संविधान पढ़ा होगा. पूरा न भी पढ़ा हो, तो कम से कम उद्देशिका तो पढ़ी ही होगी. एक बार फिर से पढियेगा. इस उद्देशिका में लिखा है कि “हम, भारत के लोग” भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए और उन सबमे व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुआ बढ़ाने के लिए संविधान को बना रहे हैं, लागू कर रहे हैं और खुद को अर्पित कर रहे हैं.”; जो लिखा गया है, उसे यदि जांचना-परखना हो तो बच्चों और महिलाओं की स्थिति पर इंसानी नज़र डालिए. भारत में बच्चों की जीवन का हर हिस्सा पालकों, परिवार और समुदाय पर निर्भर है. वे एक स्वतंत्र इकाई नहीं माने जाते हैं. उन्हें 18 साल का होते ही अचानक से एक स्वतंत्र इकाई मान लिया जाता है. जीवन के पहले अठारह सालों में उन्हें समाज और संविधान के मूल्यों की शिक्षा दिए जाने की व्यवस्था बन नहीं पायी है. राजनीति भी वायदा नहीं करती कि वह असमानता खत्म करेगी, समाज खुद जाति-मज़हब का भेद बना कर रखे हुए है. न्यायपालिका उन लोगों को जनप्रतिनिधि बनने से नहीं रोकती, जिन पर हत्या, बलात्कार सरीखे मामले दर्ज हैं. भारत में छः लाख बच्चों के साथ अपराध हुए हैं, किन्तु सजा एक तिहाई आरोपियों को ही मिलती है. ऐसे में अन्याय से गुज़र कर निकले बच्चे किस तरह की धारणा लोकतंत्र और संविधान के प्रति बनाएंगे. जरा सोचियेगा!

जीवन की संभावना और बाल मृत्यु
भारत के आर्थिक विकास के लक्ष्यों में बच्चों के जीवन का अधिकार केंद्र में नहीं रहा है. यह हमेशा माना गया कि यदि आर्थिक उन्नति होगी तो बच्चों के जीवन पर अपने आप असर पड़ेगा, पर ऐसा हुआ नहीं! वर्ष 2001 में भारत में लगभग 2 करोड़ बच्चों का जन्म हो रहा था, यह संख्या वर्तमान में 2.7 करोड़ के आस पास है. इस मान से वर्ष 2001 में 13.60 लाख बच्चों की मृत्यु पांचवा जन्मदिन मनाने से पहले ही हो रही थी. यह संख्या वर्ष 2016 में 9.18 लाख के आसपास रही. एक आंकलन के अनुसार 21वीं सदी की शुरुआत से वर्ष 2017-18 तक 2.05 करोड़ बच्चों की मृत्यु पांच वर्ष की उम्र तक पंहुचने से पहले ही गई. ये बच्चे आज मतदाता तो नहीं बन पाये, किन्तु इनकी मृत्यु के तात्कालिक कारण और मूल कारण आज भी चुनाव में बहस से बाहर रखे जाते हैं.

शिक्षा के नाम पर ठगी गई है यह पीढ़ी?
हमें बार-बार यह बताया जाता रहा है कि अब भी आठवीं में पढ़ने वाले आधे से ज्यादा बच्चे द्प्प्सरी या तीसरी कक्षा के पाठ पढ़ भी नहीं पाते हैं, जोड़ यह घटाना नहीं कर पाते हैं. इससे भी आगे असर-2017 की रिपोर्ट बताती है कि 18 साल की उम्र के 27.8 प्रतिशत और 32.1 प्रतिशत लड़कियां स्कूल में दर्ज नहीं हैं. अकेले मध्यप्रदेश में वर्ष 2010-11 से 2015-16 के बीच 42 लाख बच्चों ने माध्यमिक स्तर के पहले ही शिक्षा छोड़ दी.

इसके साथ ही जो बच्चे स्कूल में 12वीं कक्षा में दर्ज हैं, उनमें से 95.7 प्रतिशत बच्चे किसी भी तरह के कुशलता विकास के कार्यक्रम से जुड़े नहीं है. आज सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि कौशल और कुशलता के पैमाने क्या हैं? भारत सरकार ने केवल ऐसे कौशलों को मदद दी है, जिन्हें हासिल करके नयी पीढ़ी कुछ खास कंपनियों और क्षेत्रों में सेवा देने लायक हो जाए; मसलन आदिवासी लड़कियां पर्यटन क्षेत्र में होटल स्वागत कार्यकर्ता बनें, युवा नयी कारों की सुधार का काम करें और काल सेंटर के हिस्सा बनें. इन कामों में कोई समस्या नहीं है, किन्तु क्या समाज के मूल कौशल बढ़ाने और आत्मनिर्भरता लाने के नज़रिए से कोई नजरिया नहीं है, इतना तय है.

असर-2017 की रिपोर्ट के मुताबिक 14 से 18 साल की उम्र के 70 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं, किन्तु मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने वाले इन बच्चों से एक चौथाई बच्चे अपनी ही भाषा में लिखी गई सामग्री पढ़ नहीं पाये.यह कहना मुश्किल है कि आज मतदान करने वाले नव-मतदाता वास्तव समाज-केंद्रित नज़रिए से निर्णय लेकर अपने लिए एक तार्किक राजनीतिक व्यवस्था चुन पायेंगे.

अन्याय के शिकार बच्चे और न्याय का सिद्धांत
भारत का संविधान कहता है कि हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने का वायदा करते हैं, इसके लिए हर नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का अधिकार दिया जाएगा. सवाल यह है कि क्या बच्चों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलता है? भारत में अधिसंख्य बच्चे इससे पूरी तरह से वंचित हैं.

शिक्षा, कौशल विकास और मनोवैज्ञानिक आत्मविश्वास के अवसर से बच्चे वंचित किये गए हैं. भारत में जो नव-मतदाता यानी वयस्क नागरिक मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में चुनाव की प्रक्रिया में जायेंगे, उन्हें भांति-भांति के तरीकों से शिक्षा और विकास के अवसरों से वंचित किया गया है.

एनएफएचएस-चार के अनुसार वर्ष भारत में हर चार में से एक बच्चे की कम उम्र में ही शादी कर दी गई. भारत में 26.8 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 32.4 प्रतिशत, उत्तरप्रदेश में 21.1प्रतिशत, राजस्थान में 34.4 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 21.3 प्रतिशत और बिहार में 42.5 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में कर दी गई.

इससे उनकी शिक्षा का अधिकार बाधित हुआ, वे आत्मनिर्भर नहीं हो पायीं, कम उम्र में उन्हें गर्भवती होना पड़ा और उनके स्वास्थ्य पर गहरी चुनौतियां खड़ी हुईं. यह चुनाव का मुद्दा नहीं है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार, कर्नाटक तक सभी राज्यों में राजनीतिक दलों के नेता और सरकार के मंत्री ऐसे विवाह समारोहों में मुख्य अतिथि होते हैं, जहाँ बड़ी संख्या में बाल विवाह किये जाते हैं. वे बाल विवाह को रोकने की बात नहीं करते, बल्कि बेशर्मी से बाल विवाह के प्रत्यक्षदर्शी बनते हैं क्योंकि ऐसे रूढ़िवादी समुदाय से उन्हें चुनावों में मत हासिल करने होते हैं. उन्हें पता होता है कि बाल विवाह रोकने से उन्हें मत हासिल नहीं होंगे, बाल विवाह में शरीक होने से उन्हें फायदा होगा. विवाह अब एक राजनैतिक आयोजन है, इसीलिए मध्यप्रदेश सरकार मुख्यमंत्री कन्यादान योजना का संचालन करती भी है, जो एक तरह से दहेज और लैंगिक भेदभाव को स्वीकार्यता देने की पहल है. कम उम्र में विवाह की जिम्मेदारी से बंध जाने वाला मतदाता किस विचार पर मतदान करेगा? उसके सामने तो बस यही सवाल होता है कि मुझे रोज़गार मिल जाए? जो उसे नहीं मिलता और ये नव-विवाहित बच्चे जिम्मेदारियों का भारी बोझ उठाकर बदहाली का पलायन करने के लिए मजबूर होते हैं.

बाल मजदूर - बच्चे मतदाता तो नहीं, पर मजदूर बना दिए गए!
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में 1.27 करोड़ बच्चे बालश्रमिक के रूप में काम कर रहे थे. इस संख्या में कुछ कमी आई है, पर बाल श्रम अभी इतना भी कम नहीं हुआ है. ताज़ा स्थिति में भारत में 1.01 करोड़ बच्चे श्रम में जुटे हुए हैं. जिस तरह आर्थिक बदहाली बढ़ी है, सूखे और बाढ़ का प्रकोप विस्तार ले रहा है, जिस तरह से छोटे और मझोले उद्योग और ग्रामीण उद्योग खत्म हुए हैं, उससे यह तय है कि अब बाल श्रमिकों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है. वर्ष 2001 से अब तक की अवधि के आंकड़ों से पता चलता है कि स्थिति बहुत खराब है. राजस्थान में वर्ष 2001 में 12.62लाख बाल मजदूर थे, जो 2011 में 8.48 लाख रह गए. मध्यप्रदेश में यह संख्या 10.65लाख से घट कर 7 लाख, छत्तीसगढ़ में 3.65 लाख से घटकर 2.58 लाख पर आई है. ये जनगणना के आंकड़े हैं. राज्य व्यवस्था की असंवेदनशीलता का स्तर यह है कि पिछले 20 सालों में उसने ऐसा विशेष सर्वेक्षण ही नहीं करवाया, जिससे बाल श्रमिकों की संख्या और स्थिति का पता चल सके.

शोषण के शिकार बच्चे
21 वीं सदी ने बच्चों को सुरक्षा, गरिमा और संरक्षण का अधिकार नहीं दिया है. इस सदी की शुरुआत हुई थी, तब भारत में बच्चों के प्रति अपराध में 10814 मामले दर हुए थे. सबसे ताज़ा रिपोर्ट (एनसीआरबी-2016) बताती है कि अब तक इन मामलों में दस गुने की वृद्धि हुई है; वर्ष 2016 में बच्चों के प्रति अपराध के 106958 मामले दर्ज हुए. मध्यप्रदेश में इन मामलों की संख्या 1425 से बढ़कर 13746, राजस्थान में 218 से बढ़कर 4034, छत्तीसगढ़ में 585 से बढ़कर 4746, उत्तरप्रदेश में 3709 से बढ़ कर 16079 हो गई. यह संख्या क्यों बढ़ी? सरकार के नुमाईंदे अक्सर कहते है कि अब ज्यादातर मामले पुलिस में दर्ज हो रहे हैं, इसलिए संख्या बढ़ी हुई दिखती है! पर यही सच नहीं है! सच यह भी है कि राज्य व्यवस्था में बच्चों के संरक्षण और सुरक्षा के लिए तंत्र को कमज़ोर किया है, इससे परिवार से लेकर बाज़ार तक हर जगह पर बच्चों का शोषण बढ़ा है.

वर्ष 2001 में बच्चों के प्रति अपराध के कुल 21233 मामले भारत की अदालतों (Cases pending in Courts) में लंबित थे. सरकारों और न्याय व्यवस्था ने साझा असंवेदनशीलता दिखाई और लंबित मामलों की संख्या वर्ष 2016 में 10 गुणा बढ़कर 227739 हो गई. मध्यप्रदेश में लंबित मामले 2065 से बढ़कर 31392, राजस्थान में 250 से बढ़कर 9048, छत्तीसगढ़ में 684 से बढ़कर 5977 हो गए.

वर्ष 2011 में भारत में बच्चों से बलात्कार और लैंगिक शोषण के 2113 मामले दर्ज हुए थे, इनमें 18 गुना की वृद्धि हुई है. वर्ष 2016 में 36022 मामले दर्ज हुए. मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ सभी राज्यों में यह संख्या ऐसे ही बढ़ी है. वर्ष 2017 से भारत के 7 राज्यों में 19 बाल संरक्षण गृहों में ही 2100 बच्चों के यौन-लैंगिक शोषण के मामले सामने आ गए हैं.

ऐसे में बच्चे और बच्चों के वयस्क हुए नागरिक भारत की विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बारे में क्या धारणा बनाएंगे? केवल यही कि भारत का लोकतंत्र थोथा है, यह सड़ गया है. यहां ये तीनों स्तंभ बच्चों के शोषण में भागीदार हैं, लेकिन भारत में विशेषाधिकार की व्यवस्था बनायी गई है, यानी भारत के नागरिक न्यायपालिका और विधायिका के बारे में कड़वा सच बोलेंगे, तो उसे अवमानना मान जाएगा और सच बोलने वाला व्यक्ति सजा पाएगा!

सच यह है कि तीनों स्तंभ मिलकर बच्चों के अपराधी को बरी कर देते हैं और अपराधियों को ज्यादा बड़ा शोषण करने का हक देते हैं. भारत में बच्चों के शोषण के मामलों में वर्ष 2001 में 47.4 प्रतिशत मामलों में आरोपी को सजा मिलती थी. यह अनुपात वर्ष 2016

में घट कर 30.71 प्रतिशत पर आ गया. मध्यप्रदेश में पहले 38.9 प्रतिशत मामलों में आरोपी ने सजा पायी, वर्ष 2016 में 30.16 प्रतिशत को ही अपराधी माना गया. ये बच्चे आज जब अपने आसपास के चुनावी महोत्सव को देखते हैं, तो उन्हें एक भी शब्द यह सुनाई नहीं देता है कि बच्चों के प्रति अपराध में कमी लाने के लिए प्रतिबद्ध पहल होगी और न्यायपालिका को दुरुस्त और जवाबदेय बनाया जाएगा. गैर जवाबदेय राजनीतिक व्यवस्था ने बच्चों को नाउम्मीदी और हिंसा की विरासत दी है.

क्या बच्चे जिम्मेदार नागरिक बन पायेंगे?
गंभीर शोषण अपराधों और अपमानजनक व्यवहार ने किशोरों, नव-युवाओं और नव-वयस्क नागरिकों को इस सदी में लोकतंत्र का एक भी ईमानदार पाठ नहीं पढ़ाया है. उन्होंने इस सदी में देखा है कि किस तरह सत्‍ता पाने के लिए मज़हबी दंगे प्रायोजित किए जाते हैं, न्यायपालिका में भेदभाव का विष प्रवेश कराती है. इन मतदाताओं ने देखा है कि भारत अब आवारा भीड़ को कत्लेआम की आज़ादी दे रहा है और उनके चुने हुए प्रतिनिधि कातिलों का सम्मान करते हैं.

यह आंकलन थोड़ा या शायद थोड़ा ज्यादा अकादमिक लग सकता है, किन्तु इसकी सच्चाई को परखने का एक ही जरिया है; बच्चों और इस सदी के पहले वयस्कों से संवाद करना; उन्हें कुछ समझाना नहीं, बल्कि उनकी बात को सुनने की कोशिश करना! बच्चे जो देखते हैं, बच्चे जिस व्यवहार का सामना करते हैं; वह उनके मन और बोध पर अंकित हो जाता है; उन्हें यह अहसास है कि सरकारें और राजनीतिक दल उन्हें समान शिक्षा का अधिकार नहीं देते हैं, उनके साथ भेदभाव होता है. उन्हें अपना पक्ष और बात रखने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है. वे हर समय पराधीन हैं, परिवार में भी और भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी!

(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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